ओ३म्
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वेद ही विश्व में अध्यात्म का आदि वा सर्वप्राचीन ग्रन्थ है। ईश्वर, जीव व प्रकृति विषयक त्रैतवाद का सिद्धान्त वेद की ही देन है। सभी विद्वानों की अपनी-अपनी योग्यता होती है। बहुत से विद्वान बहुत से विषयों को नहीं जान पाते। ऐसा ही वेदपाठी व वेदों के अध्ययनकर्ता विद्वानों के साथ भी हुआ। हमारे सामने सायण एवं महीधर जैसे मध्यकालीन वेदों के अध्ययनकर्ताओं व भाष्यकर्ताओं ने वेदों के जो अर्थ किये हैं वह वेदों की सत्य मान्यताओं के अनुरूप नहीं हैं। उन भाष्यों में बहुत सी निरर्थक बातों के अतिरिक्त वेदविरुद्ध मान्यताओं व सिद्धान्तों का उल्लेख भी किया गया है। उनके इस कार्य से वेदों की महिमा कम हुई है। यदि ऋषि दयानन्द (1825-1883) न आते तो समस्त विश्व वेदों के सत्यस्वरूप से परिचित नहीं हो सकता था। उन्होंने कितना पुरुषार्थ किया, ऐसा करना सभी मनुष्यों के लिये सम्भव नहीं होता। उन्होंने सन् 1846 में अपना पितृगृह छोड़ा था और देश के उन स्थानों का भ्रमण किया था जहां धार्मिक विद्वान, विचारक व अध्ययनकर्ता उपलब्ध हो सकते थे। उन्होंने उन सभी की संगति कर उनसे ज्ञान प्राप्त किया था। उनके बारे में यह अनुमान नहीं किया जा सकता कि उन्होंने कितने विद्वानों की संगति कर उनसे ज्ञान प्राप्त किया था और कहां-कहां किन लोगों व पुस्तकालयों से किन ग्रन्थों को प्राप्त कर उनका अध्ययन किया था। सन् 1846 से सन् 1860 तक वह ज्ञान की खोज में भ्रमण करते रहे और जहां से जो भी ज्ञान प्राप्त होता था उसका अध्ययन, मनन करते हुए उसे स्मरण भी करते थे। ऐसा करते हुए वह मथुरा के गुरु विरजानन्द सरस्वती जी को प्राप्त हुए थे जिनसे उन्होंने वेदांग ग्रन्थों का अध्ययन किया था और उसमें विशेष योग्यता प्राप्त की थी। इस प्रकार से ज्ञान को प्राप्त होकर तथा योगाभ्यास व समाधि से ईश्वर का साक्षात्कार और वेदार्थ की सत्यता की पुष्टि कर अपने विद्या गुरु की प्रेरणा से वह वेदों के प्रचार प्रसार वा संसार से अविद्या दूर करने के कार्य में प्रवृत्त हुए थे। उन्होंने इस वेदप्रचार के कार्य को अपनी पूरी क्षमता वा सामथ्र्य से किया। उनके इस कार्य से वेदों का पुनरुद्धार हुआ। उनके प्रचार व लेखकीय कार्य ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, सत्यार्थप्रकाश एवं वेदभाष्य से वेदों के सत्य सिद्धान्त व मान्यतायें देश-देशान्तर देश-देशान्तर में लोगों तक पहुंचीं व उनको प्राप्त हुईं।
वेदज्ञान ही संसार में आध्यात्मवाद के आदि स्रोत हैं जो स्वयं परमात्मा से प्राप्त हुए हंै। यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के प्रथम मन्त्र में कहा गया है कि यह संसार ईश्वर के द्वारा रचित एवं संचालित है। वह इस संसार में सर्वत्र व्यापक है। इसका अर्थ है कि परमात्मा इस संसार बनाने व पालन करने वाला होने से इसका स्वामी है। हमें उसकी आज्ञा से ही इस संसार की वस्तुओं व पदार्थों का भोग करना चाहिये। वेद में परमात्मा ने आज्ञा दी है कि संसार के पदार्थ सभी प्राणियों के उपभोग के लिये हैं। इन पदार्थों का भोग त्यागपूर्वक अर्थात् अल्पमात्रा में करना चाहिये। इन शब्दों में अपरिग्रह की शिक्षा दी गई है। हमें पदार्थों का अत्याधिक संग्रह नहीं करना चाहिये। इससे हम ईश्वर से विमुख हो जाते हैं। यही कारण था कि हमारे सभी ऋषि, योगी, मनीषी व विद्वान अपरिग्रही होते थे। ऐसा करने एवं योग साधना करने वाले ही ईश्वर व अपनी आत्मा का साक्षात्कार कर पाते थे। परमात्मा ने यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में लालच व लोभ न करने की शिक्षा भी दी है। लोभ से मनुष्य को अनेक प्रकार की हानियां होती है। भौतिक पदार्थों का लोभ होने व किसी के प्रति आसक्ति होने पर मनुष्य उसके प्रति पक्षपात भी करता है। जिस वस्तु का लोभ होता है उसके संग्रह की भावना भी उत्पन्न होती है। इससे मनुष्य को ज्ञान व स्वाध्याय की साधना में बाधा आती है। लोभ के वशीभूत होकर ही लोग राजनीति व सरकारी बड़े पदों पर रहते हुए हाथ फैलाते व रिश्वत मांगते हैं जिससे आत्मा का पतन होता है। जिसकी आत्मा का इस प्रकार पतन हो गया वह जीवन में एक प्रकार से आंशिक रूप से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। अतः न लोभ करना चाहिये और न ही किसी अन्य के अधिकार की वस्तु को अनुचित तरीके से प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। वेदों में ईश्वर का ज्ञान कराने के साथ इसके एक ही मन्त्र में हमें अपरिग्रही होने तथा पापों के मूल कारण लोभ से दूर रहने की प्रेरणा व शिक्षा दी गई है। आध्यात्म संबंधी सभी प्रकार का ज्ञान वेद के 20,500 से कुछ अधिक मन्त्रों में भरा पड़ा है। इसका सभी को स्वाध्याय करना चाहिये। इससे हमें जीवन के उद्देश्य का भी ज्ञान होता है और हम उसे साधना के मार्ग पर चलकर प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं। मनुष्य जीवन का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति है। इनको प्राप्त कर मनुष्य का जीवन सफल होता है। उसके सभी दुःख दूर हो जाते हैं। जन्म-मरण रूपी बन्धन व दुःखों से भी वह बच जाता है। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि वेदों का ज्ञान संसार के प्रत्येक मनुष्य के लिये है। जो इसका लाभ उठायेगा उसको ही लाभ मिलेगा और जो मत-मतान्तरों के चक्रव्यूह में फंस कर स्वार्थ सिद्धि के कार्य करेगा, अज्ञानवता व अविधि से ईश्वर की पूजा व उपासना करेगा वह अपनी हानि व अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा।
वेद ईश्वरीय ज्ञान है। वेदों में सब सत्य विद्याओं का प्रकाश परमात्मा ने किया है। वेदों की कोई बात असत्य व निरर्थक नहीं है। वेद पथ पर चलने अर्थात् वेदों की शिक्षाओं को आचरण में लाने पर मनुष्य के जीवन का कल्याण होता है। प्राचीन काल में जब वेदों को समझने में लोगों को कठिनाई होने लगी तो हमारे ऋषियों ने वेद ज्ञान का साक्षात्कार कर उसे सरल व रोचक रूप में प्रकट करने के लिये उपनिषदों एवं दर्शन ग्रन्थों की रचना की। कुछ ऋषियों ने इतिहास सहित विद्या के अनेक ग्रन्थ भी रचे। लोग स्वस्थ रहें और आवश्यकता पड़ने पर वह रोग मुक्त हो सकें इसके लिये ऋषियों ने आयुर्वेद के ग्रन्थों की रचना भी की। देश व धर्म की रक्षा के लिये राजनीति विषयक ग्रन्थों का प्रणयन भी विद्वान ऋषियों ने किया। धर्म मनुष्य के जीवन के लिये आवश्यकता होता है। धर्म विहीन मनुष्य पशु के समान होता है। इसका अर्थ यह है कि जो मनुष्य वेदों की शिक्षाओं से दूर है, उनको जानता नहीं और न उनका आचरण करता है वह पशु के समान होता है। धर्म का देशभक्ति व देश प्रेम से कोई विरोध नहीं है। वस्तुतः धर्म वा वेद मनुष्य को देश को सर्वोच्च व प्रमुख मानने तथा देशभक्त बन कर उसके लिये अपना जीवन एवं सर्वस्व समर्पित करने की प्रेरणा देते हैं। अर्थववेद के एक मन्त्र में कहा गया है कि भूमि अर्थात् मेरा देश मेरी माता है और मैं इस देश व जन्मभूमि का पुत्र हूं। हमें अपने देश व मातृभूमि की रक्षा व इसके सम्मान के लिये अपने प्राणों को समर्पित करने के लिये तत्पर रहना चाहिये। जो ऐसा नही करते वह धर्म व देश दोनों के शत्रु होते हैं। हर मतावलम्बी व सम्प्रदाय के व्यक्ति सहित राजनीतिक दल से जुड़े नेताओं व उनके समर्थकों को अपने दिल पर हाथ रखकर स्वयं से पूछना चाहिये कि क्या वह देश भक्त हैं? यदि उसकी निष्ठा किसी अन्य, देश व वहां के लोगों के विचारों में है, अपने देश के पूर्वजों व सत्य ग्रन्थ वेदों में नहीं है, तो हमें वह व्यक्ति देशभक्त नहीं देशद्रोही लगता है। अतः वेद मनुष्य को देशभक्त बनने की प्रेरणा देते हैं। अपने कल्याण व जन्म-जन्मान्तर में सुख प्राप्त करने के लिये सभी मनुष्यों को देशभक्त होना ही चाहिये।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम वेदों को सर्वांगरूप में मानने वाले महापुरुष थे। वह जीवात्मा थे परमात्मा नहीं थे। परमात्मा एक ही है। वेदों के अनुसार परमात्मा सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापक है। वह अजन्मा है और जन्म व मरण के बन्धनों में नहीं आता। अतः यह सिद्ध है कि परमात्मा का कभी जन्म व अवतार नहीं होता। उसे जो करना होता है, उसके जो नियम एवं सिद्धान्त हैं, उनके पालन में निराकार एवं सर्वव्यापक रूप से करने में वह सर्वथा समर्थ है। वह इस सृष्टि को भी बिना अवतार लिये बनाता है। प्रलय भी बिना अवतार लिये करता है। तो उसे सृष्टि का पालन करने के लिये अवतार की क्या आवश्यकता है? पहला अवतार यदि श्री राम को मान लें तो क्या उससे पहले एक अरब वर्ष से भी अधिक समय तक रावण व कंस के समान कोई दुराचारी पैदा नहीं हुआ था? असंख्य हुए होंगे परन्तु उनको उनके पापों का दण्ड परमात्मा ने अपने अन्तर्यामी स्वरूप से दिया था। राम व कृष्ण जी ने कहीं नहीं कहा कि वह ईश्वर हैं व ईश्वर का अवतार हैं। यह मिथ्या व ज्ञान विरुद्ध कल्पना है। वर्तमान समय में ईश्वर का कोई अवतार पौराणिक जगत में नहीं है। इन दिनों रावण से भी अधिक दुष्ट प्रकृति के लोग देश विदेश में विद्यमान हैं। यदि राम ने रावण को मारने के लिये अवतार लिया होता तो आज उनके कई अवतार हो गये होते।
ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव सदैव एक जैसे रहते हैं। उनमें कभी परिवर्तन नहीं आता। यदि आज अवतार नहीं हो रहे हैं तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि पहले भी कभी ईश्वर का अवतार नहीं हुआ। इसलिये राम व कृष्ण आदि को महापुरुष ही मानना चाहिये। यही मान्यता ऋषि दयानन्द व उनके बनाये संगठन आर्यसमाज की है। राम वैदिक धर्म व संस्कृति के धारणकर्ता एवं पोषक थे। वह अध्यात्म ज्ञान के भी शिखर पर थे तथा देशभक्ति में भी आदर्श थे। योगेश्वर श्री कृष्ण का जीवन भी ऐसा ही था। अतः धर्म एवं अध्यात्म दोनों परस्पर पूरक हैं। जिस देश में यह दोनों मिलकर रहेंगे वह देश उन्नति के शिखर पर होगा और उस देश में सुख व शान्ति होगी। इस कारण से अविद्यायुक्त विचारों व मान्यताओं का समाज व देश से बहिगर्मन होना चाहिये और सच्चा ज्ञान व विचार देश में फैलाये जाने चाहियें। तभी देश का कल्याण होगा। विगत पांच हजार वर्षों में ऋषि दयानन्द से बढ़कर आध्यात्म का ज्ञानी व उसका आचरणकर्ता नहीं हुआ। देशभक्ति में भी वह अतुलनीय थे। उन्होंने किसी करदाता का धन प्राप्त नहीं किया और अपना जीवन व उसकी एक-एक श्वास ईश्वर की भक्ति, उसकी आज्ञा के पालन सहित देश व उसकी उन्नति के लिये समर्पित की। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि सच्चे अध्यात्म का ज्ञानी मनुष्य ही सच्चा व अच्छा देश भक्त होता है। जो अध्यात्म ज्ञान से शून्य व न्यून है, उन नास्तिक व अर्धनास्तिकों की देशभक्ति भी शून्य ही न्यून होती है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत