ओ३म्
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हमारा यह संसार एवं प्राणी जगत ईश्वर की विशिष्ट रचना है। यह संसार परमात्मा ने अपना कोई प्रयोजन पूरा करने के लिये नहीं अपितु जीवात्माओं का सुख एवं कल्याण करने की भावना से बनाया है। जीवात्मा चेतन तथा अल्पज्ञ सत्ता है। जीवात्मा अनादि व नित्य होने से संसार में सदा से है और सदा रहेगीं। इसका कभी अभाव नहीं होगा। किसी भी सत्तावान पदार्थ का अभाव कभी नहीं होता और न ही अभाव से कुछ उत्पन्न ही होता है। जीवात्मा अनादि काल से जन्म लेता आ रहा है और अनन्त काल तक जो कभी समाप्त नहीं होना है, इसी प्रकार से जन्म व मरण के बन्धन में फंसा रहेगा यदि इसने परमात्मा प्रदत्त बुद्धि सहित मन, चित्त एवं अहंकार, इस अन्तःकरण चतुष्टय, का सदुपयोग करते हुए ज्ञान प्राप्ति व सद्कर्मों का आश्रय न लिया। जो मनुष्य अपनी आत्मा, मन व बुद्धि आदि का सदुपयोग करने सहित वेदों के स्वाध्याय एवं विद्वानों व आप्त पुरुषों के ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए वेदविहित कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, वह अपनी आत्मिक व सामाजिक उन्नति करते हुए देश व समाज सहित समस्त संसार का उपकार व कल्याण करते हैं। अधिकांश लोग ऐसे नहीं होते। वह अज्ञानी रहकर और मत-मतान्तरों के अज्ञानी व स्वार्थी आचार्यों द्वारा प्रचारित अविद्यायुक्त मान्यताओं को बिना विचारे व मनन किये उसका अन्धानुकरण करते हैं जिससे वह अपनी व देश समाज की हानि करते हैं। वेद मनुष्य को विवेकशील बनाते हैं जिससे मनुष्य किसी अज्ञानी व स्वार्थी मनुष्य के छल, बल, स्वार्थ सहित किसी कुत्सित योजनाओं का शिकार न बने। वेद किसी मनुष्य का शोषण करने, किसी पर अन्याय करने एवं लोभ से किसी दूसरे की किसी वस्तु पर अधिकार करने की प्रेरणा नहीं करते जबकि मत-मतान्तरों में वेद की इस शिक्षा से विपरीत शिक्षायें पायी जाती हैं और इतिहास से भी इनकी पुष्टि होती है।
माता-पिता, आचार्य तथा देश के शासक राजा व राजनेताओं का कर्तव्य है कि वह देश के सभी बालक बालिकाओं में सद्ज्ञान से युक्त शिक्षा के प्रचार व प्रसार में अपना सक्रिय योगदान करें। भारत में इसका उल्टा व्यवहार देखा जाता है। यहां बच्चों को ईश्वर प्रदत्त समस्त विषयों के सत्य ज्ञान से युक्त वेदों के आधार पर नैतिक व धर्म के मूल तत्वों सत्याचरण, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान, परोपकार, माता-पिता की सेवा, आचार्यों का सम्मान, देशभक्ति, राम, कृष्ण आदि पूर्वजों का सम्मान व शौर्य के इतिहास की शिक्षा एवं देश हित के कार्यों की शिक्षा दिये जाने का कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी व धर्मनिरपेक्ष लोग विरोध करते हैं। बहुसंख्यक अपने मत की देश हितकारी बातों की शिक्षा विद्यालयों में नहीं पढ़ पाते और न पढ़ा सकते हैं। अल्पसंख्यक समुदाय के लोग अपनी मनचाही कुछ भी बातें अपने विद्यालयों में पढ़ा सकते हैं परन्तु बहुसंख्यक रामायण एवं महाभारत विषयक इतिहासिक ग्रन्थ नहीं पढ़ा सकते। इन कारणों से बच्चों का उचित बौद्धिक व मानसिक विकास नहीं हो पाता। आज का पढ़ा लिखा युवा इस संसार को बनाने वाले ईश्वर सहित अपनी आत्मा के स्वरूप व उसके जन्म लेने के प्रयोजन तक से अनभिज्ञ है। भारत में आधुनिक शिक्षा की यह सबसे बड़ी कमी है। यह ऐसा ही है जैसे कि किसी सन्तान को उसको अपने माता-पिता का सद्ज्ञान प्राप्त करने से वंचित किया गया हो। ईश्वर न केवल हमारा अपितु सभी मत-मतान्तरों के लोगों का भी माता-पिता व आचार्य है। हमारे देश के जिन बुद्धिजीवियों ने लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति से अंग्रेजी स्कूलों व विदेशों में जाकर वहां ईसाई दृष्टिकोण पर आधारित शिक्षा का अर्जन किया है, उसे ही उचित बताते हैं। वस्तुतः क्या यह उचित है? देश के सभी बच्चों को इस सृष्टि के रचयिता व पालक सर्वेश्वर सृष्टिकर्ता ईश्वर का सत्यस्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभावों की शिक्षा के साथ मनुष्य के परम कर्तव्य ईश्वर की उपासना एवं उपासना की सही विधि का अध्ययन कराया जाना चाहिये।
देश में प्रचलित जिन मतों के पास इस विषय का सत्य व यथार्थ ज्ञान नहीं है, वह यह ज्ञान नहीं करा सकते परन्तु सृष्टि की आदि में ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान में इन विषयों का विस्तृत वर्णन मिलता है जो सृष्टिक्रम के सर्वथा अनुकूल एवं तर्क एव युक्तियों से भी प्रमाणित है। आश्चर्य यह है कि हमारे आर्यसमाज के नेता व विद्वान अपने विद्यालयों में वेदों की शिक्षा के लिये कभी किसी प्रकार का आन्दोलन नहीं करते। देश में देश विरोधी व अच्छी बातों का दमन करने तक के लिये आन्दोलन किये जाते हैं, उनकी टीवी चैनलों पर खूब चर्चा होती है। दोनों पक्ष अपने-अपने विचार रखकर जनता को सही स्थिति बताने के साथ कमजोर पक्ष वाले लोग व दल भ्रमित करने का प्रयास करते हैं। इस स्थिति में मनुष्य को सच्चा मनुष्य बनाने व जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से उसे परिचित कराकर इन पदार्थों को प्राप्त कराने वाली शिक्षा का विद्यालयों में न दिया जाना चिन्ता व दुःख का विषय है। सत्य के प्रचार व आवश्यक विषयों के अध्ययन व अध्यापन में किसी भी प्रकार का बन्धन व प्रतिबन्ध उचित नहीं होता। अतः वर्तमान व्यवस्था में हमारे बालकों व युवाओं तक सृष्टिकर्ता ईश्वर व मनुष्य की आत्मा का सत्य ज्ञान नहीं पहुंच रहा है। कुछ शक्तियां व देश की प्रचलित व्यवस्था व उसके कुछ विधान उन विषयों के अध्ययन कराने में सहयोगी नहीं हैं। इसका सुधार किया जाना चाहिये और इसके लिये वेद के अनुयायियों को अपनी आवाज सरकारी नेताओं व कानून बनाने वाले लोगों तक पहुंचानी चाहिये।
माता-पिता का कर्तव्य है कि वह अपनी सन्तानों की बुद्धि का पूर्ण विकास करने के लिये उन्हें वेदों, उपनिषदों व दर्शनों आदि की शिक्षा देने की व्यवस्था करें। स्कूलों में इन्हें पढ़ाने की व्यवस्था नहीं है, ऐसी स्थिति में घर पर या आर्यसमाज में अपनी सन्तानों को भेज कर इन विषयों का ज्ञान कराना चाहिये। माता-पिताओं को स्वयं भी स्वाध्याय से इन विषयों का आवश्यक ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा से मनुष्य कलर्क, सरकारी अधिकारी, आईएएस, आईपीएस, डाक्टर, इंजीनियर, प्रापर्टी डीलर, बिजनेसमैन, श्रमिक, राजनेता, अध्यापक, अभिनेता तथा क्रिकेट व अन्य खेलों का खिलाड़ी तो बन सकता है परन्तु ईश्वर व आत्मा का ज्ञाता तथा ईश्वर का साक्षात्कार कराने वाली योग विद्या, उपनिषदों एवं दर्शनों के ज्ञान का अधिकारी विद्वान नहीं बन सकता। इसके लिये तो माता-पिता को जन्म व शैशव काल से ही अपनी अपनी सन्तानों को सन्ध्या, यज्ञ, माता-पिता व वृद्धों की सेवा, पशु प्रेम, अतिथि-सेवा सहित परोपकार, दान, स्वाध्याय, योगाभ्यास, सच्चे विद्वानों की संगति के संस्कार व शिक्षा देनी होगी। ऐसा करने से ही चरित्रवान, देशभक्त तथा समाज के प्रति दायित्व अनुभव करने वाली युवा पीढ़ी का निर्माण हो सकता है। हमारे देश के राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य, शंकर तथा सभी ऋषि-मुनि वेद, उपनिषद, दर्शन एवं ज्ञान-विज्ञान को पढ़कर ही श्रेष्ठ मानव वा महापुरुष बने थे जिन्होंने देश व समाज की सेवा की और अक्षय यश प्राप्त किया। इन महापुरुषों ने आज के लोगों के समान धनधान्य से भरपूर सुख-सुविधाओं से युक्त बड़े बड़े आलीशान निवासों का सुख तथा कार व हवाई जहाज की यात्रा का सुख भले ही न भोगा हो, परन्तु इन महापुरुषों ने श्रेष्ठ मानवीय गुणों को धारण कर समाज व देश को एक नई दिशा दी थी। आज भी सहस्रो व करोड़ो लोग इनके चरणों में अपना शीश नमन करते हैं। आज के धनी व सम्पन्न लोग इन महापुरुषों के समान नहीं हो सकते।
मनुष्य के पास धन उतना ही पर्याप्त होता है जिससे उसकी आवश्यकतायें पूर्ण हो जायें। धन का अधिक मात्रा में परिग्रह उचित नहीं होता। जीवन को सुविधाओं का दास बनाना धन का उद्देश्य नहीं हो सकता। अच्छे कार्यों से कमाया गया धन दूसरे अभावग्रस्त लोगों को सुख पहुंचाने सहित पीड़ितों की सेवा में व्यय होना उचित होता है। आज के लोग ऐसे काम करते हुए कम ही दीखते हैं। आज के लोग काला धन अर्जित कर उसे विदेशी बैंको में जमा करने की प्रवृत्ति भी रखते हैं जिससे उनकी आने वाली अनेकानेक पीढ़ियां बिना कुछ काम धाम करे सुख का जीवन व्यतीत कर सकें। यह विचार व भावना किसी ज्ञानी व विद्वान मनुष्य की न होकर किसी अज्ञानी व विकृत मस्तिष्क की देन ही कही जा सकती है। समय ने करवट ली है। आज देश के भ्रष्ट लोगों को देश विदेश में सम्मान से जीना नसीब नहीं है। वह जेलों में हैं या जेल के चक्कर काट रहे हैं। ऐसा ही होना भी चाहिये। ऐसा होने पर ही लोग डर से बुरे कामों का त्याग कर सकते हैं। नियम जितने कमजोर होते हैं, वहां उतनी ही अधिक अव्यवस्थायें होती हैं। जिन देशों में कठोर नियम हैं, वहां अपराधों की संख्या कम होती हैं। भारत में देश के प्रधानमंत्री जी से देश की युवा पीढ़ी यही आशा रखती है कि वह देश के आर्थिक शत्रुओं को प्रताड़ित करें जिससे इस देश के निर्धन व निर्बल लोगों को भी जीने के लिये न्यूनतम साधन दो समय सूखी रोटी सहित वायु व जल आदि उपलब्ध हो सके। इसके लिये देश के लोगों को संगठित होकर व्यवस्था का समर्थन करना होगा। यह कार्य होगा व नहीं, कहा नहीं जा सकता। ईश्वर सत्य के आदर्श रूप हैं। वह अवश्य इसमें सहायक होंगे। इसके लिये हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं।
परमात्मा ने सभी प्राणियों को सुखी जीवन व्यतीत करने के लिये मनुष्यादि नाना प्रकार के शरीर दिये हैं। मनुष्य को शरीर के साथ बुद्धि, मन, मस्तिष्क, चित्त सहित पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कर्मेन्द्रियां आदि भी प्रदान की हैं। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता, आचार्यों, स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन एवं मनन से अपने ज्ञान को बढ़ाये और किसी भी कुत्सित इरादों वाले मनुष्यों व संगठनों द्वारा बौद्धिक या मानसिक शोषण का शिकार न हो। ऐसा करने से उसकी स्वयं की हानि होने सहित देश व समाज को भी हानि होती है। देश की व्यवस्था को ध्यान देना चाहिये कि देश में किसी व किन्हीं देशी-विदेशी राजनीतिक, सामाजिक व साम्प्रदायिक संगठनों से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लोग देश के लोगों को गुमराह कर उन्हें देश व समाज विरोधी कार्यों में प्रेरित न कर सकें। ऐसा जारी रहने पर देश एवं देश का प्राचीन धर्म एवं संस्कृति सुरक्षित नहीं रह सकती हैं। वेद ही एकमात्र ऐसे ग्रन्थ हैं जो विश्व के लोगों को ‘‘वसुर्धव कुटुम्बकम्” का सन्देश देने के साथ मानवता एवं सबके कल्याण का सन्देश देते हैं। भारत ही वह देश है जिसने कभी किसी देश पर कब्जा नहीं किया, किसी देश को धोखा नहीं दिया, किसी देश मे जाकर वहां के लोगों का धर्मान्तरण नहीं किया, किसी के धर्मस्थलों को नहीं तोड़ा, किसी की मां-बहिन-बेटी का अपमान नहीं किया। अतः भारतीय संस्कृति को देश देशान्तर में फैलना चाहिये। इसी से विश्व में प्रेम व सद्भाव का विस्तार हो सकता है। सभी लोग सच्चे ज्ञानी बने, वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करें, सत्यासत्य का विवेचन करने के लिये सत्यार्थप्रकाश पढ़े तथा सत्य मार्ग पर चलने का प्रण लें तभी हमारा देश व समाज बचेगा। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत