घर में खुशहाली रहे श्री न करै पयान
आलस रहित सेवक मिलै,
सदा रहै अनुरक्त।
नियरे ताको राखिए,
दुर्लभ स्वामी भक्त ।। 75।।
जिसमें मद हो बुद्घि का,
और होवै वाचाल।
‘विजय’ ऐसे भृत्य को,
देना तुरत निकाल ।। 76।।
वाचाल अर्थात – अधिक बोलने वाला, उल्टा जवाब देने वाला।
मूरख क्रूर कंजूस बैरी,
इनसे जो हाथ फैलाए।
मान घटावै आपुनो,
जीवन भर पछताए ।। 77।।
स्नेह शून्य और झूठिया,
ढोंगी हो और क्रूर।
इनके ढिंग मत जाइए,
रहो दूर ही दूर ।। 78।।
बुद्घिबल और तेज हो,
श्रेष्ठ की छोड़ै छाप।
साधन सब निर्वाह के,
मिलै आप ही आप ।। 79।।
कलह बढ़ै परिवार में,
तो शत्रु हर्षित होय।
व्यथा रहे मन में सदा,
कुल की इज्जत खोए।। 80।।
सूर्य में अमृत सदा,
रहता विद्यमान।
सोम रश्मियों से फैले,
भूमण्डल पर प्राण।। 81।।
जैसे अमृत स्वर्ग से,
कभी अलग नही होय।
तैसइ धर्म से अर्थ भी,
कभी जुदा नही होय।। 82।।
जिसका मन नही पाप में,
और शुभकर्म कमाय।
प्रकृति और विकृति का,
ज्ञान उसे हो जाए।। 83।।
धर्म अर्थ और काम का,
सेवन करै यथाकाल।
नियम निभाना कठोर है,
लाभ मिलै तत्काल।। 84।।
सर्प और स्वामी स्त्रियां,
चंचल चित्त के होय।
अति करै विश्वास जो,
चैन चित्त का खोय।। 85।।
चाल बलों का सारथी,
प्रज्ञा बल है एक।
जो इससे भूषित हुआ,
वो लाखों में एक।। 86।।
नोट : संसार में पुरूषों में पांच बल माने गये हैं जिनमें सर्वश्रेष्ठ बल प्रज्ञा-बल (बुद्घि बल) है। यही बल अन्य चार बलों को संभालता है।
सही गति और दिशा देकर जीवन को चर्मोत्कर्षी बनाता है अन्य चार बल तो गौण हैं। जो निम्नलिखित हैं :-
1. शारीरिक बल अर्थात बाहुबल।
2. धन-बल।
3. यश-बल (प्रतिष्ठा बल)।
4. अभिजात बल अर्थात कुल बल।
क्रोध और हर्ष के वेग को,
कोई रोकै ज्ञानवान।
घर में खुशहाली रहै,
श्री न करै पयान।। 87।।
श्री अर्थात लक्ष्मी,
बुद्घि रूपी बाण का,
जो कोई होय शिकार।
घट घायल होवै घना,
मिलै नही उपचार।। 88।।
नोट: बुद्घि रूपी बाण से व्यक्ति ही नही अपितु राष्टï्र तक नष्टï हो जाते हैं। जैसे आचार्य चाणक्य ने अपने बुद्घि बल से चंद्रगुप्त के द्वारा मगध के महान पराक्रमी नंदवंश का समूल नाश कर दिया था।