ओ३म्
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वेदों का आविर्भाव सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा से हुआ था। सृष्टि के आरम्भ में न कोई भाषा थी न ही ज्ञान। ज्ञान भाषा में ही निहित होता है। मनुष्यों की प्रथम उत्पत्ति से पूर्व भाषा व ज्ञान का होना असम्भव व अनावश्यक था। भाषा तो मनुष्यों की उत्पत्ति के बाद ही हो सकती थी। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों व अन्य प्राणियों की उत्पत्ति उसी अनादि, नित्य, चेतन, आनन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान सत्ता से हुई जिसने कि इस सृष्टि वा समस्त ब्रह्माण्ड को सप्रयोजन बनाया था। ईश्वर का सृष्टि को बनाने का प्रयोजन अपनी अनादि प्रजा चेतन तथा अल्पज्ञ जीवों को उनके पूर्व कल्प के भोग करने से रह गये कर्मों का फल देना था। यदि वह ऐसा नहीं करता तो सभी जीव अन्धकार के आवरण में सदा-सदा के लिये ढके रहते। वह मनुष्य आदि जन्म लेकर सुख व दुःख की अनुभूति न कर पाते। परमात्मा आनन्दस्वरूप है। उसे अपने लिये तो सुख व आनन्द की आवश्यकता किंचित भी नहीं है। सुख व आनन्द की आवश्यकता केवल जीव आत्माओं को हुआ करती है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये तीन अनादि व नित्य सत्ताओं ईश्वर, जीव व प्रकृति में से ईश्वर ने जड़ गुणों वाली त्रिगुणात्मक प्रकृति से इस कार्य जगत अर्थात् पृथिवी, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह एवं लोक-लोकान्तरों को बनाया है।
यह सुनिश्चित सिद्धान्त है कि ईश्वर सर्वज्ञ अर्थात् सभी प्रकार के ज्ञान से युक्त है। मनुस्मृति में उसे सर्वज्ञानमय कहा है। चेतन सत्ता में आनन्द का मुख्य आधार ज्ञान ही होता है। जिस जीव व मनुष्य को ईश्वर, जीव व प्रकृति से सम्बन्धित जितना अधिक सद्ज्ञान होता है, वह उतना ही अधिक सुखी व आनन्दित होता है। अज्ञानी मनुष्य तो अपना जीवन भी भली प्रकार से व्यतीत नहीं कर पाता। जीवनयापन के लिये भी मनुष्य को ज्ञान चाहिये और इसके साथ कृषि, गोपालन, वस्त्र बनाने के कार्य तथा निवास के लिये कुटिया बनाने के लिये भी ज्ञान चाहिये। बिना ज्ञान के मनुष्य भाषा का प्रयोग भी ठीक प्रकार से नहीं कर पाता है। मनुष्य जीवन ज्ञान से ही चलता है। जो मनुष्य ज्ञानी होते हैं वह दूसरे चालाक व चतुर लोगों के अन्याय व शोषण से बच जाते हैं। जो ज्ञानी होते हैं वह अपने ज्ञान से अपने से कम ज्ञान वालों को वार्ता, संवाद, विचार-विमर्श, तर्क-वितर्क आदि के द्वारा सत्य को स्वीकार कराने के लिये प्रयत्न व संघर्ष करते हैं। विजय उसी पक्ष की होती है जहां सत्य ज्ञान होता है और उसके लिये आवश्यक मात्रा व उससे अधिक पुरुषार्थ किया जाता है।
सृष्टि के आरम्भ में जगतकर्ता ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाकर इसमें वनस्पतियों सहित प्राणी जगत की उत्पत्ति की। संसार में जितने भी प्राणी पाये जाते हैं उन सबके शरीरों में एक चेतन जीवात्मा होता है जो ईश्वर की व्यवस्था से अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का फल भोगने के लिये शरीर में आता व भेजा जाता है। मनुष्य योनि जीवात्मा को तभी मिलती है जब उसके पाप व पुण्य कर्मों के खाते में पुण्य अधिक तथा पाप कम हों। सृष्टि के आरम्भ में भी जिन मनुष्यों को जन्म दिया गया था वह कर्मानुसार ही दिया गया था। उनको भाषा व ज्ञान की आवश्यकता थी। सृष्टि में बच्चे वही भाषा जानते व सीखते हैं जो उनकी माता व पिता उन्हें सिखाते हैं। सृष्टि की आदि में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों के माता-पिता न होने से उनका जन्म व पालन पोषण परमात्मा व उसकी व्यवस्था से हुआ था। परमात्मा के सर्वज्ञानमय होने से उसकी अपनी एक भाषा ‘‘वैदिक संस्कृत” है। इसी भाषा में वह मनुष्यों को आवश्यक एवं हितकार ज्ञान देता है। इस ज्ञान को वेद कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने चार मनुष्य-ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। वेदों का ज्ञान पूर्ण ज्ञान है। इसमें भाषा, गणित, विज्ञान, ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्यस्वरूप मनुष्यों के लिये करणीय पंचमहायज्ञों सहित सभी प्रकार का व्यवहारिक ज्ञान है।
ऋषि दयानन्द ने चारों वेदों की परीक्षा कर एवं अपने ऋषित्व एवं योग की सिद्धियों के आधार पर घोषणा की है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। ऋषि दयानन्द की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, इस सिद्धान्त को विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। ऋषि दयानन्द के अनुयायी अनेक विद्वानों ने वेद के सर्वज्ञानमय होने के समर्थन में अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनसे भी वेदों की महत्ता का ज्ञान होता है। मत-मतान्तरों के ग्रन्थों के विषय में इस प्रकार के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होते। सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध तक के 1.96 अरब वर्षों में वेद न केवल भारत में अपितु पूरे विश्व में प्रतिष्ठित थे। सारे संसार में धर्म व कर्म का आधार वेद ज्ञान अथवा भारत के वेदों के ज्ञानी ऋषियों के वचन ही हुआ करते थे।
महाभारत के बाद वेदों की अप्रवृत्ति से सारे संसार में अन्धकार फैल गया जिससे देश देशान्तर में अन्धकार को दूर करने के लिये वहां के लोगों ने अपनी अल्प मति के अनुसार अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों का प्रचलन किया। ज्ञान की दृष्टि से सभी मत-मतान्तरों की पुस्तकें अपूर्ण हैं और इसके साथ ही उनमें अनेक अविद्या से युक्त बातें हैं। ऋषि दयानन्द इसका दिग्दर्शन अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में किया है। वेद, उपनिषद और दर्शन सहित विशुद्ध मनुस्मृति के समान किसी मत-मतान्तर का पुस्तक नहीं है। इनकी मत-मतान्तरों के ग्रन्थों से कोई तुलना नहीं है। यह कहानी किस्सों के ग्रन्थ न होकर ज्ञान के ग्रन्थ हैं। यही कारण था कि विदेशी लुटेरों व शासकों ने भारत में यहां के धार्मिक लोगों पर अमानवीय अत्याचार करने के साथ यहां के वेद एवं वेदादि ज्ञान युक्त पुस्तकों को जला कर नष्ट किया। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि उनके अपने पास वेदों के समान ज्ञान की पुस्तकें नहीं थी। उन्हें ज्ञान से ईष्र्या थी। उन्हें अपने मत और मत की पुस्तकों का प्रचार करना था। इस कारण उन्होंने हमारे देश के समुद्र के समान विशाल ज्ञान के भण्डार की पुस्तकों को नष्ट किया। जिन लोगों ने यह कार्य किये उनकी निन्दा ही की जा सकती है। हमारे देश से अनेक ग्रन्थों को संसार के अनेक देशों के लोग लेकर भी गये। आज विश्व के अनेक पुस्तकालयों में भारत से ले जायी गई पाण्डुलिपियां उपलब्ध हैं। भारत के अनेक पुस्तकालयों में भी अनेक पाण्डुलिपियां उपलब्ध हैं। हमें यह भी अनुभव होता है कि हमारे देश के लोग देश में उपलब्ध सभी प्राचीन पाण्डुलिपियों का अध्ययन कर उनका उपयोग नही ले पा रहे हैं। यह आश्चर्य की बात है। विश्व के यदि किसी अन्य देश में यह ग्रन्थ होते तो अवश्य ही वहां के लोग इनका अध्ययन कर इनसे उपयोगी ज्ञान प्राप्त करते और लाभान्वित होते।
सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध तक के 1.96 अरब वर्षों में भारत में ऋषि परम्परा प्रचलित रही। इस देश के आर्य राजाओं का विश्व के माण्डलिक राजाओं पर चक्रवर्ती राज्य हुआ करता था। इस कारण देश व विश्व में सर्वत्र वेदों का प्रचार रहा। महाभारत युद्ध के बाद देश में अव्यवस्था उत्पन्न हुई। वेदों का प्रचार प्रसार व अनुसंधान आदि कार्य बाधित हुए। गुरुकुल प्रणाली में भी अवरोध उत्पन्न हुआ। इन कारणों से वेदाध्ययन का समुचित व्यवहार न होने से समाज में अनेक अन्धविश्वास उत्पन्न हुए। अग्निहोत्र यज्ञ का एक नाम अध्वर है। इसका अर्थ होता जिसमें किंचित हिंसा न की जाये। इसके विपरीत अविद्या व अज्ञान तथा प्रमाद के कारण यज्ञों में गौ, भेड़, अश्व आदि पशुओं के मांस की आहुतियां तक दी जाने लगी। यह कार्य अविद्या के कारण हुआ। इसका परिणाम ही कालान्तर में बौद्ध व जैन मतों का आविर्भाव हुआ। इन दोनों मतों में आवश्यकता से अधिक अहिंसा का समर्थन किया गया। जड़ मूर्तिपूजा भी इन्हीं मतों से देश में चली। कालान्तर में अवतारवाद की कल्पना, फलित ज्योतिष के मिथ्या सिद्धान्त, मृतक श्राद्ध, स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन व वेद-श्रवण तक से वंचित किया गया। समाज से गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था को हटा कर जन्मना जाति व्यवस्था प्रचलित की गई। इन सब कारणों से देश में अविद्या फैलने से अन्धविश्वास उत्पन्न हुए और समाज असंगठित होकर अत्यन्त दुर्बल हो गया। इसी कारण से विदेशी विधर्मियों से पराजित होकर सनातन वैदिक धर्मियों का सब कुछ लूटा गया। आज भी आर्य हिन्दू जाति पर संकट के बादल छाये हुए हैं और हमारे धर्म के शीर्ष लोग सभी खतरों से असावधान एवं बेखबर हैं। यह सारी स्थिति इस लिये उत्पन्न हुई कि जिनको वेदों का अध्ययन व उनके सत्य अर्थों का अनुसंधान कर देश-विदेश में प्रचार करना था उन्होंने अपने कर्तव्यों की उपेक्षा की।
वैदिक धर्म में चार वर्णों को मान्यता प्रदान है। ब्राह्मण के कर्तव्य वेद पढ़ाना व पढ़ाना, यज्ञ करना व करवाना तथा दान देना व दान लेना यह 6 कर्तव्य मुख्य होते थे व अब भी हैं। महाभारत के उत्तर काल में हमारे ब्राह्मण कुल के बन्धुओं ने अपने इन कर्तव्यों का ध्यान न रखा अपितु इसकी उपेक्षा की। इसी कारण से देश में अविद्या व अन्धविश्वासों की उत्पत्ति हुई। आठवीं शताब्दी में हम मुस्लिम आक्रमणकारियों व लुटेरों से त्रस्त होकर अपना स्वत्व खो बैठे और उसके सैकड़ों वर्ष बाद अंग्रेजों ने देश को गुलाम बनाया। सौभाग्य से ईसा की अट्ठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने एक सच्चे ब्राह्मण के रूप में वेद आदि विद्याओं का अध्ययन कर वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों का प्रचार किया। उन्होंने अविद्या निवारक ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु ग्रन्थों सहित ऋग्वेद का आंशिक एवं सम्पूर्ण यजुर्वेद का संस्कृत-हिन्दी भाष्य प्रदान किया। उन्होने देश के अनेक भागों में जाकर अपने उपदेशों के माध्यम से प्रचार किया। उनकी सन् 1883 में मृत्यु के बाद उनके शिष्यों ने गुरुकुल एवं डी.ए.वी. शिक्षण संस्थान स्थापित कर देश से अशिक्षा व अविद्या को दूर करने का प्रशंसनीय कार्य किया। अन्धविश्वासों को दूर करने के लिये भी ऋषि दयानन्द और उनके अनुयायियों ने महत्वपूर्ण योगदान किया।
उन्होंने अज्ञान, असत्य एवं वेदविरुद्ध मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, अवतारवाद की कल्पना एवं सभी अन्धविश्वासों पर प्रमाण पुरस्सर प्रचार किया जिससे लोगों को सत्य व असत्य का भेद समझ में आया। बुद्धिमान एवं सत्यप्रिय लोगों ने असत्य को छोड़कर सत्य को स्वीकार किया जिसका परिणाम देश में विद्या का प्रचार एवं अन्धविश्वासों में न्यूनता सहित देश की आजादी का सुफल प्राप्त हुआ। देश का विभाजन भी हमारे राजनीतिक नेताओं व धार्मिक नेताओं के अविवेकपूर्ण कार्यों का परिणाम था। आज पुनः देश में विभाजनकारी तत्व सक्रिय हैं और इनका प्रभाव बढ़ रहा है। हमारे कुछ राजनीतिक दल भी अपने सत्ता से जुड़े स्वार्थों के कारण विभाजनकारी तत्वों का गुप्त रीति से पोषण करते हैं। ऐसी स्थिति में आर्य व हिन्दू समाज को जागना होगा और सगठित होना होगा अन्यथा वैदिक मत सुरक्षित नहीं रह सकता। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह सनातन वैदिक धर्मी सभी बन्धुओं को सद्प्रेरणा करें जिससे वह अपने कर्तव्यों को जानकर संगठित होकर धर्म रक्षा में प्रवृत्त हों। धर्म रक्षा से ही देश की रक्षा होगी। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत