भाजपा का गोवा सम्मेलन पूर्ण हो गया है, इसने वही संकेत और संदेश दिये हैं जो इससे उम्मीद की जाती थी। भाजपा नेता आडवाणी अपनी जगहंसाई करा गये, परंतु राजनाथ सिंह अपने स्टैंड पर मजबूत रहे, जैसा कि उन्होंने विगत 14 अप्रैल को जब मेरी उनसे मुलाकात हुई थी तो उसमें इस विषय पर अपना स्पष्ट संकेत दे दिया था। यद्यपि मैं उस संकेत को मात्र संकेत मान रहा था परंतु अब उन्होंने वैसा ही कर दिखाया है तो उन्होंने भाजपा में ‘राज’ और ‘नाथ’ दोनों के सही अर्थ स्थापित कर दिये हैं इसके लिए वह धन्यवाद के पात्र हैं। फिर भी आडवाणी जी जैसे मंझे हुए राजनेता ने जो कुछ किया है उससे पार्टी की फजीहत अवश्य हुई है। उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से अपने उत्तराधिकारी का चयन न करने में जो असहयोग दिया वह उनके लिए भी उचित नही कहा जा सकता।
जब कोई ऐसी अप्रत्याशित घटना (जो किसी सीमा तक शर्मनाक हो) हो जाती है तो जो व्यक्ति उस घटना के लिए जिम्मेदार होता है उससे लोग अक्सर ‘डूब मरने’ का ताना देते हैं। इस डूब मरने को सामान्यतया लोग पानी में डूब कर मर जाने से जोड़कर देखते हैं, परंतु वास्तव में इसका अर्थ यह नही है। इसके पीछे बहुत अच्छी बात छिपी है। घटना, दुर्घटना पर एकदम डूब मरने की सजा सुनाना वैसे भी अच्छी बात नही है-तब तक जब तक कि घटना दुर्घटना की पड़ताल न कर ली जाए और वास्तविक व्यक्ति के दोष का पता न लगा लिया जाए। इसीलिए हर संवेदनशील और विवेकशील व्यक्ति किसी को भी दण्डित करने से पूर्व अपनी न्यायप्रियता का प्रमाण देते हुए उसे सुनवाई का अवसर अवश्य देता है। तब ‘डूब मरने’ के ताने के अर्थों पर चिंतन करना अनिवार्य हो जाता है। डूबने के अर्थ पानी में डूबने से ही नही हैं, इसके अर्थ कुछ और भी हैं। हमारा हृदय हमारे भीतर उठने वाले भावों व विचारों का साक्षी होता है। मन में बड़ी तेजी से विचारों का प्रवाह चलता उफनता रहता है, बहुत कम विचार ऐसे होते हैं जिन्हें हम पकड़ पाते हैं और उन पर कार्य भी करना आरंभ करते हैं। परंतु सामान्य रूप से जैसे विचार अधिक उठते हैं वैसे ही हमारी प्रवृत्ति बन जाती है, यदि विचारों में सात्विकता है तो हम सात्विक प्रवृत्ति के बन जाते हैं और यदि विचारों में दुष्टता है, तामसिकता है तो हम तामसिक प्रवृत्ति के बन जाते हैं। जैसी प्रवृत्ति होती है वैसी ही चेहरे की भाव भंगिमा बन जाती है। इस हृदय सागर में जिसमें भावों और विचारों का अनंत प्रवाह प्रवाहमान रहता है, इसकी प्रवाहमानता जितनी व्यापक होती है, तेज होती है, उतनी ही गहरी भी होती है। इसीलिए हृदय सागर को अनंत गहराई वाला माना गया है। इसमें कितने ही भावों की और कितने ही विचारों की तह पर तह लगी रहती है। जब किसी व्यक्ति से कोई भूल होती है, या भयंकर गलती हो जाती है, तो वह सामान्यतया अपना अंतर्मन्थन करता है, अन्तरावलोकन करता है, खुद की पड़ताल करता है, समीक्षा करता है। परीक्षा करता है कि इस गलती में मेरा दोष कितना है? संसार के अनाड़ी लोग अपना आत्मनिरीक्षण, पड़ताल, समीक्षण, परीक्षण नही करते हैं, वो सदा दूसरों पर गलतियों को मढ़ने का प्रयास किया करते हैं, किंतु समझदार लोग घटना का एक पक्ष होने के नाते अपनी पड़ताल अवश्य करते हैं। उनका यह आत्मनिरीक्षण का भाव ही हृदय सागर में डूब जाना है। समझदार लोग जब हृदय सागर में डूबते हैं और वापस लौटकर आते हैं तो अपने हाथ में अपनी गलती का मोती जरूर ढूंढकर लाते हैं। हर गंभीर व्यक्ति अपनी पड़ताल में ही अपनी गलती के मोती को ढूंढ़ लेता है, लेकिन अहंकारी और दम्भी लोगों को कुछ देर से अपनी गलती का अहसास होता है। ऐसे लोग कई बार एक गलती से दूसरी गलती के भंवर जाल में फंसकर रह जाते हैं, और उनके चारों ओर गलतियों का ऐसा मकड़जाल तैयार हो जाता है कि उनकी प्रतिभा उसी मकड़जाल में दम तोड़ने के लिए अभिशप्त सी हो जाती है। इसलिए उस चक्र में या मकड़ जाल में फंसने से विवेकशील लोग बचते हैं। क्योंकि उन्हें पता होता है कि यदि इस मकड़जाल पर ध्यान दिया तो जीवन का ध्येय हाथ से जाता रहेगा। उन्हें ज्ञात होता है कि जीवन छोटा है और लक्ष्य बड़ा है। इसलिए अपने चारों ओर के परिवेश में उठने वाले तामसिक और जागतिक झंझावातों पर वह कम ध्यान देते हैं और हृदय के आलोक में बैठे अपने जीवन ध्येय की शांतमना साधना करते हैं। अपनी वाणी ता तप करते हैं और आगे बढ़ते हैं। जीवन ध्येय का दीखते रहना साधना की सफलता है और जब जीवन ध्येय मानसिक और जागतिक झंझावातों में उलझ जाए या ध्यान उससे भटक जाए तो यह अवस्था साधना ही असफलता है। इसीलिए गंभीर और सयाने लोग किसी घटना-दुर्घटना के समय दोषी व्यक्ति से डूब मरने की बात कहते हैं कि अपने आप में उतर जा, अपने हृदय में उतर जा, और अपने आप से ही अपने आप पूछ कि जो कुछ हुआ है उसमें तेरा दोष क्या है? अपने हृदय मंदिर में बैठे अपने चेतन देवता आत्मतत्व से पूछ कि मेरा जीवन ध्येय क्या था और यह क्या हो गया? यदि सचमुच उससे पूछा गया तो यह भी सत्य है कि वहां से जो कुछ जवाब मिलेगा वह एकदम सही होगा। उस सही उत्तर को समझकर बाहर आकर अपनी गलती बिना किसी पूर्वाग्रह के और बिना किसी मताग्रह के स्वीकार कर लो। तब आपको पता चल जाएगा कि घटना से पहले जो मैं था वह अब नही रहा। जो होकर ना रहे वह अवस्था ही तो मर जाने की है। अब दुष्टता और दानवता काफूर हो गयी है और अब केवल पवित्रता व मानवता का बसेरा होकर रह गया है। यही अवस्था डूब मरने की है। डूब मरने के मुहावरे का वास्तविक अर्थ यही है।
आडवाणी भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं, उन्होंने जिन्ना की मजार पर जाकर जो गलती की थी उससे भी बड़ी गलती उन्होंने गोवा सम्मेलन में उपस्थित न होकर तथा इस्तीफे देकर की है। उनके लिए अब भी समय है कि पार्टी की जो फजीहत उन्होंने कराई है उससे उबारने के लिए वह स्वयं का अवलोकन करें, अंतरावलोकन करें, अंतर्मंथन करें कि उन्होंने जो कुछ किया है वह पार्टी हित में कितना उचित है? यह सच है कि पार्टी को सींच सींचकर बड़ा करने में उनका विशेष योगदान रहा है। परंतु आज जब पार्टी के पास सत्ता में फिर से आने के लिए मोदी जैसा चेहरा है तो आडवाणी के लिए उचित यही था कि वह गोवा सम्मेलन में उपस्थित होकर मोदी के नाम का प्रस्ताव स्वयं रखते, और पार्टी के बुजुर्ग नेता की हैसियत से सभी पार्टी कार्यकर्ताओं को निर्देशित करते कि वो सभी मोदी के पीछे लामबंद हो जाएं। इस अवसर को चूककर आडवाणी ने जो गलती की है उसका खामियाजा पार्टी भुगतेगी। फिर भी उन जैसे नेता से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने हृदय में झांकेंगे और ईमानदारी से यह देखेंगे कि जो पौधा उन्होंने लगाया था वह उन्हीं के सामने मुरझाने तो नही लगा है? वे स्वयं सयाने हैं इसलिए वह डूबेंगे अपने हृदय सागर में और गलती के उस मोती को पकड़कर लाएंगे जिसे पकड़ते ही पार्टी सजीव हो उठेगी। गोवा सम्मेलन हो गया है इसका संकेत दूर दूर तक जाएगा, लेकिन आडवाणी की समझबूझ गोवा के नकारात्मक संदेशों और संकेतों को अभी भी ऐसा मोड़ दे सकती है जिससे पार्टी इस झटके को झेलकर सत्ता सुंदरी के वरण के लिए अपने आपको तैयार कर सकती है।
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लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।