यह चिंताजनक है कि कृषि प्रधान देश भारत में पशुपालन के प्रति लोगों की अरुचि बढ़ती जा रही है। मवेशियों की संख्या में लगातार गिरावट हो रही है। आजादी के बाद से 1992 तक देश में मवेशियों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ है। लेकिन उसके बाद इनकी संख्या में लगातार गिरावट दर्ज की गई है। 2007 में पशुओं की संख्या में मामूली वृद्धि हुई थी लेकिन उसके बाद इनकी संख्या में जो गिरावट का सिलसिला शुरू हुआ, वह थमने का नाम नहीं ले रहा है। 1951 में मवेशियों की संख्या 155.3 लाख थी जो 1956 में बढक़र 158.7 लाख हो गई थी। साल 1961 में पशुओं की संख्या बढ़ कर 175.6 लाख हो गई। पांच साल बाद यानी 1966 में यह संख्या बढक़र 176.2 लाख हो गई। इसी तरह 1972 में मवेशियों की संख्या 178.3 लाख, 1977 में 180 लाख, 1982 में 192.45 लाख और 1987 में 199.69 लाख हुई। 1992 में देश में सर्वाधिक 204.58 लाख मवेशी हो गए। 2003 में इनकी संख्या में और गिरावट आई और यह संख्या घट कर 185.18 लाख तक रह गई। 2012 की गणना में यह संख्या में 190.90 लाख रह गई।
पशुओं की घटती संख्या का सर्वाधिक प्रतिकूल असर कृषि पर पड़ा है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि और पशुपालन का कितना विशेष महत्त्व है, यह इसी से समझा जा सकता है कि सकल घरेलू कृषि उत्पाद में पशुपालन का 28-30 प्रतिशत का सराहनीय योगदान है। इसमें भी दुग्ध एक ऐसा उत्पाद है जिसका योगदान सर्वाधिक है। भारत में विश्व की कुल संख्या का तकरीबन 15 प्रतिशत गाएं और 55 प्रतिशत भैंसें हैं। देश के कुल दुग्ध उत्पादन का 53 प्रतिशत भैंसों और 43 प्रतिशत गायों से प्राप्त होता है। भारत लगभग 1218 लाख टन दुग्ध उत्पादन करके विश्व में प्रथम स्थान पर है। दुग्ध उत्पादन में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है। यह उपलब्धि पशुपालन से जुड़े विभिन्न पहलुओं जैसे मवेशियों की नस्ल, पालन-पोषण, स्वास्थ्य और आवास प्रबंधन आदि में किए गए अनुसंधान और उसके प्रचार-प्रसार का परिणाम है। अनोखी बात यह भी है कि भारतीय देसी गायों में अधिक तापमान बर्दाश्त करने की अद्भुत क्षमता सर्वाधिक है। अधिक प्रतिरोधक क्षमता और पौष्टिकतत्त्वों की कम जरूरत और रख-रखाव में आसान होने के कारण दुनिया के प्रमुख राष्ट्र इनका आयात कर रहे हैं। आयात करने वाले देशों में अमेरिका, आस्ट्रेलिया और ब्राजील अग्रणी हैं। ये देश इन गायों का उपयोग अनुसंधान और उन्नत नस्ल विकसित करने के लिए कर रहे हैं। चिंता की बात यह है कि गायों की संख्या में कमी आ रही है। अगर गायों की संख्या में इसी तरह कमी होती रही तो जलवायु परिवर्तन और तापमान में वृद्धि के कारण 2020 तक देश में 32 लाख टन दूध का उत्पादन कम हो जाएगा। यह दूध अभी के मूल्य से लगभग पांच हजार करोड़ रुपए से अधिक होगा। गौरतलब है कि देश में कुल 19.9 करोड़ गोधन हैं जो विश्व के कुल गोधन का चौदह फीसद हैं। साल 2007 की गणना के अनुसार देश में लगभग नौ करोड़ देशी नस्ल की गाएं थीं। इससे पूर्व 1997 की तुलना में 2003 में देसी गायों की संख्या घट गई। 19वीं पशुगणना के आंकड़ों पर ध्यान दें तो 2012 में पशुओं की संख्या साल 2007 के मुकाबले 3.3 फीसद घटी है। राहत की बात यह है कि दुधारु पशुओं में गायों और भैंसों की संख्या बढ़ी है। आंकड़ों के मुताबिक दुधारू गाय और भैंसों की संख्या 6.75 फीसद की दर से बढ़ कर 11.19 करोड़ और दूध देने वाले अन्य पशुओं की संख्या 7.7 करोड़ से बढक़र आठ करोड़ हो गई है। घोड़े और खच्चरों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। लेकिन बकरी, भेड़ और सूअरों की आबादी में गिरावट आई है। भेड़ों की आबादी भी पिछले पांच सालों के दौरान नौ फीसद घटी है। अच्छी बात यह है कि केंद्र सरकार ने पिछले दिनों देसी गायों के संरक्षण और संवर्धन के लिए राष्ट्रीय गोकुल मिशन की शुरुआत की। इस योजना के तहत बड़े शहरों के आसपास लगभग एक हजार गायों को एक साथ रखा जा सकेगा। इनमें साठ फीसद देसी दुधारू गाएं और चालीस फीसद बिना दूध देने वाली गाएं होंगी। इन गायों का पालन-पोषण वैज्ञानिक ढंग से किया जाएगा और समय-समय पर इनके स्वास्थ्य की जांच की जाएगी। गोकुल ग्राम प्रबंधन की गोपालन इकाई को प्रशिक्षण भी दिया जाएगा।
यहां जो दूध का उत्पादन होगा उसका सही तरीके से जांच की जाएगी और वैज्ञानिक तरीके से भंडारण किया जाएगा। साथ ही गाय के गोबर से जैविक उत्पाद तैयार किया जाएगा। गोकुल ग्रामों में बायो गैस स्थापित किए जाने की भी योजना है जिससे कि बिजली की सुविधा मिल सके। इसके अलावा सरकार ने जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर समेकित रूप से देसी नस्ल के पशुओं के विकास के लिए कामधेनु प्रजनन केंद्र की स्थापना की योजना बनाई है, जो सराहनीय कदम है। निश्चित रूप से इस योजना से मवेशियों का संरक्षण होगा और उनकी तादाद बढ़ेगी। अच्छी बात यह है कि राज्य सरकारें भी इस दिशा में पर्याप्त कदम उठा रही हैं। बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान देसी गायों को बढ़ावा देने के लिए आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, गोवा और ओडि़शा जैसे राज्यों में सकारात्मक पहल की जा रही है। गौरतलब है कि छोटे, भूमिहीन तथा सीमांत किसान, जिनके पास फसल उगाने और बड़े पशु पालने के अवसर सीमित हैं, उनके लिए छोटे पशु जैसे भेड़-बकरियां, सूकर और मुर्गीपालन रोजी-रोटी का साधन और गरीबी से निपटने का आधार हैं।
आंकड़ों पर गौर करें तो भारत का स्थान बकरियों की संख्या में दूसरा, भेड़ों की संख्या में तीसरा और कुक्कुट संख्या में सातवां है। कम खर्चे, कम स्थान और कम मेहनत से ज्यादा मुनाफा कमाने में छोटे पशुओं का अहम योगदान है। अगर इनसे संबंधित उपलब्ध नवीनतम तकनीकों का प्रचार-प्रसार किया जाए तो निस्संदेह ये छोटे पशु गरीबों के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। लेकिन यह तभी संभव होगा जब सरकार इस दिशा में सकारात्मक पहल करेगी।
भारतीय अर्थव्यवस्था में पशुपालन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। देश की तकरीबन सत्तर प्रतिशत आबादी कृषि और पशुपालन पर निर्भर है। छोटे और सीमांत किसानों के पास कुल कृषि भूमि की तीस प्रतिशत जोत है। इसमें सत्तर प्रतिशत कृषक पशुपालन व्यवसाय से जुड़े हैं जिनके पास कुल पशुधन का तकरीबन अस्सी प्रतिशत भाग मौजूद है। यानी स्पष्ट है कि देश का अधिकांश पशुधन आर्थिक रूप से निर्बल वर्ग के पास है। इस समय भारत में लगभग 19.91 करोड़ गाय, 10.53 करोड़ भैंस, 14.55 करोड़ बकरी, 7.61 करोड़ भेड़, 1.11 करोड़ सूकर तथा 68.88 करोड़ मुगियां हैं। यही कारण है कि कृषि क्षेत्र में जहां हम मात्र 1-2 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर प्राप्त कर रहे हैं, वहीं पशुपालन में 4-5 प्रतिशत। अगर लोगों में पशुपालन के प्रति अभिरुचि बढ़े और पाले जा रहे पशुओं की समुचित देखरेख हो और उन्हें समय-समय पर होने वाली बीमारियों का कारगर उपचार हो तो भारतीय अर्थव्यवस्था में पशुपालन का योगदान बेशक बढ़ सकता है।
पशुपालन से पर्यावरण पर सकारात्मक असर पड़ेगा और कृषि कार्य में प्रयुक्त डीजल की खपत में कमी आने से वायुमंडल में प्रदूषण कम होगा। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। वैसे भी भारत में पशुओं को धन और शक्ति की संज्ञा दी गई है। मशीनी युग के बावजूद विभिन्न कृषि कार्यों में इनकी उपयोगिता बरकरार है। हल चलाने से लेकर सिंचाई करने, पटेला चलाने, बोझा ढोने, गन्ना पेरने, अनाज से भूसे को अलग करने, कृषि उपज को मंडी ले जाने आदि अनेक कृषि कार्यों में इनका उपयोग किया जाता है। इसके अलावा भूमिहीन, लघु और सीमांत किसान बड़े पैमाने पर पशुपालन करते हैं, जिससे उन्हें अच्छी आमदनी होती है।पशुपालन से टूटता जा रहा है लोगों का मोह।