ओ३म्
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परमात्मा ने हमें मानव शरीर और इसमें पांच ज्ञानेन्द्रियां एवं पांच कर्मेन्द्रियां दी हैं। हमारे नेत्र हमारी ज्ञानेन्द्रिय है जो हमें स्थूल दृश्यों का दर्शन कराती हैं। अपने नेत्रों से हम स्वयं को व दूसरे मनुष्यो, अन्य प्राणियों एवं पृथिवी, वृक्ष, सूर्य, चन्द्र, जल आदि पदार्थों को देखते हैं। वेद से हमें ज्ञात हुआ है कि यह संसार सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमन, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, अनादि, नित्य, अविनाशी, अजर, अमर और सृष्टिकर्ता ईश्वर ने बनाया है। ईश्वर जड़ व स्थूल पदार्थ नहीं है अपितु वह हमारी आत्मा के ही समान सूक्ष्म एवं चेतन पदार्थ है। जिस प्रकार हम अपने नेत्रों से मनुष्य आदि प्राणियों के स्थूल शरीरों को देखते हैं परन्तु उसमें विद्यमान सूक्ष्म, रूप-रंग रहित चेतन जीवात्मा को नहीं देख पाते उसी प्रकार से हम ईश्वर को सृष्टि में उसकी चेष्टाओं व क्रियाओं से अनुभव तो कर सकते हैं परन्तु उसको अपनी स्थूल पदार्थों से बनी आंखों से अन्य स्थूल पदार्थों की तरह देख नहीं सकते। ईश्वर को देखना है तो हमें ईश्वर की रचनाओं को देखना चाहिये। यह सारा अपौरुषेय जगत ईश्वर का बनाया हुआ है। इस सृष्टि को देखकर इसके रचयिता का ज्ञान सभी ज्ञानी व मननशील मनुष्यों को होता है। यदि ईश्वर नाम की चेतन व सृष्टि की रचना करने वाली सत्ता संसार में न होती तो न यह जगत होता और न ही वनस्पति एवं प्राणी जगत ही होता। उस अवस्था में हमारा जन्म भी न हुआ होता और हम आत्मा के रूप में बिना शरीर के इस संसार में, जो प्रलयावस्था में होता, उसमें कहीं गहरी निद्रा वा सुप्तावस्था में पड़े होते। अतः ईश्वर का अस्तित्व इस सृष्टि एवं समस्त वनस्पति एवं प्राणी जगत को देखकर होता है। ऋषि दयानन्द ने एक यह भी सिद्धान्त दिया है कि रचना को देखकर उसके रचयिता का ज्ञान होता है। यह सिद्धान्त ज्ञान-विज्ञान से युक्त है। यदि इस सिद्धान्त को कोई ज्ञानी या वैज्ञानिक नहीं मानता तो उसे भी भ्रान्त मानना चाहिये। कोई भी रचना बिना रचयिता के नहीं होती और कोई भी रचना करने में सक्षम व्यक्ति व सत्ता बिना रचना किये नहीं रहता। उसका गुण उसको उस रचना करने योग्य काम को करने की प्रेरणा करता है।
मनुष्य एक चेतन प्राणी है। सभी चेतन प्राणियों का अस्तित्व शरीर में आत्मा के अस्तित्व के कारण होता है। आत्मा भी शरीर में तभी तक रहती है जब तक की शरीर रहने योग्य होता है। मनुष्य अपनी कर्म एवं ज्ञान की शक्ति के योग व समन्वय से अनेक पदार्थों की रचना करता है। हम भोजन करते हैं तो वह भोजन घर या होटल में कोई बनाता है तभी वह हमें प्राप्त होता है। अनेक स्थितियों में भोजन बनाने वाले लोग हमारे सामने नहीं होते परन्तु हम भोजन को खाकर कहते हैं कि भोजन स्वादिष्ट था। इसका बनाने वाला योग्य एवं अनुभवी प्रतीत होता है। हम यदि अपने परिचित किसी व्यक्ति के घर जायें तो उसके घर को देखकर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि इस भवन का बनाने वाला इंजीनियम, मिस्त्री व मजदूर योग्य व्यक्ति थे। उन्होंने यह मकान वा निवास अच्छा बनाया है। यद्यपि भवन बनाने वाले व्यक्ति हमारी आंखों के सामने नहीं होते परन्तु हम रचना का आधार रचयिता होता है, इस सिद्धान्त के आधार पर निश्चयात्मक रूप से पुष्टि करते हैं कि इस भवन को बनाने वाला अवश्य ही कोई व्यक्ति व अनेक व्यक्ति हैं। संसार में हम अपनी आंखों से जो भी रचनायें व दृश्य देखते हैं वह या तो अपौरुषेय सत्ता से बने होते हैं या पौरुषेय सत्ताओं के द्वारा। यह समस्त सृष्टि जिसमें सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अनेकानेक ग्रह व उपग्रह, लोक-लोकान्तर आदि हैं, तथा समस्त वनस्पति जगत, प्राणी जगत सहित अग्नि, जल, वायु, आकाश आदि, यह सभी अपौरुषेय सत्ता ईश्वर के द्वारा बने व धारण किये हुए हैं। कुछ पदार्थ व वस्तुओं को मनुष्यों ने भी बनाया है जिन्हें पौरुषेय रचना कहते हैं। मनुष्य ने भवन, सड़के, वाहन, कम्प्यूटर, रेलगाड़ियां, वायुयान, वस्त्र, विभिन्न प्रकार के अन्य सामान आदि बनायें हैं जिनका हम प्रयोग करते हैं। हम जानते हैं कि कोई पदार्थ बिना किसी के बनाये नहीं बनता। इस आधार पर हम यह विश्वास करते हैं कि प्रत्येक वस्तु को अवश्य किसी न किसी ने बनाया है। इस आधार पर सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि सभी अपौरुषेय पदार्थों का रचयिता परमात्मा सिद्ध होता है।
परमात्मा की चेष्टा व क्रियायें हम अपने भीतर अपनी आत्मा में भी अनुभव कर सकते हैं। मनुष्य जब वेदों का स्वाध्याय तथा परोपकार आदि उत्तम व श्रेष्ठ कार्यों को करता है तब उसकी आत्मा में उन कार्यों को करने में निर्भयता, निःशंकता, उत्साह व आनन्द आदि उत्पन्न होता है। जब मनुष्य इसके विपरीत चोरी, जारी, सामाजिक नियमों के विरुद्ध कोई कार्य करता है तब उसको उन कार्यों को करने में भय, शंका तथा लज्जा होती है। आत्मा में अच्छे कार्यों को करने में उत्साह, आनन्द एवं निःशंकता तथा चोरी, जारी आदि बुरे कामों को करने में जो भय, शंका व लज्जा का अनुभव होता है वह आत्मा में उसकी अपनी ओर से नहीं होता अपितु आत्मा में व्याप्त सर्वव्यापक परमात्मा की ओर से होता है जो एक मित्र एवं हितैषी की भांति उसे बुरे कामों को करने से रोकता तथा अच्छे व पुण्य कार्यों को करने में प्रेरित व प्रोत्साहित करता है। इसे ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान व अनुभव कहते हैं।
परमात्मा ने सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि जिन ग्रह व उपग्रहों सहित लोकलोकान्तरों को बनाया है वह सब आकाश में लटके हुए हैं तथा अपनी धुरी पर घूम रहे हैं। हमारे आकाशस्थ सूर्य के सभी ग्रह व उपग्रह अपनी धुरी सहित सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सूर्य से इतर ग्रहों के उपग्रह अपने अपने ग्रह की परिक्रमा करने सहित सूर्य की भी परिक्रमा करते हैं। पृथिवी के सूर्य के चारों ओर घूमने से ही मौसम बदलता है। यह सभी कार्य समय बद्ध होते हैं। सूर्योदय तथा सूर्यास्त हमेशा समय पर ही होता है। सूर्य ग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण भी समय पर होते हैं। सभी वनस्पतियां एवं अन्न आदि भी मौसम आदि नियमों के अनुसार व्यवहार करते हैं। संसार में यह नियमबद्धता ईश्वर की देन है। जड़ पदार्थों में अपना कोई नियम नहीं होता। वह किसी चेतन सत्ता के आश्रित होते हैं। रसोई में भोजन बनाने का सभी सामान होने पर भोजन स्वयं तैयार नहीं हो जाता। इसके लिये एक कुशल पाककला निपुण व्यक्ति की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार से सृष्टि की उत्पत्ति व इसका पालन भी बिना चेतन सत्ता ईश्वर के नहीं होता। मनुष्य का ज्ञान व शक्ति इतनी अल्प है कि वह इस सृष्टि की रचना की भिन्न-भिन्न स्थितियों को भी भली प्रकार से नहीं जान सकती। परमात्मा ने कैसे इन सूर्य व अन्य ग्रह उपग्रहों को प्रकृति नामक सूक्ष्म जड़ पदार्थ से बनाया, कैसे उन सूक्ष्म कणों वा परमाणुओं को नियमों के अनुसार घनीभूत किया और उन्हें आकाश में उनके स्थान पर रखकर उनमें अपनी धुरी व अन्य ग्रहों की परिक्रमा आरम्भ करायी, यह कैसे सम्भव हुआ होगा, हम इसका ठीक से अनुमान भी नहीं कर सकते? गुरुत्वाकर्षण के नियम के अनुसार दो पदार्थों में आपस में आकर्षण का बल काम करता है। हमारा अनुमान है कि यदि ईश्वर न होता तो यह सूर्य व अन्य ग्रह कदापि अस्तित्व में नहीं आ सकते थे। बिना पूर्ण रूप से बने यह अपनी-अपनी धूरी पर कैसे घूमते और कैसे परिक्रमा करते। ऐसा न होने पर आकर्षण शक्ति के कारण यह आपस में दूर दूर नहीं रह सकते थे। आकर्षण बल के कारण यह टकराकर नष्ट हो सकते थे। ईश्वर ने आश्चर्य से पूर्ण काम को सृष्टि के आरम्भ में किया। समुद्र की विशालता, उसकी गहराई को देखकर व इसकी उत्पत्ति पर विचार कर बुद्धि निष्क्रिय व अनिर्णय की स्थिति को प्रायः होती है। इस प्रकार ईश्वर निश्चय ही विलक्षण सिद्ध होता है।
हम यहां ऋग्वेद के मन्त्रों की कुछ प्रार्थनायें भी प्रस्तुत कर रहे हैं। ईश्वर सब को उपदेश करता है कि हे मनुष्यों! मैं ईश्वर सब के पूर्व विद्यमान था और सब जगत् का पति वा स्वामी हूं। मैं सनातन जगत का निमित्कारण और सब धनों का विजय करनेवाला और दाता हूं। मुझ ही को सब जीव जैसे पिता को सन्तान पुकारते हैं वैसे पुकारें। मैं सब को सुख देनेहारे जगत् के लिये नाना प्रकार के भोजनों का विभाग पालन के लिये करता हूं। मैं परमैश्वर्यवान् सूर्य के सदृश सब जगत् का प्रकाशक हूं। कभी पराजय को प्राप्त नहीं होता और न कभी मृत्यु को प्राप्त होता हूं। मैं ही जगत् रूप धन का निर्माता हूं। सब जगत् की उत्पत्ति करने वाले मुझ ही को जानो। हे जीवो! ऐश्वर्य प्राप्ति के यत्न करते हुए तुम लोग विज्ञानादि धन को मुझ से मांगो और तुम लोग मेरी मित्रता से अलग मत होओ। हे मनुष्यो! मैं सत्यभाषणरूप स्तुति करनेवाले मनुष्य को सनातन् ज्ञानादि धन को देता हूं। मैं ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रकाश करनेहारा और मुझ को वह वेद यथावत् कहता उस से सब के ज्ञान को मैं बढ़ाता हूं। मैं सत्पुरुष का प्रेरक यज्ञ करनेहारे को फलप्रदाता और इस विश्व में जो कुछ है उस सब कार्य का बनाने और धारण करनेवाला हूं। इसलिये तुम लोग मुझ को छोड़ किसी दूसरे को मेरे स्थान में मत पूजो, मत मानो और मत जानो।
ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वह एकमात्र ईश्वर सब वेद भक्तों एवं सत्कर्म करने वालों का प्रेरक एवं फल प्रदाता है। वह सुख, आनन्दयुक्त एवं कल्याणप्रद है। दुष्टों, मिथ्याचारियों व अधमपुरुषों को दण्ड देने व रुलाने वाला है। वह संसार के सब पदार्थों में ओतप्रोत है। हमारी आत्मा के भीतर व बाहर विद्यमान है। वह हमारे सब विचारों व कर्मों का साक्षी है और उनका फल प्रदाता, सज्जनों को सुख देने सहित अशुभ कर्मों को करने वालों को दण्ड प्रदाता भी है। हमें उसकी व्यवस्था व नियमों से डर कभी कोई अपकर्म या पाप नहीं करना चाहिये। हम वेदाध्ययन, वेदानुकरण एवं वेदाचरण कर अपने जीवन को श्रेष्ठ बनायें। देश व समाज हित के कार्यों में सदैव तत्पर रहे। न भ्रष्टाचार करें और न भ्रष्टाचार करने वालों को किसी प्रकार की सहायता व सहयोग प्रदान करें। वैदिक धर्म सहित सभी धर्मो से भी बढ़कर देश है। देश एवं धर्म दोनों परस्पर पूरक हैं। हमें दोनों के लिये ही बलिदान होने की भावना रखनी चाहिये। ईश्वर को हमें उसकी रचनाओं सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अन्न, जल, वायु, फल-फूल आदि में उसकी क्रियाओं व नियमों को अनुभव कर उसका साक्षात्कार करना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य