ओ३म्
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मनुष्य इस जड़-चेतन संसार में जन्म लेता व मृत्यु को प्राप्त होता है। उसे यह पता नहीं होता कि उसका जन्म क्यों हुआ व उसे क्या करना है? उसे यह भी पता नहीं होता कि जन्म से पूर्व वह था या नहीं और यदि था तो वह कहां था? मरने पर उसकी आत्मा वा चेतन सत्ता का अस्तित्व बना रहेगा या नहीं, इस बारे में न वह जानता है और न जानने की कोशिश ही करता है। उसको जन्म देने वाले माता व पिता के साथ भी यही बात होती है। वह भी इन प्रश्नों के उत्तर नहीं जानते। जो व्यक्ति जिस मत व सम्प्रदाय में जन्म लेता है, उसे उस मत के ही संस्कार व शिक्षायें मिलती हैं। संसार में प्रचलित सब मतों की शिक्षाओं में समानता नहीं है। यदि समानता होती तो फिर किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं होती। अतः सभी मनुष्यों को विचार कर अपने जीवन के उद्देश्य एवं उस व उन उद्देश्यों की पूर्ति के साधनों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। इसके लिये स्वाध्याय का आश्रय लिया जा सकता है। स्वाध्याय में सभी प्रकार की पुस्तकों से समस्या हल होने के स्थान पर उलझनें हो सकती हैं। सभी मत-पन्थों व विद्वानों की पुस्तकों में भी मत-मतान्तरों के अनुरूप अविद्यायुक्त एवं भ्रमयुक्त बातें हैं। अतः सत्य व यथार्थ विद्या वा ज्ञान के ग्रन्थों का स्वाध्याय करना ही उचित होता है।
ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि विषयक सत्य ज्ञान को जानने के लिये हमारे अनेक पूर्वजों ने प्रयत्न किये और उनके ज्ञान व अनुभव हमें उपनिषद, दर्शन आदि पुस्तकों में भी प्राप्त हैं। हमें उन ग्रन्थों को पढ़कर उनकी परीक्षा करनी चाहिये और सत्य को स्वीकार तथा असत्य का त्याग करना चाहिये। यही बात ऋषि दयानन्द जी ने भी अपने ग्रन्थों में कही है। अपने ज्ञान व अनुभव के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि संसार के सभी मतों व ग्रन्थों में सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन वा स्वाध्याय सबसे अधिक लाभदायक एवं मनुष्य जीवन के उद्देश्य से परिचित कराने वाला है। इस ग्रन्थ से मनुष्य जीवन के उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति के साधनों का मार्गदर्शन भी होता है। जो व्यक्ति निष्पक्ष होकर इस ग्रन्थ का अध्ययन करता है वह सत्य को जानकर व सत्य मार्ग को अपना कर जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होता है। मोक्ष प्राप्ति पर ही मनुष्य सभी प्रकार के दुःखों से छूटता है। मोक्ष में लम्बी अवधि के लिये जन्म व मृत्यु पर रोक लग जाती है। जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहकर उसके आनन्द को भोगता है। सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास में ऋषि दयानन्द ने मोक्ष विषय को विस्तार से समझाया है। मोक्ष का ज्ञान केवल अन्ध विश्वास व मिथ्या आस्था का विषय नहीं है अपितु यह अध्ययन, तर्क, युक्ति व आप्त प्रमाणों से भी सत्य सिद्ध है। सांख्य, योग एवं वेदान्त दर्शन का अध्ययन कर भी इस विषय में लाभ होता है। इसे पढ़ने के बाद सभी मतों के साहित्य को पढ़ा जा सकता है और सत्य और असत्य का निर्णय किया जा सकता है। हमारा देश सौभाग्यशाली है जहां ईश्वर का वेदज्ञान सुलभ है और इसके साथ यहां सत्य विद्या के अनेक सत्शास्त्र उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति सहित ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि एवं आर्याभिविनय आदि भी उपलब्ध हैं। हम यह समझते हैं कि जो व्यक्ति मनुष्य जीवन लेकर इन ग्रन्थों का अध्ययन व मनन नहीं करता वह अभागा मनुष्य है। शायद इस कारण से परमात्मा उसे अगले जन्म में मनुष्य न बनाये। सत्यार्थप्रकाश एवं वैदिक साहित्य से दूर मनुष्य सत्य को प्राप्त होकर मनुष्य जीवन के लक्ष्य व उद्देश्यों को कदापि प्राप्त नहीं हो सकता। अतः हमें वैदिक साहित्य का अध्ययन कर उसकी सत्यता की परीक्षा अवश्य करनी चाहिये और सत्य को जानकर उससे लाभ उठाना चाहिये।
कोरा भौतिक जीवन जिस प्रकार से समाज व देश के लिये उपयोगी नहीं होता है उसी प्रकार से कोरा आध्यात्मिक जीवन भी मानवजाति के लिये पूर्णतः लाभप्रद नहीं होता। आध्यात्मिक जीवन से स्वकल्याण निश्चित रूप से होता है। ऐसे मनुष्य को स्वजीवन का कल्याण करते हुए समाज व देश के कल्याण की भावना रखनी चाहिये और उसकी चिन्ता भी करनी चाहिये। यदि वह ऐसा नहीं करता तो वह देश व समाज की उपेक्षा का आरोपी होता है। हमने ऐसे बहुत से लोग देखे हैं जो आध्यात्मिक जीवन और अपने निजी आत्मकल्याण को ही महत्व देते और सामाजिक उन्नति तथा संगठन की उपेक्षा करते हैं। ऐसा करने से उस व्यक्ति का अपना समाज व परिवार वर्तमान व भविष्य में खतरों मेें पड़ सकता है। ऐसा ही अतीत में हमारे देश में हुआ हैं और इसके दुष्परिणाम वर्तमान पीढ़ियों को भोगने पड़ रहे हैं। यदि पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध के बाद हमारे पूर्वज ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य देश व समाज के प्रति अपने परिवार वा वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना रखते हुए व्यक्ति-व्यक्ति के कल्याण से स्वयं को जोड़कर रखते तो आज जो समस्यायें व चुनौतियां विधर्मियों, अपने सत्तालोलुप नेताओं और भ्रमित देशवासियों से मिल रही हैं वह न मिलती। यदि देश में अन्धविश्वासोंसे रहित सत्य सिद्धान्तों पर आधारित सामाजिक न्याय की परम्परायें होती तो फिर आज विश्व में केवल वैदिक मत का ही अस्तित्व होता। आज जो अवैदिक मत प्रचलित हैं और इनके द्वारा अविद्या, अज्ञान, अन्धविश्वासों और मिथ्या परम्पराओं का जो पोषण होता है, वह न होता। आज समाज में जो समस्यायें हैं उसका कारण हमारे पूर्वजों का वेदविपरीत व्यवहार सहित सत्कर्मों एवं संगठन की उपेक्षा प्रमुख रूप् से दिखाई देती है। यदि आज भी हम जाति के सुधार के कार्यों में सक्रिय हों तथा राम व कृष्ण को मानने वाले सभी लोग सुसंगठित हो जायें तो हमारा देश व समाज बच सकता है। ऐसा नहीं करेंगे तो वैदिक धर्म के विरोधी विधर्मी हमारे भाईयों व हमें छल, बल, लोभ व अन्य सभी उचित व अनुचित तरीकों से अपने स्वमत-पन्थ आदि में प्रविष्ट कर हमें परम गौरवयुक्त वेद से वंचित कर देंगे। इसके लिये हमें महाभारत काल के बाद का सत्य इतिहास अवश्य पढ़ना चाहिये। ऐसा करने से हमारा मार्गदर्शन होगा और हम वर्तमान की चुनौतियों से भी परिचित हो सकेंगे तथा उसका निदान हो सकेगा।
मनुष्य की आत्मा गुणग्राहक है एवं कर्म करने में समर्थ होती है। मनुष्य को अपनी आत्मा को सभी प्रकार के गुणों को धारण कराने के साथ उन सभी गुणों का उपयोग अपनी आत्मा की उन्नति सहित देश व समाज के कल्याण के लिये करना चाहिये। यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय में मनुष्यों को विद्या एवं कर्म दोनों को यथार्थ रूप में समझकर पुरुषार्थ से युक्त वेदानुकूल कर्मों को करके मृत्यु पर विजय प्राप्त करने तथा विद्या से अमृत को प्राप्त करने का सन्देश दिया गया है। यदि विद्या एवं कर्म दोनों का समन्वय जीवन में नहीं होगा तो जीवन अधूरा ही कहा जायेगा। बिना सद्कर्मों वा वेदाचरण के मनुष्य मृत्यु के पार नहीं जा सकता। सद्कर्मों में देशभक्ति, मानवमात्र के प्रति प्रेम एवं उनकी जन-जन की सेवा आदि कार्य सम्मिलित हैं। महर्षि दयानन्द का जीवन हमारे लिये आदर्श जीवन है। इससे अधिक महान आत्मा ने विगत पांच हजार वर्षों में देश में जन्म नहीं लिया। ऋषि दयानन्द के जीवन में ज्ञान व कर्म का अद्भुद समन्वय था। उन्होंने मानव जाति को वेद का अध्ययन करने तथा उसके महत्व को जानकर उसकी शिक्षाओं को अपने जीवन में धारण करने का सन्देश दिया है। इस कार्य को करके ही मनुष्यता बच सकती है। मनुष्यता को सबसे बड़ा खतरा वेदाचरण न करने वालों से है। यह अपनी भ्रान्तियों व अज्ञानता से मानव के अहित का कितना भी निष्कृष्ट कार्य कर सकते हैं। अतः वैदिक धर्मियों का यह दायित्व है कि वह अपने ज्ञान व योग्यता के अनुरूप वेद प्रचार करें और सूर्य के समान न सही परन्तु एक दीपक के अनुरूप ही थोड़ा सा अन्धकार वा अज्ञान दूर कर ज्ञान का प्रकाश करें। कह नहीं सकते कि उनका यही छोटा सा कार्य भविष्य में विश्व में ज्ञान से पूर्ण वेद-क्रान्ति ला सकेगा।
जो व्यक्ति सामाजिक व राजनीतिक जीवन व कार्यों की उपेक्षा कर केवल अपनी आध्यात्मिक उन्नति में ही लगे रहते हैं उनका जीवन अधूरा जीवन होता है। ऐसे जीवन से समाज व देश को लाभ नहीं होता। हम विचार करें तो पाते हैं कि देश व समाज के हमारे ऊपर अनेकानेक ऋण हैं जिन्हें हमें उतारना चाहिये। इसके लिये हमें सेवा भावना सहित सामाजिक व राजनीतिक जीवन व्यतीत करना चाहिये। इसके साथ ही आध्यात्मिक ईश्वर व आत्मा को प्रत्यक्ष करने की साधना वा उपासना को करके अपनी आत्मा को उन्नत करना चाहिये। इससे कर्ता को आत्मा के कल्याण सहित देश व समाज के लोगों को भी लाभ होगा और इससे हम देश व समाज के ऋण से भी उऋण हो सकेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत