मन का मधुमेह राग है,
द्वेष दहकती आग।
मन की लूटें शांति,
जाग सके तो जाग॥ 1251॥
व्याख्या:- राग का अर्थ है- कर्मों में,कर्मों के फलों में तथा घटना, वस्तु,व्यक्ति,परिस्थिति,पदार्थ इत्यादि में मन का खिंचाव होना, मन की प्रियता होना राग कहलाता है।राग में फंसे हुए व्यक्ति को कभी तृप्ति नहीं मिलती है। राग को मन का मधुमेह इसलिए कहा गया है- यदि मधुमेह का रोग नियंत्रण में रहे तो ठीक है अन्यथा बड़ा प्राणघातक होता है । तरह-तरह की अन्य बीमारियों का जन्मदाता होता है। ठीक इसी प्रकार राग भी नियंत्रण में रहे तो ठीक है अन्यथा काम, क्रोध,लोभ,मोह,अहंकार,ईर्ष्या, द्वेष,चिन्ता,शोक,संशय,भय,तनाव,और जिद इत्यादि मनोविकारों को जन्म देता है। इतना ही नहीं बुद्धि और धैर्य का विनाश करता है।बुद्धि के विनाश से ही मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है- जैसा कि महाभारत में हुआ था।
कामना और अभिमान में बाधा उत्पन्न होने पर क्रोध पैदा होता है। अंतःकरण में उस क्रोध का जो सूक्ष्म भाव रहता है,उसको द्वेष (बैर) कहते हैं। सुविख्यात लेखक पंडित रामचंद्र शुक्ल ने द्वेष को क्रोध का अचार कहा है। प्रतिशोध की अग्नि मनुष्य के मन में द्वेष(बैर) के कारण ही देहकती रहती है। इस का विकराल रूप जघन्यतम और अकल्पनीय होता है,देखने और सुनने वालों की रूह कांप जाती है। एडोल्फ हिटलर ने दस लाख से भी अधिक यहूदियों को गैस चेम्बरों में द्वेष के कारण ही शकरगन्दी की तरह निर्ममता से भून दिया था,जो मानवता के माथे पर काला कलंक है।
अतः कल्पना कीजिए कि राग और द्वेष की विभीषिका जब बड़े- बड़े राष्ट्रों को समूल नष्ट कर सकती है तो व्यक्तिगत जीवन में इनके रहते सुख,शांति और समृद्धि की कल्पना करना तो मृगातृष्णा मात्र है।
इसलिए हे मनुष्य ! यदि राग-द्वेष के भंवर से अपनी जीवन-नैया बचानी है,तो समय रहते सचेत हो, और आत्मविनिग्रह कर अर्थात् मन को वश में कर। ध्यान रहे,मन में दो तरह की चीजें पैदा होती है- स्फुरणा , संकल्प स्फूरणा (vibration)और संकल्प (Promise)स्फूरणा अनेक प्रकार की होती है और वह पानी की तरंगों की तरह आती-जाती रहती है किंतु जिस स्फूरणा में मन चिपक जाता है, वह संकल्प बन जाती है। संकल्प में दो चीजें रहती है- राग और द्वेष। इन दोनों को लेकर मन में चिंतन होता है।स्फूरणा तो दर्पण के दृश्य की तरह होती है।दर्पण में दृश्य दिखता तो है किंतु दृश्य दर्पण चिपकता नहीं है अर्थात् दर्पण किसी भी दृश्य को पकड़ता नहीं है,जबकि संकल्प कैमरे की फिल्म की तरह होता है, जो दृश्य को पकड़ लेता है।अभ्यास से अर्थात् मन को बार-बार ध्येय में लगाने से स्फूरणाऍ नष्ट हो जाती हैं और वैराग्य से अर्थात् किसी वस्तु,व्यक्ति,घटना,परिस्थिति अथवा पदार्थ आदि में राग महत्त्व न रहने से संकल्प नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार अभ्यास और वैराग्य से मन में निर्विकारिता आ जाती है और मन वश में हो जाता है,व्यक्ति समता में रहने लगता है।गीता में ‘समता’ को ‘योग’ कहा गया है-‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता 2/48) याद रखो,संसार में ऊंचा उठने के लिए ‘निद्वेन्द्व’ होने अर्थात राग-द्वेष से रहित होने की बड़ी भारी आवश्यकता है,क्योंकि यही वास्तव में मनुष्य के शत्रु है अर्थात् मनुष्य को संसार में फंसाने वाले हैं।
वैराग्य क्या है?:- वैराग्य से अभीप्राय विवेक का जगऩा है अर्थात् आसुरी शक्तियों का उन्मूलन और दिव्यशक्तियों (ईश्वरीय शक्तियों) का अभ्युदय होना,उनका प्रबल ही वैराग्य कहलाता है।आसक्ति के कारण ही मनुष्य पाप के पाश में बंधता है। यह आसक्ति ही राग है।इस राग से विरक्त होना ही वैराग्य है किंतु यह होता तभी है जब एक विवेक का प्रादुर्भाव होता है।
दूसरे शब्दों में कहें तो यही अवस्था आत्मप्रज्ञा का आविभार्व कहलाती है। इस वैराग्य के कारण ही मनुष्य-मनुष्यत्व से देवत्व और देवत्त्व से भगवत्ता को प्राप्त होता है,मोक्ष को प्राप्त होता है। प्रायः लोग सब कुछ त्याग कर वन में अथवा हिमालय की कन्दराओं में जाकर समाधि लगाने की जीवन-शैली को वैराग्य समझते हैं ,जबकि वैराग्य तो घर में रहकर गृहस्थी होते हुए अनासक्त भाव से जीवन-यापन करके भी निष्पादित हो सकता है । जैसा कि मिथिला नरेश महाराजा जनक राजा होते हुए भी योगी थे।
अतः स्पष्ट हो गया कि राग और द्वेष के दुष्परिणामों से बचना है तो चित्त की तीव्रता निर्द्धन्द्वता(निर्विकारिता) ही एकमात्र उपाय है।ध्यान रहे कफ, पित्त,वायु की सम अवस्था तन को स्वस्थ रखती है किंतु इनमें से किसी एक का अतिरेक हो जाये, तो हमारा तन बीमार हो जाता है। ठीक इसी प्रकार हमारे मन की अवस्था है। राग-द्वेष सम अवस्था में रहे, तो मन स्वस्थ रहता है किंतु इनका अतिरेक मन को रूग्ण बनाता है। इसलिए मन में राग-द्वेष के अतिरेक को रोकना है और समता में रहना परम आवश्यक है। फिर यह जीवन भर नहीं लगता है। मन गुलाब की तरह खिला रहता है और जिंदगी जीने का आनंद आता है।
प्रोफेसर विजेंदर सिंह आर्य