जीवन का असली आनंद चाहें तो
खुद खुश रहें,औरों को खुश रखें
– डॉ. दीपक आचार्य
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संसार में सब कुछ होते हुए भी लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग ऎसा है जो कभी खुश नहीं रह सकता, चाहे जमाने भर के सारे सुख, आदर और सम्मान तथा अभिनंदन प्राप्त क्यों न हो जाएं।सभी प्रकार के वैभव, पद-प्रतिष्ठा, लोकप्रियता, धन-संपदा और संसाधनों तथा अनुकूल परिस्थितियों के होने के बावजूद यदि कोई प्रसन्न नहीं रह सकता है तो उसके कई कारण हो सकते हैं।इनमें मनोरोगी होना, ईष्र्यालु, द्वेषी तथा विघ्नसंतोषी स्वभाव वाला होना अथवा खुश रहने की कला से पूरी तरह अनभिज्ञ होना और सामाजिक सरोकारों के प्रति उपेक्षित स्वभाव वाला होना मूल कारणों में गिने जाते हैं।हमारे आस-पास और क्षेत्र में ऎसे बहुसंख्य लोग हैं जो कभी खुश नहीं देखे गए। इनके चेहरों पर यदि गलती से कभी खुशी दिखाई दे भी जाए तो लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं और इसे किसी अभिनय का एक हिस्सा मान लेते हैं।
भगवान ने प्रकृति का खुला आँगन दिया है, मनोरम दृश्यों भरा संसार है जिसमें भांति-भांति के जीव-जन्तु और पेड़-पौधे, नैसर्गिक रमणीयता बिखेरने वाले दर्शनीय एवं सुकूनदायी स्थल हैं और इन्द्रधनुषी संसार आक्षितिज पसरा हुआ है। पंचतत्वों और मोह माया का खेल हमारे सामने रोजाना नित नूतन आकर्षणों से भरा हुआ नृत्यरत है।इन सबके बावजूद यदि हम खुश नहीं रह पाते हैं तो हमें यह सच्चे मन से स्वीकार कर लेना चाहिए कि या तो हम मनोरोगी हैं या होने लगे हैं अथवा हम जीवन जीने की कला से वाकिफ नहीं है और यही कारण है कि सब कुछ होते हुए भी नकारात्मकताओं से भरे-पूरे रहकर खुद भी हर क्षण दुःखी, व्यथित एवं विषादग्रस्त रहते हैं और दूसरों को भी परेशान करने में कोई कसर बाकी नहीं रखते।कई सारे बड़े-बड़े और प्रतिष्ठित कहे जाने वाले कुर्सीनशीन लोगों के बारे में भी अक्सर सुना जाता है कि ये लोग खुद तो हमेशा दुःखी रहते ही हैं, दूसरों को भी दुःखी और परेशान करने तथा पीड़ाएं पहुंचाने में कभी पीछे नहीं रहते। इन लोगों के घरवाले भी इनकी हरकतों और व्यवहार से तंग होते हैं लेकिन कहें तो किससे?आजकल ऎसे लोगों की तादाद खूब बढ़ती ही जा रही है जो बिना किसी वजह के दुःखी रहने के आदी हो गए हैं। जीवन के सारे सुखों और संसाधनों का भरपूर आनंद पाने के लिए हमेशा सकारात्मक चिंतन और प्रसन्न रहना सबसे पहला उपाय है।जो लोग खुद प्रसन्न रहते हैं और दूसरों को प्रसन्न रखने की कला से वाकिफ नहीं होते हैं उनका सुख भी आभासी और क्षणिक ही होता है, इनके सुख को स्थायी भाव कभी भी प्राप्त नहीं हो पाता है।इसी प्रकार जो लोग स्वयं खुश नहीं रहते वे अपने आस-पास के लोगों से भी दुःख अनुभव करते हैं क्योंकि ये स्वयं तो दुःखी होते ही हैं, अपने साथ वालों को भी अपनी ही तरह मानते हैं। और इस कारण ये हमेशा दुःखों और विषादों के मकड़जाल में फंसे हुए रहते हैं जहाँ से न उनकी मुक्ति संभव है, न सुधार। क्योंकि ऎसे लोगों के लिए शंकाओं,भ्रमों और आशंकाओं के जाने कितने मकड़जाल हमेशा बुनने लगते हैं और ऎसे में ये आत्मदुःखी और स्वयंभू विषाद संतप्त लोग जीवन में कभी भी इन नकारात्मक तंतुओं से बाहर नहीं निकल पाते हैं।जीवन का शाश्वत और असली आनंद तो वे बिरले ही प्राप्त कर पाते हैं जो खुद तो खुश रहते ही हैं, अपने संगी-साथियों, कुटुम्बियों और आस-पास के लोगों को भी खुश रखने की कला में माहिर होते हैं।एक बार जब कोई यह कला सीख जाता है तब उसके जीवन में चाहे कितने दुःख और विषम परिस्थितियां आएं, वह हमेशा स्वस्थ, मस्त और प्रसन्न रहता है और ये समस्याएं और चुनौतियाँ भी ऎसे लोगों के व्यक्तित्व के आगे बौनी हो जाती हैं।जीवन का असली आनंद चाहें तो खुद भी खुश रहें और अपने संपर्कितों, आस-पास के लोगों को प्रसन्न रखने की कला सीखें और आजमाएं। जिनके आस-पास के और साथ के लोग खुश रहते हैं उन लोगों की खुशी में कभी कमी नहीं आती है और वे जमाने भर में बिंदास होकर विचरण करते हैं तथा अपने कर्मयोग में सफलता पाते हुए जीवन को पूरी मस्ती के साथ जीते हैं।इसलिए हमेशा यह प्रयास करते रहें कि अपने निकटवर्ती लोग खुश रहें। चाहे वे कुटुम्बी हों, मातहत या समकक्ष हों या फिर अपने इलाके के संपर्कित अथवा और कोई…. हमेशा खुश रहें तथा औरों को भी खुश रखें। इस एकमात्र कला को अंगीकार कर लेने मात्र से दुनिया की सारी समस्याओं का निवारण अपने आप होने लगता है।
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