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महर्षि दयानन्द के प्रमुख शिष्यों में एक नाम लाला लाजपत राय जी का है। लाला लाजपत राय जी ने ऋषि दयानन्द के जीवन व आर्यसमाज पर ग्रन्थों का प्रणयन किया है। लाला जी ने आर्यसमाज से सबंधित अनेक ग्रन्थ लिखे। डी.ए.वी. स्कूल की स्थापना में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान था। आज दिनांक 28 जनवरी, 2020 को उनका जन्म दिवस है। लाला जी की देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका थी। उनके जन्म दिवस पर उनको स्मरण न करना कृतघ्नता होगी। आज आर्यसमाज-लोहगढ़, अमृतसर में लाला लाजपतराय जी का जन्म दिवस श्रद्धापूर्वक आयोजित किया गया। हमारे सुहृद मित्र श्री मुकेश खन्ना जी, संयुक्त मंत्री, आर्यसमाज शक्तिनगर-अमृतसर इस आयोजन में सम्मिलित हुए। यह आयोजन डी.ए.वी. स्कूल एवं कालेज प्रबन्ध समिति की ओर से आयोजित किया गया था। इस आयोजन में लाला लाजपत राय जी के भाई स्व. श्री धनपत राय के पौत्र श्री अनिल अग्रवाल तथा उनके पुत्र श्री अभिषेक अग्रवाल जी भी आये थे। इनका एक चित्र भी हमें प्राप्त हुआ है जो हम प्रस्तुत कर रहे हैं।
लाला लाजपत राय जी का जन्म 28 जनवरी सन् 1865 को अपनी नानी के घर हुआ था जो तहसील मोगा जिला फिरोजपुर में रहती थी। लाला जी के पिता का नाम लाला राधाकृष्ण जी था जो लाला रलूमल के पुत्र थे। रलूमत जी की लुधियाना के जगरावां कस्बे में एक छोटी सी दुकान थी। आपके पिता लाला राधाकृष्ण जी सरकारी स्कूल में शिक्षक थे। कई वर्ष सेवा करने के बाद आपकी नेत्रों की ज्योति क्षीण हो गई थी। अतः आपने सेवाविनवृति ले ली थी और अपने पुत्रों के साथ रहते थे। आपके तीन पुत्र एवं एक पुत्री थी। पुत्रों के नाम थे श्री प्यारे लाल जी, श्री प्यारे कृष्ण जी तथा श्री अमृतराय जी। एक पुत्री थी जिनका नाम पार्वती था। पार्वती जी पंजाब के गुजरांवाला में ब्याही हुई थी। महात्मा हंसराज जी की सुपुत्री माता धर्मदेवी जी भी गुजरावाला में उनके निकट ही रहती थीं। दोनों मे परस्पर सगी बहनों जैसा प्रेम था। श्री प्यारे कृष्ण जी की मृत्यु अविवाहित अवस्था में ही हो गई थी। श्री अमृतराय जी लंदन में जाकर व्यवसाय करते थे। वहां उनकी मृत्यु हो चुकी है। लाला जी की जयन्ती के उत्सव में आज श्री अनिल अग्रवाल जी अपने पुत्र श्री अभिषेक अग्रवाल जी के साथ आये थे। श्री अनिल जी के पिता का नाम श्री देवव्रत जी था जो लाला धनपतराय जी के सुपुत्र थे। श्री धनपत राय जी व लाला लाजपत राय जी के पिता लाला राधाकृष्ण जी के सहोदर भाई थे। श्री राधाकृष्ण जी ने 80 वर्ष की आयु प्राप्त की। उनका निधन 11 दिसम्बर सन् 1923 को लाहौर में हुआ था।
लाला जी की धर्मपत्नी के विषय में महात्मा हंसराज जी की सुपुत्री धर्मदेवी जी के द्वारा जो जानकारी उपलब्ध है उसके अनुसार वह बड़ी सीधी-सादी, बड़ी शान्त, बड़ी मीठी, सेवा व आतिथ्य करने वाली थी। वह बाहर कम जाती थी। घर पर ही रहती थीं। घर में वह चरखा कातने में मग्न रहती थीं। वह कभी कभी आर्यसमाज के सत्संगों में जाती थीं। पुत्र व जामाता के निधन से उन्हें वैराग्य हो गया था। उनका मन बड़ा पवित्र था। इस कारण से माता जी के सम्पर्क में आने वाले लोग उनके प्रति बहुत श्रद्धा रखते थे। यह भी बता दें कि लाहौर में लाला लाजपतराय जी और महात्मा हंसराज जी के घर आमने सामने थे। दोनों परिवारों में परस्पर बहुत प्रेम था। महात्मा हंसराज जी के बच्चे लाला लाजपत राय जी को ताया जी कहते थे। दोनों के बच्चे आपस में खेलते कूदते व लड़ते झगड़ते भी थे। लाला जी के छोटे भाई श्री धनपतराय जी की लाहौर में दुकान थी। लाला जी के पिता अपने इस छोटे पुत्र की दुकान पर बैठकर अपना समय व्यतीत करते थे। यह भी बता दें कि लाला जी का विवाह 13 वर्ष की आयु में हुआ था। इसका कारण लाला जी के पितामह की इच्छा को पूरी करना था। राधाकृष्ण जी ने न चाहते हुए भी अपने पिता की इच्छा को पूरा किया था।
लाला जी की प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता के पास रहकर उन्हीं के अध्यापन में हुई थी। लाला जी बचपन से ही कुशाग्र बु़िद्ध से युक्त थे। सन् 1877 में लाला जी ने मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण की थी। मैट्रिक की परीक्षा उन्होंने दिल्ली में रहकर उत्तीर्ण की थी। इन दिनों लाला जी के पिता लाला राधाकृष्ण जी रिवाड़ी में शिक्षक थे। लाला जी ने एफ.ए. तथा मुख्तार की परीक्षा लाहौर में रहकर पास की थी। यहीं रहकर आपने वकालत की परीक्षा भी पास की थी। आप एक सफल वकील थे और आपने इस कार्य से प्रभूत धन अर्जित किया था। लाला जी ने सन् 1883 में जगरावां कस्बे से ही वकालत आरम्भ की थी। मित्रों के परामर्श से आप वकालत करने हिसार आ गये थे जहां आपको अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का अवसर एवं वकालत में सफलता मिली थी। हिसार में निवास के दिनों में आर्यसमाज के सत्संग आपके निवास पर ही हुआ करते थे। रोहतक में आर्यसमाज की स्थापना करने में भी आपने सहयोग किया था। रोहतक की आर्यसमाज की स्थापना का मुख्य श्रेय आपको ही था। रोहतक आर्यसमाज की गतिविधियों में लाला जी सक्रियता से भाग लेते थे।
लाला जी के दो प्रमुख आर्य मित्र पं. गुरुदत्त विद्यार्थी एवं पं. लेखराम थे। पं. गुरुदत्त जी से आपको बहुत प्रेम था। जब आपको पं. गुरुदत्त जी के रोग के विषय में जानकारी मिली थी तो आप लाहौर आ गये थे। आपने उनकी बहुत श्रद्धा भक्ति से सेवा की थी। आपने उनके परिवार की आर्थिक सहायता भी की थी। कुछ समय बाद पंडित जी की मृत्यु हो गई। पंडित जी की मृत्यु के बाद भी लाला जी उनके परिवार की सहायता करते रहे। आप चाहते थे कि पण्डित जी का भव्य स्मारक बने परन्तु उनकी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी। लाला जी पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी के सहपाठी थे। आपने अंग्रेजी में उनकी जीवनी लिखी है। डा. भवानीलाल भारतीय जी ने उसका हिन्दी अनुवाद किया है जिसका प्रकाशन वर्षों पूर्व आर्य प्रकाशन, दिल्ली ने किया था। यह जीवनीएक प्रकार से पण्डित जी का स्मारक ही है। इसे पढ़कर पंडित जी के जीवन सहित उनके व्यक्तित्व व कृतित्व से भी परिचित हो सकते हैं।
लाला जी की मृत्यु 17 नवम्बर सन् 1928 को लाहौर में हुई थी। इसका कारण लाला जी पर अंग्रेजों की पुलिस का तीव्र लाठी प्रहार करना था। उनको साइमन कमीशन का विरोध करने और उसके विरोध में लाहौर में एक जलूस का नेतृत्व करने के कारण निर्दयता से पीटा गया था। लाठी प्रहार की चोटों के कारण ही उनका बलिदान हुआ। लाला जी की मृत्यु और अन्त्येष्टि पर एक कवि ने कविता लिखी थी। वह कविता निम्न हैः
वीर की अरथी उठा कर दीन दुःख पाते चले।
जी जले आंसू बहाते ठोकरें खाते चले।।
फूल बरसाते गुणी पद ज्ञान के गाते चले।
सैकड़ों लाहौर वासी शोक उपजाते चले।।
वीर के शव को चिता में धीर धर धरने लगी।
काल की करतूत से सब सूरमा डरने लगे।।
आग दी। जलने लगा।। तन चूर चूना हो गया।
हाये। नरमेध होली का नमूना हो गया।।
लाला जी की मृत्यु पर महामना मदनमोहन मालवीय जी ने उनको अपनी श्रद्धांजलि में कहा था ‘‘ऐसे समय में लालाजी की मृत्यु का होना देश का दुर्भाग्य ही है, जब कि उनके परामर्श और उपदेश की, देश तथा हिन्दू जाति का, जिसके वे आभूषण थे, अत्यन्त आवश्यकता थी ……….. उनकी मूल्यवान् सेवाओं का गिनना कठिन है। देश को राष्ट्रीय स्वराज्य के ठीक मार्ग पर चलाने और राष्ट्रीय लोकमत को गुंजाने के लिए इस समय भारत को लाला जी की बड़ी आवश्यकता थी।” देश को आजादी दिलाने वाले नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने उनको श्रद्धांजलि देते हुए लिखा था ‘‘लाल बाल पाल के युग के आरम्भ से लालाजी भारत में सदा ही उल्लेखनीय रहे हैं। वे सदा समय से आगे रहने वाले नेता थे। राष्ट्रीय सेना के अग्रभाग में दिखाई देते थे। साथ ही वे उन लोगों का ध्यान रखते थे, जो आगे बढ़ने में असमर्थ हैं। उनकी मृत्यु राष्ट्र के लिए बड़ी भारी क्षति है। लाला जी साइमन कमिशन के विरोध में नेतृत्व का पूरा मूल्य चुका गये।” कविन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपनी श्रद्धांजलि में कहा था ‘‘लालाजी की आकस्मिक मृत्यु से राष्ट्र पर आपत्ति का पर्वत टूट पड़ा है।” देवता स्वरूप भाई परमानन्द जी ने अपने हृदय के उद्गार प्रस्तुत करते हुए कहा था ‘‘मैंने लालाजी के चरणों में देश भक्ति का पाठ पढ़ा है। लाला जी के स्वर्गवास से मेरा सच्चा संरक्षक जाता रहा।” महात्मा हंसराज जी ने कहा था ‘‘लाला जी जैसे बहुत थोड़े पुरूष संसार में जन्म लेते हैं, जो दूसरों के लिए जीवनोत्सर्ग करते है।” आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान एवं नेता महात्मा नारायण स्वामी जी ने उनके बलिदान पर कहा था ‘‘लालाजी भारतीय स्वातन्त्र्य-युद्ध के शूरमाओं में से एक थे। उनका नाम पंजाब केसरी सर्वथा उपयुक्त था। वे प्रसिद्ध सामाजिक और धार्मिक सुधारक थे। उन्होंने डी.ए.वी. कालेज की स्थापना में मुख्य भाग लिया और सर्वसाधारण की भलाई में सब कुछ उत्सर्ग कर दिया।” इसी के साथ आज जयन्ती पर हम लाला जी को अपनी श्रद्धांजलि देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य