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सत्पुरूषों के कारनै, कुल उत्तम कहलाय
सर्प सिंह और अग्नि का,
जो करता तिरस्कार।
छेड़कै इन्हें छोड़ो नही
तत्क्षण देना मार।। 89।।

लता सहारा ढूंढती,
वृक्ष बढै़ खुद आप।
जिनका अपना वजूद हो,
दूर रहै संताप ।। 90।।

सत्य प्रेम करूणा यहां,
जिनके हों आधार।
धन यश में वृद्घि करें,
रक्षा करे करतार।। 91।।

अग्नि व्यापक काष्ठ में,
जब तक नही जलाय।
वायु के संसर्ग से,
वन में आग लग जाए ।। 92।

सिंह से रक्षा अरण्य की,
अरण्य से रक्षित शेर।
आपस के सदभाव से,
वश में रहै कुबेर।। 93।।

बड़ों का होवै आगमन,
घट होय भाव विभोर।
ऊपर उठ स्वागत करै,
प्रेम की उठें हिलोर।। 94।।

आसन दे मेहमान को,
और अधरों पै मुस्कान।
पूछ कुशलता भोज दे,
प्यार की है पहचान।। 95।।

निन्दा और प्रशंसा में,
जो रहै एक समान।
धीर वीर गंभीर हो,
ताको जान महान।। 96।।

बुरा करै बुद्घिमान का,
और जाकै बसै विदेश।
बुद्घिमान की बाजुएं,
एक दिन पकडें केश।। 97।।

दगाबाज पर भूल कर,
करना नही विश्वास।
प्रकट मत करै राज को,
चाहे कितना हो खास।। 98।।

महिला स्वजन भृत्य से,
यथोचित कर व्यवहार।
इनके मत वशीभूत हो,
जो चाहे उद्घार।। 99।।

गृहिणी हो महालक्ष्मी,
कभी मत करना अपमान।
गृहिणी बिन घर ना सजै,
लगै कोई श्मशान।। 100।।

लकड़ी अपने गर्भ में,
अग्नि रही छिपाय।
सत्पुरूषों के कारनै,
कुल उत्तम कहलाय।। 101।।

निन्दित कर्म को जो करै,
भारी कष्ट उठाय।
यश धन की हानि करै,
स्वयं नष्ट हो जाए।। 102।।

उत्तम कर्म के कारनै,
सुख की वर्षा होय।
अधम कर्म के कारनै,
मूंड पकड़ कै रोय।। 103।।

राजा को तो चाहिए,
राज को रखे राज।
प्रजाहित को विचारकै,
करता रहे महाकाज।। 104।।

ब्राह्मण शोभै वेदवित,
श्रद्घा से भरपूर।
राजा शोभै षडगुणी,
तभी कहावतै शूर।। 105।।
षडगुण अर्थात शासन चलाने के लिए राजा के अंदर छह गुणों का होना नितांत आवश्यक है। यथा:-
1. संधि अर्थात शत्रु अथवा पड़ोसी राजा से पारस्परिक सहयोग के लिए वचन लेना और देना।
2. विग्रह:अर्थात शत्रु से अथवा अन्य प्रजापीड़क राजा से दूर हो जाना, उसके साथ दौत्य संबंध तोड़ लेना।
3. यान : अर्थात शत्रु पर चढ़ाई करना।
4. आसन:अर्थात शत्रु द्वारा उत्तेजित करने पर भी धैर्य के साथ तब तक चुप बैठे रहना जब तक शक्ति संचय न हो जाए।
5. द्वैधी भाव : अर्थात दो प्रकार का भाव रखना, ऊपर से मित्रता और अंदर से शत्रुता।
6. सभाश्रय : अर्थात अपने से श्रेष्ठ व बलवान राजा का आश्रय लेना मदद लेना।

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