पंडित रामचंद्र देहलवी का आर्य समाज के इतिहास में गौरव पूर्ण योगदान
ओ३म
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पं. रामचन्द्र देहलवी जी का आर्यसमाज के इतिहास में गौरवपूर्ण योगदान है। उन्होंने वैदिक धर्म और इसके सिद्धान्तों सहित इस्लाम और ईसाई मत के ग्रन्थों पर भी एक अधिकारी विद्वान के रूप में स्थान प्राप्त किया था और इनकी समीक्षा बहुत प्रभावशाली एवं तथ्यपूर्ण रीति से करते थे। इसका महत्व इस कारण से था कि उनको इन मतों के दोनों पक्षों सत्य व असत्य का भलीभांति ज्ञान था। कोई पादरी व मौलवी उनको भ्रमित नहीं कर सकता था। वह इन मतों की मान्यताओं पर विपक्षी विद्वानों से शास्त्रार्थ भी करते थे। इन मतों की मान्यताओं पर उनके प्रवचन देश भर की आर्यसमाजों में हुआ करते थे। उनकी इस योग्यता और उनके लिखे ग्रन्थों ने उन्हें आर्यसमाज का एक उच्च योग्यता का महनीय व विश्वसनीय विद्वान सिद्ध किया था। आर्यसमाज की इन मतों पर जो मान्यतायें थी उसकी पं. रामचन्द्र देहलवी जी प्रमाणों, युक्ति व तर्कों से पुष्टि किया करते थे। ऐसे विद्वानों का आर्यसमाज में होना आर्यसमाज के लिये सौभाग्य एवं गौरव की बात थी। उनके चले जाने से वस्तुतः आर्यसमाज की व धार्मिक जगत के उन लोगों की भारी क्षति हुई थी जो सत्य को महत्व देते हैं, सत्य का अन्वेषण करते हैं, सत्य के लिये संघर्ष करते और सत्य का अपने देश व समाज में प्रचार प्रसार होता देखना चाहते हैं। पं. जी का जन्म दिनांक 8-4-1881 तदनुसार चैत्र शुक्ल नवमी सम्वत् 1938 विक्रमी को मध्य प्रदेश के नीमच स्थान पर पिता मुन्शी छोटेलाल तथा माता श्रीमती रामदेई जी के यहां रामनवमी पर्व पर हुआ था। रामनवमी के दिन जन्म लेने के कारण आपका नाम रामचन्द्र रखा गया था। बचपन से ही आपकी बुद्धि कुशाग्र थी। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा मध्य प्रदेश के नीमच के एक विद्यालय में हुई। आपने मिडिल अर्थात् आठवीं की परीक्षा डी.ए.वी. स्कूल अजमेर से उत्तीर्ण की थी। इसके बाद आप इन्दौर में जाकर पढ़े और यहां मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। आपने विद्यालीय शिक्षा मैट्रिक तक ही प्राप्त की थी। 18 वर्ष की आयु में दिल्ली निवासी कमला देवी जी से आपका विवाह हुआ। अब अपनी पत्नी व परिवार के जीवन निर्वाह का भार आप पर आ पड़ा था।
विवाह के बाद आप दिल्ली आ गये। यहां आपके श्वसुर की सुनार की दुकान थी। यह इनका पारिवारिक व्यवसाय था। दिल्ली में देहलवी जी ने रैली ब्रदर्स नामक एक अंग्रेजी फर्म में 15 रुपये मासिक वेतन पर कार्य किया। यह भी बता दें कि सन् 1899 में मैट्रिक पास होना महत्वपूर्ण माना जाता था। हमने सन् 1974 में अपना व्यवसायिक जीवन आरम्भ किया था। उन दिनों भारत सरकार में मैट्रिक पास योग्यता वालों को एल.डी.सी. का पद दिया जाता था। हमारा अनुमान है कि सन् 1899 में मैट्रिक पास युवक बहुत कम होते थे और इन्हें आसानी से नौकरी आदि मिल जाया करती होगी। रैली ब्रदर्स, दिल्ली में कार्य करते हुए एक बार आपको अवकाश पर रहना पड़ा। लौटने पर मालिक ने कारण पूछा तो आपने उसे कारण बताया। फर्म के स्वामी ईसाई थे। उन्हें अवकाश लेने पर आपत्ति थी। अतः आपने उसे दो टूक उत्तर दिया कि ईसाई मत के ग्रन्थ बाइबिल के अनुसार ईश्वर ने सृष्टि बनाने के बाद सातवें दिन रविवार को आराम किया था। यह एक प्रकार की छुट्टी व अवकाश ही तो था। इस कहा-सुनी के कारण आपको नौकरी का त्याग करना पड़ा और आपने अपने श्वसुर की दुकान पर स्वर्णकारी का काम करना आरम्भ कर दिया। इस कार्य को करते हुए आपको कार्य में सफलता के साथ लोकप्रियता भी प्राप्त हुई। जब सन् 1917 में आपकी आयु 36 वर्ष थी तब आपकी धर्मपत्नी कमलादेवी जी का निधन हो गया। आप़का स्वास्थ्य एवं व्यक्तित्व प्रभावशाली था। आपको विवाह के अनेक प्रस्ताव प्राप्त हुए परन्तु आप दूसरे विवाह के लिये सहमत नहीं हुए। आपने अपनी पत्नी के निधन के समय उसके शव के सम्मुख यह संकल्प लिया था कि जिस दृष्टि से मैंने तुम्हें अर्थात् कमलादेवी जी को देखा है उस दृष्टि से अब किसी नारी को नहीं देखूंगा। पत्नी की मृत्यु के बाद आपने अपना अधिकांश समय आर्यसमाज के वैदिक साहित्य के अध्ययन व प्रचार कार्यों में व्यतीत किया।
इन्हीं दिनों ईसाई व मुस्लिम मत के विद्वान दिल्ली के फव्वारा चैक पर सप्ताह में दो दिन अपने-अपने मत का प्रचार किया करते थे। इस प्रचार में वैदिक धर्म किंवा सनातन पौराणिक मत की आलोचना रहा करती थी और स्वमतों का गुणगान हुआ करता था। पं. रामचन्द्र देहलवी जी एक श्रोता के रूप में इन व्याख्यानों को सुनते थे। इनमें वैदिक धर्म की आलोचना को सुनकर उनको ग्लानि व क्षोभ होता था। इस मनोस्थिति ने उन्हें इन मतों के धार्मिक साहित्य का अध्ययन करने और उनकी मिथ्या आलोचनाओं का प्रतिवाद करने की प्रेरणा की। उन्होंने अपने अध्ययन को इन मतों के साहित्य पर केन्द्रित किया। एक अच्छे प्रभावशाली वक्ता की तैयारी कर आप मैदान में उतरे और उसी स्थान पर नियमित अर्थात् प्रतिदिन उन्होंने वैदिक धर्म के मण्डन तथा ईसाई व मुस्लिम विद्वानों की आलोचनाओं का उत्तर व खण्डन करना आरम्भ कर दिया। पं. रामचन्द्र देहलवी जी के व्याख्यानों से पादरियों एवं मौलवियों की मजलिस उखड़ने लगी। देहलवी जी के व्याख्यान सुनने वालों की संख्या भी अधिक होने लगी जिससे फव्वारा चैक पर यातायात में बाधा आने लगी। इस कारण पुलिस के अधिकारियों ने पंडित जी के व्याख्यानों के लिये निकटवर्ती गांधी ग्राउण्ड स्थान को निर्धारित किया। आर्यसमाज के विद्वानों ने लिखा है कि सन् 1910 से सन् 1924 तक के लगभग 14 वर्षों तक देहलवी जी ने इसी स्थान पर बिना किसी व्यवधान अर्थात् नियमित रूप से व्याख्यान दिये। ऐसा उदाहरण हमारे किसी अन्य विद्वान के जीवन में देखने को नहीं मिलता। लगातार 14 वर्ष तक व्याख्यान देना अपने आप में एक रिकार्ड है। यह योग्यता व उपलब्धि आर्यसमाज के शायद किसी विद्वान के जीवन में प्राप्त नहीं हुई। इसी अवधि में आपकी पत्नी एवं एक पुत्र का निधन हुआ परन्तु उससे कोई बाधा आपके व्याख्यानों के क्रम में नहीं आई।
पं. देहलवी जी ने एक अपंग हाफिज जी को अपना गुरु बनाया था और उनसे विधिवत कुरान का अध्ययन किया था। कुरान सहित ईसाई मत की पुस्तकों का गहन ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद ही पण्डित जी पादरियों तथा मौलवियों से शास्त्रार्थ करने में प्रवृत्त हुए थे। उन्हें सभी शास्त्रार्थों में सफलता व विजय प्राप्त हुई थी। देहलवी जी ने जो शास्त्रार्थ किये वह संख्या की दृष्टि से बहुत अधिक हैं और इसके साथ ही वह रोचक, शिक्षाप्रद एवं ज्ञानवर्धक भी हैं। देहलवी जी वैदिक आर्य विद्वान थे और पूरे आर्यजगत सहित सभी मतों के धार्मिक विद्वानों में उनकी योग्यता का डंका बजता था। उच्च कोटि के विद्वान, ईश्वर और वेद को समर्पित, ऋषि दयानन्द के आदर्श भक्त एवं वेद प्रचार के लिये मनसा-वाचा-कर्मणा समर्पित देहलवी जी को पूरे देश की आर्यसमाजों में उपदेश व व्याख्यानों के लिये वेद प्रचारार्थ आमंत्रित किया जाता था। यह उनकी योग्यता का समुचित उपयोग भी था। हैदराबाद मुस्लिम रियासत की प्रजा हिन्दू बहुसंख्यक थी। वहां आर्यसमाज का अच्छा प्रभाव था। वहां वैदिक धर्म के प्रचार व व्याख्यानों से चहुं ओर धर्म विषयक जागृति एवं हलचल उत्पन्न हुई। हैदराबाद रियासत के निजाम ने पण्डित जी के प्रमाणों व सत्य मान्यताओं से युक्त व्याख्यानों से डर कर उनके रियासत में व्याख्यान देने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। यहां तक की उनको रियासत से निष्कासित भी किया था। 2 फरवरी सन् 1968 को 87 वर्ष की आयु में उनका दिल्ली में निधन हुआ था।
पं. रामचन्द्र देहलवी जी ने आर्यसमाज के साहित्यिक भण्डार में अपनी ज्ञान प्रसूता लेखनी से महत्वपूर्ण योगदान किया वा उसमें वृद्धि की। उनकी प्रसिद्ध पुस्तकों के नाम हैं 1- दो सनातन सत्तायें, 2- सत्यार्थप्रकाश के चतुर्दश समुल्लास में उद्धृत र्कुआन की आयतों का देवनागरी में उल्था और अनुवाद (सन् 1945), 3- ईश्वर सिद्धि, 4- ईश्वरोपासना, 5- धर्म और अधर्म, 6- ईश्वर में अविश्वास क्यों?, 7- विद्यार्थी और सदाचार, 8- ईश्वर की पूजा का वैदिक स्वरूप, 9- इंजील के परस्पर विरोधी वचन, 10- पौराणिकों से शास्त्रार्थ का विषय निश्चित करते समय ध्यान में रखने योग्य बातें, 11- र्कुआन में अन्य मतावलम्बियों के लिये कुछ अति कठोर, उत्तेजक वाक्यों का संग्रह (1944), 12- आर्यसमाज की मान्यतायें, 13- आर्यसमाज के मन्तव्य, 14- कुरान का अनुवाद (सूर ए बकर और सूर ए फातिहा), 15- रामचन्द्र देहलवी लेखावली (1968), 16- ईश्वर ने दुनिया क्यों बनाई?, 17- पूजा क्या, क्यों और कैसे? तथा 18- वेद का इस्लाम पर प्रभाव।
पंडित देहलवी जी के उपर्युक्त अधिकांश ग्रन्थ अब प्राप्त नहीं होते। यदि इन सबको एकाधिक खण्डों में प्रकाशित कर दिया जाये तो उससे स्वाध्यायशील वर्तमान व भावी पीढ़ी को लाभ हो सकता है। आर्यजगत में दो ही प्रमुख प्रकाशक ‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली’ एवं ‘श्री घूडमल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी’ हैं। यदि यह आपस में मंत्रणा कर इस कार्य को सम्पादित करने पर विचार करें तो इससे पंडित जी का अच्छा श्राद्ध हो सकता है जिसका लाभ आर्यजनता को होगा और दुर्लभ साहित्य की रक्षा होगी। आर्यजगत के प्रसिद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने ‘‘प. रामचन्द्र देहलवी व उनका वैदिक दर्शन” एक 367 पृष्ठीय ग्रन्थ की रचना की है। इसका प्रकाशन सन् 2008 में आर्य प्रकाशक ‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, नई सड़क, दिल्ली’ से हुआ था। इस ग्रन्थ में पंडित जी के कुछ ग्रन्थों ‘दो सनातन सत्तायें’, ‘र्कुआन में इति कठोर वाक्य’, ‘ईश्वर की सत्ता’ आदि का समावेश भी है। इसके साथ ही इस पुस्तक अनेक महत्वपूर्ण अध्याय हैं। कुछ महत्वपूर्ण अध्याय 1-पण्डित जी के अभियोग के समय, 2- देहलवी जी के शास्त्रार्थों की कुछ झांकियां, 3- स्वराज्य संग्राम में पण्डित जी, 4- पण्डित जी की तार्किकता व फुलझड़ियां, 5- देहलवी जी के चिन्तन का निचोड़, 6- लोक-सेवा और ईश्वर सेवा और 7- पण्डित जी के व्याख्यान आदि हैं। इस ग्रन्थ के लिये प्रा. जिज्ञासु जी और प्रकाशक श्री अजय आर्य जी आर्यजगत की ओर से धन्यवाद एवं बधाई के पात्र हैं। लगभग 20 वर्ष पूर्व साप्ताहिक पत्र ‘आर्य-सन्देश’ ने पं. रामचन्द्र देहलवी जी पर एक भव्य विशेषांक निकाला था। उन दिनों इस पत्र के सम्पादक भी मूलचन्द गुप्त जी हुआ करते थे।
प्रा. जिज्ञासु जी ने अपनी उपर्युक्त पुस्तक में पं. रामचन्द्र देहलवी जी पर हिन्दी साहित्य तथा देश के जाने माने साहित्यकार, पत्रकार, इतिहास लेखक, प्राध्यापक, आयुर्वेदाचार्य प्रो. चतुरसेन शास्त्री जी का एक पुराना संक्षिप्त लेख दिया है। इसकी महत्ता के कारण हम उसे यहां साभार उद्धृत कर रहे हैं। वह लिखते हैं ‘‘आप (पं. रामचन्द्र देहलवी जी) नीमच मध्य प्रदेश के निवासी हैं पर कोई 20 साल से दिल्ली में रहते हैं। पहले आप रैली ब्रादर फर्म में क्लर्क थे, पीछे आपने नौकरी से घृणा करके उसे छोड़ दिया और (सोने की) घड़ाई का काम करने लगे। आप उत्कृष्ट आर्यसमाजी हैं, धीरे-धीरे आपने आर्य सिद्धान्तों का प्रचार शुरु किया। वाणी में रस और मस्तिष्क में प्रतिभा थी। आप चमके और खूब चमके। आज आर्यसमाज में आपकी टक्कर का कोई योद्धा नहीं।
कुरान आपके कण्ठ पर है। बड़े बड़े हाफिज मौलवी आपके मधुर कुरान पाठ पर लट्टू हैं। आप प्रबल तार्किक और सभाजीत व्यक्ति हैं। आर्य संसार में आपकी बड़ी प्रतिष्ठा है। आपकी वचनशैली नुक्तेदार, प्रसाद गुणयुक्त और नुकीली है। चुभती है मगर दर्द नहीं करती। लोग हंस पड़तें हैं मगर आंखों में आंसू आ जाते हैं।
आपकी तीन पुत्रियां हैं। पुत्र एक भी नहीं। आपकी धर्म पत्नी का स्वर्गवास 8/7 वर्ष हुए हो गया। आपने फिर विवाह नहीं किया। अभी आपकी अवस्था अनुमानतः 40 वर्ष की होगी। आप अखिल भारतवर्षीय मेढ क्षत्रिय सम्मेलन इन्दौर के सभापति रह चुके हैं।
अब भी आप अपने घड़ाई की मजूरी करके पेट भरते हैं। बड़े-बड़े मौलवी पण्डित लोग आपकी धुएं से भरी दुकान में टाट के फर्श पर बैठे रहते हैं। आपके हाथ की चिमटी काम करती जाती है और जुबान उपदेश देती रहती है। आपकी यह उच्च प्रतिभा, प्रतिष्ठित हैसियत और साधारण मजूरी का जीवन आज सैकड़ों, लाखों, करोड़ों पढ़े पत्थर बाबुओं के लिये देखने और समझने की वस्तु है।”
पंडित जी के विषय में हमने विद्वानों से एक संस्मरण सुना था। दिल्ली के चांदनी चैक पर एक मौलवी जी का व्याख्यान हो रहा था। वहां बहुत बड़ी भीड़ व्याख्यान सुन रही थी। देहलवी जी भी एक श्रोता के रूप में इस व्याख्यान में उपस्थित थे। मौलवी जी र्कुआन की किसी आयत का उच्चारण करते हुए अटक गये। उन्होंने जनता से कहा कि जिसको वह आयत स्मरण हो वह उस आयत को पूरा सुनाये। सभी चुप थे। देहलवी जी ने हाथ खड़ा किया। उन्हें आयत पूरी सुनाने का अवसर दिया गया। देहलवी जी ने वह पूरी आयत शुद्ध व स्पष्ट उच्चारण करते हुए सुना दी। मौलवी जी प्रसन्न हुए और बोले कि मुसलमान अपने धर्म और पुस्तक के प्रति कितने स्वाध्यायशील व पक्के हैं इसका ज्ञान इस घटना से होता है। इस पर देहलवी जी ने मौलवी जो कहा कि मैं कोई मुसलमान नहीं अपितु ऋषि दयानन्द के अनुयायी एक आर्यसमाजी पंडित पं. रामचन्द्र देहलवी हूं। इससे मौलवी जी को निराशा हुई।
डा. भवानीलाल भारतीय जी ने पं. रामचन्द्र देहलवी जी का जीवन परिचय अपने ग्रन्थ ‘आर्य लेखक कोश’ में दिया है। उनकी ‘आर्यसमाज के शास्त्रार्थ महारथी’ व कुछ अन्य पुस्तकों में भी देहलवी जी का उल्लेख व विवरण मिलता हैं। लगभग 52 वर्ष पहले 2 फरवरी, 1968 को पं. रामचन्द्र देहलवी जी दिल्ली में दिवंगत हुए थे। अतः आगामी 2 फरवरी को उनकी बावनवीं पुण्य तिथि है। इस दिन आर्यसमाजों में उनकी स्मृति में यज्ञ किये जायें और उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर व्याख्यान हों। लोग उनके साहित्य को पढ़कर उनसे प्रेरणा ग्रहण करें। आर्य साहित्य के प्रकाशक इस अवसर पण्डित जी के अनुपलब्ध ग्रन्थों के प्रकाशन का निर्णय लें व उसका लोकार्पण करें। यदि इस रूप में देहलवी जी की पुण्यतिथि एवं आगामी 2 अप्रैल, 2020 को रामनवमी के दिन उनकी 139 वीं जयन्ती मनायी जाती है तो यह उनको उचित श्रद्धांजलि होगी। आजकल आर्यसमाज के अनेक बड़े विद्वानों के जन्मदिवस व पुण्यतिथियां आती हैं परन्तु कहीं उनकी चर्चा नहीं होती। यह भी एक प्रकार की कृतघ्नता ही कही जा सकती है। आर्यसमाज के सुधी अनुयायी अपने कर्तव्यों का उचित रीति से सम्पादन करें यह हमारी उनसे विनती एवं प्रार्थना है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत