आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
अरविन्द केजरीवाल द्वारा मुफ्त की रेवड़ियां बाँटने से लग रहा था कि दुबारा सत्ता हाथ में आ जाएगी। परन्तु नागरिकता संशोधक कानून के विरोध ने आम आदमी पार्टी की उम्मीदों पर पानी ही नहीं फेरा, बल्कि चार सालों तक काम न करने का दोष मोदी और उपराज्यपाल पर मंडते रहे। जनता भी उनकी चालों पर यकीन करती रही। चुनाव निकट आते देख, पिछले चुनाव की भांति फिर से मुफ्त का लॉलीपॉप देते रहे।
कहते हैं ना कि “बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी”, वही बात आप पर चरितार्थ हो रही है। CAA के विरोध को समर्थन देने से भाजपा द्वारा उनके उन काले कारनामों को उजागर करने से चुनाव के समीकरण ही बदल दिए। जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने वालों पर देश-द्रोह का मुकदमा चलाने के लिए राज्य सरकार की अनुमति जरुरी होती है, जो केजरीवाल सरकार ने आज तक नहीं दी। दूसरे, निर्भय कांड पर शोर मचाने वाले केजरीवाल ने निर्भय के दोषी को सिलाई मशीन और धन देकर सम्मानित करना और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया द्वारा शरजील इमाम द्वारा असम भारत से अलग करने की धमकी पर भाजपा को ललकारा है कि या तो भाजपा सरकार उसे गिरफ्तार करे, अन्यथा यही माना जाएगा कि उसे भाजपा ने भेजा था। सिसोदिया शायद भूल गए की शरजील के साथ उनका अपना विधायक अमानुल्ला खान है। अब जनता यह भी जानना चाहती है कि “क्या उनके विधायक अमानुल्ला को भी भाजपा ने ही भेजा था?” आखिर जनता को कब तक और कितना मुर्ख बनाओगे?
दिल्ली चुनाव में भाजपा को बड़ी सफलता मिलती दिख रही है। पहले 70 सदस्यीय विधानसभा चुनाव में नुकसान की आशंका जताई जा रही थी। लेकिन, ताजा सर्वे कुछ और ही इशारा करते हैं। पार्टी के आंतरिक सर्वे में पूर्ण बहुमत पाने का अनुमान लगाया गया है। 70 में से 40 सीटें पार्टी के खाते में जाती दिख रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रामलीला मैदान में हुई रैली और 40 लाख लोगों की कॉलनियों को पक्का किए जाने के कारण भाजपा को फायदा हुआ है। पूर्व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और दिल्ली के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी पूरे जोर-शोर से प्रचार में जुटे हैं। भाजपा सत्ता तक केवल उसी स्थिति में हो सकती, बशर्ते मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अपनी हार देखते हुए, भाजपा उम्मीदवार विपक्ष से कोई सौदा न कर ले। दूसरे, चुनाव चन्दे में कोई घोटाला न हो, जैसाकि पिछले चुनावों में देखा गया था।
आम आदमी पार्टी इस बार के चुनाव में प्रचार के लिए प्रशांत किशोर की कम्पनी की सेवा ले रही है। ‘लगे रहो केजरीवाल’ जैसे गीत यूट्यब से लेकर सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर प्रचार के लिए डाले जा रहे हैं। उधर कमज़ोर कांग्रेस के फिर से उभरने के प्रयासों के कारण ये लड़ाई दिलचस्प हो गई है। भाजपा चुनाव से पहले एक और फाइनल आंतरिक सर्वे कराएगी। फिर से पार्टी मतदान होने से पहले भी एक और सर्वे कराकर सीटों पर संभावित जीत का अपडेट जानेगी। भाजपा इस बार फूँक-फूँक कर क़दम रख रही है।
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी के आँकड़ों की मानें तो भाजपा इस बार कुल 47 सीटों पर जीत दर्ज करेगी। 14 जनवरी को दिए गए इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि पहले पार्टी को 42 सीटें मिलने की उम्मीद थी लेकिन अब संख्या में इजाफा हो सकता है। सीएए के नाम पर विपक्षी पार्टियों द्वारा कराई गई हिंसा को भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने सीटों में इजाफा की संभावनाओं के पीछे का कारण बताया। एक अन्य भाजपा नेता ने कहा:
“केजरीवाल सरकार की ओर से चलाए गए मुफ्त बिजली-पानी के दाँव से पहले तो भाजपा हताश थी। पहले लग रहा था कि चुनाव हाथ से निकल रहा है। मगर जिस तरह से गृहमंत्री अमित शाह और अध्यक्ष जेपी नड्डा ने खुद कमान संभाली और छोटी-छोटी सभाओं के जरिए माहौल बनाना शुरू किया, उससे दिल्ली इकाई के पदाधिकारी जोश से भर गए हैं। आंतरिक सर्वे ने भी बता दिया है कि भाजपा इस बार 40 सीटें जीतने की स्थिति में है। जिन सीटों पर पार्टी को कमजोर स्थिति मिली है, वहाँ दोगुनी मेहनत की जा रही है।”
घोंडा, मालवीय नगर, द्वारका, कृष्णानगर, मॉडल टाउन, मुस्तफाबाद, गांधीनगर, लक्ष्मीनगर, रोहिणी और विश्वासनगर जैसी विधानसभा सीटों पर भाजपा के ज्यादा मजबूत होने की बात कही जा रही है। इस सर्वे से आम आदमी पार्टी की नींद उड़नी तय है।
‘तीसरे कैंडिडेट’ की भूमिका में है दिल्ली चुनावों में कांग्रेस
दिल्ली 2013 और 2015 में हुई ऐतिहासिक चुनावी उठा-पटक के बाद एक बार फिर चुनाव के लिए तैयार है। जंतर-मंतर में ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ जैसे आंदोलन से निकले अरविन्द केजरीवाल में आम आदमी ने अपने चेहरे को देखते हुए 2015 के विधानसभा चुनाव में 70 में से 67 सीटें आम आदमी पार्टी के खाते में डाल दीं।
एक नाटकीय तरीके से शुरू हुआ यह क्रम जल्द ही जनता के सामने बेनकाब भी होता गया। लेकिन, बावजूद इसके अरविन्द केजरीवाल इन पाँच सालों में कभी राज्यपाल तो कभी दिल्ली सरकार के पास पुलिस और ‘अधिकार’ ना होने का रोना रोकर लगातार राष्ट्रीय चर्चा बने रहने में कामयाब रहे।
इस सबके बीच दिल्ली में आम आदमी की चर्चा में से कॉन्ग्रेस निरंतर गायब ही नजर आई। बात चाहे लोकसभा चुनावों की हो, आम आदमी पार्टी द्वारा किए गए फ्री वाई-फ़ाई और CCTV के अधूरे वादों की हो, या फिर मनोज तिवारी द्वारा दिल्ली में भाजपा को एक चेहरा देने के लिए की गई कोशिशों की हो, कांग्रेस हर पहलू पर चर्चा से नदारद ही मिली।
सबसे ज्यादा हैरान कर देने वाली बात देश में सबसे लम्बे समय तक इकतरफा सत्ता में रहने वाले कॉन्ग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल का पतन है। यदि मात्र दिल्ली की ही बात करें तो 15 साल सरकार चलाने के बाद 2013 के दिल्ली चुनाव में कॉन्ग्रेस मात्र 8 सीटें जीत सकी। फिर जब 2015 में चुनाव हुए तो यह पार्टी अपना खाता तक खोल पाने में नाकाम रही। हालात यह हैं कि अब 2020 के विधानसभा चुनावों में भी यह पार्टी संघर्ष करती हुई नजर आ रही है।
उम्मीदवारों की लिस्ट जारी करने में अभी तक सिर्फ आम आदमी पार्टी ही सबसे ज्यादा आत्मविश्वास में नजर आई है। आम आदमी पार्टी ने पहले ही झटके में सभी 70 सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कि, जबकि भाजपा ने भी 57 सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर दी है। हालाँकि, आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविन्द केजरीवाल के विरुद्ध एक चेहरा उतारने में भाजपा ने अभी भी कोई जल्द बाजी नहीं दिखाई है। कांग्रेस ने अभी तक 54 उम्मीदवारों को नामित कर लिया है लेकिन दिल्ली में पार्टी का चेहरा कौन होगा, इस बात पर अभी भी संशय ही है।
BJP ही लगा सकती है केजरी के झाँसों में सेंध
एक समय तक दिल्ली में कांग्रेस का मुख्य चेहरा माने जा रहे अजय माकन इस चुनाव में बहुत उत्साहित नजर नहीं आ रहे हैं। ऐसे में अरविंदर सिंह लवली, जो कि दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शिला दीक्षित के करीबी माने जाते रहे, पर ही कांग्रेस अपना विश्वास जता सकती है। यूँ तो भाजपा के पूर्वांचल के मास्टरस्ट्रोक के खिलाफ कांग्रेस महाबल मिश्र जैसे चेहरे को सामने ला सकती है, लेकिन कांग्रेस के इस वरिष्ठ नेता के बेटे विनय मिश्र ने हाल ही में आम आदमी पार्टी से नाता जोड़ लिया है और AAP ने उन्हें द्वारका से टिकट भी दे दिया है। ऐसे में महाबल मिश्र अपने बेटे के ख़िलाफ़ कोई कदम उठाएँगे यह संभव नहीं लगता है।
लेकिन कांग्रेस के लिए पार्टी का एक चेहरा तलाशने से ज्यादा ज़रूरी इस समय दिल्ली चुनाव में खुद को किसी तरह प्रासंगिक बनाए रखना है। दिल्ली में ही होने के बावजूद कांग्रेस इस चुनाव में पूरी तरह से उदासीन ही नजर आ रही है। आखिरी बार कांग्रेस जब वाहवाही बटोरती हुई देखी गयी थी, तब उसने 2013 के चुनाव में आम आदमी पार्टी को अपना बाहरी समर्थन देकर और लोकपाल के मुद्दे पर किनारा कर अरविन्द केजरीवाल के एजेंडे को बेनकाब करने (न चाहते हुए भी) का काम किया था।
कांग्रेस आज देश में इतनी पस्त है कि अक्सर वो भाजपा की हार पर खुश होती देखी जा सकती है। कभी जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी जैसे चेहरों वाले कांग्रेस दल ने आज अपने लक्ष्य इतने सीमित कर दिए हैं कि उसके लिए अपनी जीत से ज्यादा महत्वपूर्ण भाजपा के हारने की खबरों का इन्तजार रहने लगा है। अक्सर कांग्रेस के नेता लोगों को भाजपा के खिलाफ एकजुट होने जैसा बयान देते।
पी चिदंबरम ने भी कहा कि लोगों को CAA और NRC के विरोध के जरिए भाजपा के खिलाफ एक मंच पर आना चाहिए। जिसका स्पष्ट अर्थ विरोधी दलों को कॉन्ग्रेस के झंडे के नीचे शरण देने का आह्वाहन था। लेकिन दिल्ली चुनावों में कांग्रेस किसी और को समर्थन क्या देगी, इस चुनाव में तो अगर कोई सबसे छोटा दल नजर आ रहा है तो वो खुद कॉन्ग्रेस है।
दिल्ली चुनावों में सबसे बेहतरीन बात यह है कि यह आम जनता के मुद्दों पर लड़ा जा रहा है। अरविन्द केजरीवाल ने लोगों को मुफ्त बिजली और पानी देने के बहाने साफ़ पानी, बिजली की निरंतरता, सस्ता इलाज और अच्छी शिक्षा जैसे कई अन्य बुनियादी जरूरतों की ओर ध्यान ही नहीं जाने दिया है। वहीं भाजपा दिल्ली में सरकार बनाने के एक मौके के इन्तजार में है। अरविन्द केजरीवाल जिस तरह के आरोप-प्रत्यारोप और केंद्र सरकार पर बदले की राजनीति करने के आरोप लगाकर पाँच साल काट चुके हों, यह भी हो सकता है कि जनता इसका दीर्घकालीन उपचार कर भाजपा को ही दिल्ली की सत्ता सौंप दे।
अरविन्द केजरीवाल ने अपनी ही पार्टी के कुछ जीते हुए प्रत्याशियों की जगह दल-बदलकर आए हुए नेताओं को प्राथमिकता दी है, जिसका प्रभाव दिल्ली चुनाव परिणामों पर पड़ना तय है। इसके अलावा आम आदमी पार्टी दिल्ली में सिख समुदाय और पूर्वांचल के वोट बैंक को साधने का हर संभव प्रयास करेगी। ऐसे में देखना यह है कि कपिल मिश्रा और मनोज तिवारी आम आदमी पार्टी के साथ अपने अनुभव का इस्तेमाल भाजपा के लिए दिल्ली में जगह बनाने के लिए कर पाते हैं या नहीं?