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इतिहास के पन्नों से

14 जनवरी है हिंदुत्व का शौर्य दिवस

14 जनवरी 1761 को आज ही के दिन पानीपत का तीसरा युद्ध’ अहमद शाह अब्दाली और मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ के मध्य पानीपत के मैदान मे हुआ । मराठों के नेतृत्व में हिंदुत्व की बढ़ती शक्ति का दमन करने के लिए इस युद्ध में दोआब के अफगान रोहिला और अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने अहमद शाह अब्दाली का साथ दिया । यह बिल्कुल वैसा ही था जैसे आज कुछ विपक्षी दल और ममता बनर्जी जैसे कुछ मुख्यमंत्री सीएए , एनआरसी या अन्य कुछ दूसरे महत्वपूर्ण बिंदुओं पर पाकिस्तान और बांग्लादेश का या आतंकवादियों का साथ देते दिखाई दे रहे हैं । प्रसंग को समझने की आवश्यकता है जो 14 जनवरी 1761 में था , वही 14 जनवरी 2020 में भी है।
1739 में नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया और दिल्ली को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया। 1757 ईस्वी में रघुनाथ राव ने दिल्ली पर आक्रमण कर दुर्रानी के लिए हिंदू शक्ति के रूप में एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी थी , जिससे उसका साहस दिल्ली पर आक्रमण करने का नहीं हो रहा था । इससे अवध के नवाब सुजाउद्दौला और रोहिल्ला सरदार नजीब उददोला नेम हिंदुत्व को कुचलने के लिए षड्यंत्र रचने आरंभ की है उनका साथ राजस्थान के राजपूत राजाओं ने भी देना तय किया जो मराठों को हिंदुत्व की शक्ति के रूप में मान्यता नहीं दे रहे थे। यह घटना भी आज के परिप्रेक्ष्य में बहुत अच्छी तरह समझी जा सकती है ।आज भी इस देश की हिंदूवादी शक्तियों के विरुद्ध कुछ हिंदू ही ‘नवाब शुजाउद्दौला ‘और नजीबुद्दौला का साथ दे रहे हैं। अर्थात ओवैसी और पाकिस्तान के इमरान खान की भाषा बोल रहे हैं।
उस समय जयपुर के राजा माधो सिंह मराठों से रूष्ट हो गए और इन सबने मिलकर अहमद शाह दुर्रानी को भारत में आने का निमंत्रण दिया ।
उस समय सदाशिव राव भाऊ की पानीपत के युद्ध के नायक थे वह उदगीर में थे । जहां पर उन्होंने 1759 निजाम की सेनाओं को हराया हुआ था। वह उस समय के बहुत ही शक्तिशाली और शौर्यसंपन्न पराक्रमी सेनानायक के रूप में स्थापित हो चुके थे ।इसलिए बालाजी बाजी राव ने अहमदशाह से लड़ने के लिए भी उनको ही चुना । उस समय भारत में सबसे अधिक अनुभव प्राप्त सेनापति रघुनाथ राव और महादजी सिंधिया थे।
सदाशिवराव भाऊ अपनी समस्त सेना को उदगीर से सीधे दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए जहां वे लोग 1760 ईस्वी में दिल्ली पहुंचे। उस समय अहमद शाह अब्दाली दिल्ली पार करके अनूप शहर अर्थात दोआब में पहुच चुका था । पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इसी स्थान पर उसे अवध के नवाब सुजाउदौला और रोहिल्ला सरदार नजीबूदौला ने युद्ध के समय रसद पहुंचाने का विश्वास दिलाया ।
हिंदुत्व की ध्वजा लेकर हिंदू वीर मराठे दिल्ली में पहुंचे और उन्होंने लाल किला जीत लिया । यही वह समय था जब शिवाजी महाराज की मृत्यु के ८० वर्ष बाद पहली बार लाल किला जीता गया था । प्रकार आज पहली बार शिवाजी का वह सपना साकार हो रहा था जिसके अंतर्गत उन्होंने संपूर्ण भारतवर्ष पर भगवा ध्वज फहराने का संकल्प लेते हुए हिंदवी स्वराज्य की स्थापना का संकल्प लिया था। लाल किला जीतने के बाद मराठों ने कुंजपुरा पर हमला कर दिया । जहां पर 15000 की अफगान सेना थी ।
इस सारी अफगान सेना को मराठों ने नष्ट कर दिया। उनके सभी सामान और खाने-पीने की आपूर्ति मराठों की हो गई । मराठों ने लाल किले की चांदी की चादर को भी पिघला कर उससे भी धन अर्जित कर लिया। बाद में अब्दाली को यमुना नदी को पार करने से रोकने के लिए हिंदू वीर मराठों ने एक सेना तैयार की ।
किसी गद्दार की गद्दारी के कारण अहमदशाह ने नदी पार कर ली । अक्टूबर के महीने मे मराठों की वास्तविक जगह और स्थिति का पता लगाने में सफल रहा । जब मराठों की सेना वापिस मराठवाड़ा जा रही थी तो उन्हें पता चला कि अब्दाली उनका पीछा रहा है, तब उन्होंने युद्ध करने का निश्चय किया। अब्दाली ने दिल्ली और पुणे के बीच मराठों का संपर्क काट दिया ।
मराठों ने भी अब्दाली का संंपर्क काबुल से काट दिया। इस कार्य से यह निश्चित हो गया कि अब जिस सेना के पास हथियारों और रसद की आपूर्ति होगी वही इस युद्ध को जीत पाएगी । करीब डेढ़ महीने की मोर्चा बंदी के बाद 14 जनवरी सन् 1761 को बुधवार के दिन सुबह 8 बजे यह दोनों सेनाएं आमने-सामने युद्ध के लिए आ गईं । शुजाउद्दौला और नजीबुद्दौला व कुछ हिंदू राजाओं की गद्दारी के कारण मराठों को रसद की आमद हो नहीं रही थी और उनकी सेना में भुखमरी फैलती जा रही थी । ऐसी विषम परिस्थितियों में विश्वासराव को लगभग 1:00 से 2:30 के बीच एक गोली शरीर पर लगी और वह वीरगति को प्राप्त हो गए । वास्तव में यह गोली विश्वासराव को न लगकर भारत को ही लगी थी जिसने इतिहास की गति को ही परिवर्तित कर दिया ।
अपने योग्य सेनापति विश्वासराव को अपने हाथी से उतर कर देखने के लिए सदाशिवराव भाऊ मैदान में पहुंचे । जहां पर उन्होंने उसको मृत पाया। जब अन्य मराठा सरदारों ने देखा कि सदाशिवराव भाऊ अपने हाथी पर नहीं है तो पूरी सेना में हड़कंप मच गया और इसी कारण कई सैनिक मारे गए । कुछ मैदान छोड़ कर भाग गए । परंतु सदाशिव राव भाऊ अंतिम दिन तक उस युद्ध में लड़ते रहे इस युद्ध में शाम तक आते-आते पूरी मराठा सेना खत्म हो गई ।
अब्दाली ने इस अवसर को अपने लिए उपयुक्त समझा और 15000 सैनिक जो कि आरक्षित थे उनको युद्ध के लिए भेज दिया और उन 15000 सैनिकों ने बचे-खुचे मराठा सैनिकों को सेनापति सदाशिवराव भाऊ सहित समाप्त कर दिया।
मल्राहार राव होलकर महादजी सिंधिया और नाना फडणवीस इस से भाग निकले उनके अलावा और कई महान सरदार जैसे विश्वासराव पेशवा सदाशिवराव भाऊ जानकोजी सिंधिया भी इस युद्ध में मारे गए और इब्राहिम खान गार्दी जो कि मराठा तोपखाने की कमान संभाले हुए थे जैसे देशभक्त की भी इस युद्ध में बहुत बुरी तरीके से मृत्यु हो गई ।
कई दिनों बाद सदाशिव राव भाऊ और विश्वासराव का शरीर मिला । इसके साथ ही उन 40000 तीर्थयात्रियों का जो मराठा सेना के साथ उत्तर भारत यात्रा करने के लिए गये थे , अब्दाली ने कत्लेआम करवा दिया। पानी पिला पिला कर उनका वध कर दिया गया। एक लाख से अधिक लोग युद्ध मे मारे गए।
यह बात जब पुणे पहुंची तब बालाजी बाजीराव के गुस्से का ठिकाना नहीं रहा । वह बहुत बड़ी सेना लेकर वापस पानीपत की ओर चल पड़े ।जब अहमद शाह दुर्रानी को यह खबर लगी तो वह भयभीत हो गया । 10 फरवरी,1761 को पेशवा को पत्र लिखा कि “मैं जीत गया हूं और मैं दिल्ली की गद्दी नहीं लूगा, आप ही दिल्ली पर राज करें मैं वापस जा रहा हूं।” अब्दााली का भेजा पत्र बालाजी बाजीराव ने पत्र पढ़ा और वापस पुणे लौट गए । हमें यह तो बताया जाता है कि अब्दाली ने मराठों को परास्त किया और उसने दिल्ली पर अधिकार कर लिया , परंतु वर्तमान इतिहास इस तथ्य को नहीं बताता कि 14 जनवरी से 10 फरवरी तक ही अहमद शाह अब्दाली दिल्ली पर शासन कर पाया था और जैसे ही उसे मराठों के फिर से एक भारी सेना के साथ दिल्ली की ओर आने का समाचार मिला तो वह मैदान और हिंदुस्तान दोनों को छोड़कर अपने देश भाग गया । ऐसा क्यों हुआ ? इस पर भी हमें विचार करना चाहिए ।
थोड़े समय बाद ही बालाजी बाजीराव की 23 जून 1761 को मौत हो गई । उन्हें इस बात का बहुत अधिक दुख हुआ था कि इस युद्ध में उन्होंने अपना पुत्र और अपने कई सारे मराठा सरदारों को को खो दिया था। गद्दारों की गद्दारी के कारण इस प्रकार हम से एक और योद्धा बिछड़ गया ।
1761 में माधवराव पेशवा पेशवा बने और उन्होंने महादाजी सिंधिया और नाना फडणवीस की सहायता से उत्तर भारत में अपना प्रभाव फिर से स्थापित कर लिया । प्रतिशोध की अग्नि में दहकते हुए हिंदू वीर मराठों ने 1761 से 1772 तक रोहिलखंड पर आक्रमण किया और रोहिलखंड में नजीबुद्दौला के पुत्र को बुरे तरीके से पराजित किया। पूरे रोहिल्ला को ध्वस्त कर दिया । नजीबुदौला की कब्र को भी तोड़ दिया और संपूर्ण भारत में फिर अपना परचम फैला दिया । उन्होंने मुगल सम्राट शाह आलम को फिर से दिल्ली की गद्दी पर बैठाया और पूरे भारत पर शासन करना फिर से प्रारंभ कर दिया । इसी को सावरकर जी ने भारत का पुनरुज्जीवी पराक्रम कहकर महिमामंडित किया है । भारत के इस पराक्रम को इतिहास से एक षड्यंत्र के अंतर्गत मिटाने का देशघाती कार्य किया गया ।
पानीपत के युद्ध में कई सारे महान सरदार मारे गए । इनमें सदाशिवराव भाऊ, शमशेर बहादुर, इब्राहिम खान गार्दी, विश्वासराव, जानकोजी सिंधिया के नाम उल्लेखनीय है । इस युद्ध के बाद खुद अहमद शाह दुर्रानी ने मराठों की वीरता को लेकर उनकी बहुत प्रशंसा की और मराठों को सच्चा देशभक्त भी बताया।
इस युद्ध पर टिप्पणी करते हुए जेएन सरकार ने लिखा है कि इस देशव्यापी विपत्ति में संम्भवत: महाराष्ट्र का कोई ऐसा परिवार न होगा जिसका कोई भी सदस्य मारा न गया हो !
सचमुच — तूफान से लाए हैं किश्ती निकाल के
इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के – – –
इन सारे बलिदानों को और बलिदानी भावना को भूलने की आवश्यकता नहीं है ।इसके विपरीत आज के शत्रु को पहचानने की आवश्यकता है और अपने उन योद्धाओं को भी पहचानने की आवश्यकता है जो युद्ध में लड़ रहे हैं या कहीं पर घिरे हुए हैं । एकता बनाकर रखने की आवश्यकता है ।यदि इस बार प्रमाद किया तो सब कुछ भी नष्ट हो जाएगा।
सचमुच आज के दिन को हमें अपने शौर्य दिवस के रूप में मनाना चाहिए।
– – – और हां, कुछ ‘सेकुलर उपदेशक ‘ इस समय हमें उपदेश दे रहे हैं कि व्यक्ति का विरोध राष्ट्र का विरोध नहीं होता। यह गद्दारी को छुपाने के लिए तोतों की भाषा है। इस प्रकार की भाषा से सावधान रहने की आवश्यकता है। व्यक्ति विरोध ही राष्ट्रविरोध बन जाता है, इस लेख से यह स्पष्ट हो जाता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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