हमें ईश्वर के सत्य स्वरूप की ही उपासना करनी चाहिए असत्य की नहीं
ओ३म्
==========
किसी भी वस्तु या पदार्थ का स्वरूप कुछ विशिष्ट गुणों को लिये हुए होता है। उन गुणों को जानकर उसके अनुरूप उसके बारे में विचार रखना व उसका सदुपयोग करना ही उचित होता है। ईश्वर भी एक द्रव्य व पदार्थ है जिसमें अपने कुछ गुण, कर्म व स्वभाव आदि हैं। हमें ईश्वर के गुण, कर्मों व स्वभाव पर विचार करना चाहिये। ईश्वर के जो गुण, कर्म व स्वभाव हम निश्चित करें, उन्हें विद्वानों की शरण में जाकर उनका परामर्श लेकर उनकी सत्यता की पुष्टि करनी चाहिये। इसके साथ ही हमें नित्य प्रति वेद आदि प्राचीन ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिये। इन वेदादि ग्रन्थों में ईश्वर का सत्यस्वरूप उपलब्ध होता है। स्वाध्याय से मनुष्य सत्य व असत्य को जान सकता है। ऋषि दयानन्द ने बताया है कि जो पदार्थ जैसा है, जिन गुण, कर्म व स्वभाव वाला है, उसको वैसा ही मानना, उससे विपरीत न मानना ही सत्य होता है। यदि हम ऐसा नहीं करते तो यह असत्य होता है। देश व संसार में जब हम लोगों को ईश्वर की उपासना करते हुए देखते हैं तो हम पाते हैं कि ईश्वर की उपासना करने वाले लोगों को ईश्वर विषयक यथोचित ज्ञान नहीं है। उनसे प्रश्न पूछने पर वह ईश्वर विषयक किसी प्रश्न का उचित वा सत्य उत्तर नहीं दे पाते।
एक व्यक्ति गंगा नदी को माता मानता है और उससे अपनी इच्छाओं व कामनाओं सहित मोक्ष प्राप्ति की इच्छा व विश्वास रखता है। उससे यदि पूछा जाये कि आपकी जो आस्था है वह सत्य है व असत्य। वह यही कहेगा कि सत्य है। उससे यदि कहा जाये कि वह अपनी आस्था के पक्ष में कुछ तथ्य, विचार, तर्क, प्रमाण, दृष्टान्त व आप्त वचन प्रस्तुत करे तो वह मौन रहता है। इसका अर्थ है कि उस व्यक्ति ने इन बातों को परम्परागत रूप से माना तो है परन्तु उसे इस का विषय विशेष ज्ञान नहीं है। इस विषय पर जब वेद शास्त्र आदि ग्रन्थों का अध्ययन करने के बाद पक्ष व विपक्ष में विचार करते हैं तो यह तथ्य सामने आता है कि गंगा एक जल से युक्त नदी है। परमात्मा ने इसे बनाया है। यह पर्वतों पर पड़ी हुई बर्फ व वर्षा के जल से बनी है। बर्फ पिघलती रहती है तो वह जल इकट्ठा होकर एक नदी का रूप लेकर ऊंचाई से नीचे स्थानों की ओर बहता है और बंगाल में जाकर समुद्र के जल में मिल जाता है। गंगा एक नदी है और जल जड़ पदार्थ है। जड़ पदार्थ में चेतन व चैतन्यता का गुण नहीं होता। उसको सत्य व असत्य तथा सुख व दुःख की अनुभूति नहीं होती। ज्ञान केवल चेतन पदार्थ में ही रहता है। संसार में चेतन पदार्थ दो ही हैं। सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा और अनन्त संख्या में चेतन जीव जो सूक्ष्म, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अनादि, नित्य, अमर, अविनाशी, जन्म-मरण धर्मा, कर्म-फल बन्घन में फंसे हुये, वेदज्ञान को प्राप्त कर एवं उसके अनुरूप आचरण कर जन्म-मरण से छूट कर मोक्ष को प्राप्त होने वाले हैं। जड़ पदार्थ में चेतन के ज्ञान व स्वतन्त्रतापूर्वक कर्म करने की सामर्थ्य आदि गुण नहीं होते। जल, गंगा, किसी अन्य नदी, कुवें व समुद्र आदि का सभी जड़ होता है। वह किसी मनुष्य की कामना को न तो जानता है, न सुन सकता है, न अनुभव कर सकता है और न ही पूरा कर सकता है। अतः गंगा नदी को परमात्मा ने जल को पीने तथा जल से खेतों की सिंचाई आदि करने के जिस प्रयोजन से बनाया है, उससे वही प्रयोजन सिद्ध करना चाहिये। यदि हम गंगा से सुख व मोक्ष आदि की कामना करेंगे, पापों को दूर करने व धोने की प्रार्थना करेंगे तो ऐसा होना सर्वथा असम्भव है। ऐसा व्यवहार हमें नहीं करना चाहिये। हमें गंगा आदि सभी नदियों को स्वच्छ रखते हुए उनसे यथायोग्य उपकार लेने चाहियें।
मनुष्य की सुख व मोक्ष आदि की प्रार्थना चेतनस्वरूप सर्वशक्तिमान परमात्मा से सद्कर्मों सहित सदाचरण व उपासना करते हुए करने से वह अवश्य पूरी हो सकती हैं। इसके अनेक प्रमाण दिये जा सकते हैं। हमारा अपना निजी अनुभव है कि हम वेद व वैदिक साहित्य का स्वाध्याय करते हैं, तदनुसार आचरण व व्यवहार करने का प्रयास भी करते हैं, वैदिक पद्धति से ही ईश्वर की उपासना एवं अग्निहोत्र यज्ञ आदि करते हैं जिससे हमारी सभी आवश्यकतायें एवं सुख आदि हमें प्राप्त हुआ व हो रहा है। जो ऐसा नहीं करते उनको भी सुख प्राप्त होता है। उसके कारण पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि वह उन्हें उनके प्रारब्ध, पूर्व पुण्य-कर्मों सहित उनके इस जन्म के पुरुषार्थ का परिणाम है। गंगा की स्तुति, उपासना, स्नान, पूजा या किसी प्रकार की मूर्तिपूजा व अन्य मत-मतान्तरों की अवैदिक पूजा विधि से भक्ति व उपासना करने से सुख आदि का कोई लाभ नहीं होता। अतः मनुष्य को सत्य व असत्य का विचार कर ही कोई भी कार्य करना चाहिये। ऐसा करेंगे तो हमें सर्वत्र सफलता मिलेगी और नहीं करेंगे तो तात्कालिक सफलता मिलने के बाद भी उसका आधार सत्य न होने के कारण हमने अज्ञानतावश उसके लिये जो असत्य साधन अपनायें होंगे, उसका परिणाम व दण्ड ईश्वर की व्यवस्था से भोगना पड़ सकता है वा पडे़गा।
उपासना के क्षेत्र में हमें ईश्वर के सत्यस्वरूप की ही उपासना करनी चाहिये। यदि हम बिना ईश्वर के सत्यस्वरूप को जाने उसकी उपासना करेंगे तो उपासना से होने वाले लाभों से वंचित रह सकते हैं। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप है अतः हमें ईश्वर के इसी रूप की उपासना करनी चाहिये। सच्चिदानन्द का अर्थ सत्य, चेतन और आनन्द से युक्त ईश्वर है। सत्य का विपरीत अर्थ असत्य, चेतन का विपरीत जड़ तथा आनन्द का विपरीत दुःख होता है। हममें से अधिकांश लोग ईश्वर के चेतनस्वरूप की उपासना न कर उसको जड़ रूप में मानते हैं। सभी साकार पदार्थ जड़ हैं। ईश्वर निराकार एवं सर्वव्यापक है। सर्वव्यापक पदार्थ किसी भी स्थिति में साकार नहीं हो सकता। अतः ईश्वर को निराकार एवं सर्वव्यापक रूप में ही मानना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर द्वारा दिये जीवों व मनुष्यों का कल्याण करने वाले ज्ञान ‘‘चार वेद” के आधार पर ईश्वर का संक्षिप्त सत्यस्वरूप बताते हुए कहा है ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।’ ईश्वर की उपासना में प्रवृत्त होने से पूर्व अथवा उपासना करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर के इस स्वरूप पर गम्भीरता से विचार करना चाहिये कि क्या वह ईश्वर को इसी प्रकार के स्वरूप वाला मानते हैं। इसके विपरीत ईश्वर के स्वरूप व उसमें किसी अन्य गुण जो इसके स्वरूप व स्वभाव के विपरीत हैं, उन्हें ईश्वर की उपासना में सम्मिलित करेंगे तो हमारी उपासना में विकृति होगी और उससे वह लाभ प्राप्त नहीं होंगे जिन्हें प्राप्त करने के लिये हम उपासना करते हैं।
वेदाध्ययन एवं ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के अध्ययन सहित चिन्तन-मनन व विचार करने पर हमें प्रतीत होता है कि जो लोग ईश्वर की मूर्ति की पूजा करते हैं वह उचित कार्य नही है। जब ईश्वर जड़ एवं रूपवान है ही नहीं, तो उसके विपरीत उसे मानना उसकी उपासना नहीं अपितु उसका एक प्रकार से अपमान करना है। इससे ईश्वर की स्तुति व उपासना आदि न होकर उसकी अवज्ञा एवं उसका जाने व अनजाने में अपमान व तिरस्कार होता है। अतः ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर उसको अपने विचारों, चिन्तन, ध्यान, विवेचन, मनन, चर्चा व व्याख्यान आदि में सम्मिलित करने से ही ईश्वर की उपासना होती है व सबको करनी चाहिये। हमारे ऋषि, योगी, चिन्तक, विचारक, मनीषी आदि सभी यही कार्य करते थे व अब भी करते हैं। हमारे सभी विद्वान वेद व ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हैं। उनका चिन्तन, मनन करने सहित उनके सत्य व असत्य की परीक्षा करते हैं। सत्य का ग्रहण व असत्य का परित्याग करते हैं और ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना आदि वेद मन्त्रों सहित अपनी सामान्य भाषा में करते हैं। इसके लिये किसी आकार, चित्र, स्त्री व पुरुष रूप वाली मूर्ति, जल, फल, पुष्प, पत्र, धूप, अन्न व उसके बने पदार्थों, लाल, पीले वस्त्र, ढोल, नगाड़े आदि की आवश्यकता नहीं होती। ईश्वर सर्वान्तर्यामी होने से हमारी आत्माओं के भीतर भी विद्यमान है। हम जो सोच विचार करते व ईश्वर की मौन होकर उपासना करते हुए मन में विचार व भाव उत्पन्न करते हैं, ईश्वर उन सभी को जान लेता है। ऐसा अधिक से अधिक समय तक करने से यही ईश्वर की भक्ति, स्तुति, प्रार्थना व उपासना होती है। यही ईश्वर की सत्य उपासना है। ऐसा करने से मनुष्य को ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के फल प्राप्त होते हैं। स्तुति प्रार्थना व उपासना के फल क्या होते हैं इस पर भी महर्षि दयानन्द के कुछ विचार हम पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं।
ऋषि लिखते हैं कि ईश्वर की स्तुति करने से ईश्वर से प्रीति अर्थात् उससे प्रेम व उसमें श्रद्धा होती है। स्तुति करते हुए ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव का चिन्तन, मनन व वाचन करने से अपने गुण, कर्म व स्वभाव सुधरते हैं। ईश्वर की प्रार्थना करने से मनुष्य का अभिमान दूर होकर वह निरभिमानता का गुण ग्रहण करता है। प्रार्थना करने से उपासक व भक्त में उत्साह और ईश्वर की सहायता व सहयोग मिलता है। ईश्वर की उपासना से परब्रह्म परमात्मा से मेल, मित्रता, निकटता, जीव का हित व कल्याण, उसको आरोग्य, बल, शक्ति व धन-सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। उपासना का सबसे बड़ा लाभ जो अन्य किसी प्रकार से व किसी विधि से नहीं होता वह है ‘‘ईश्वर का साक्षात्कार”। ईश्वर का साक्षात व प्रत्यक्ष ज्ञान सहित ईश्वर की अनुभूति तथा उसके आनन्द की प्राप्ति ईश्वर का साक्षात्कार होने पर ही पूर्णतया होती है। इन सब लाभों की प्राप्ति के लिये मनुष्य को ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरूप की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना वैदिक विधि ‘सन्ध्योपासना’ जिसमें ध्यान व समाधि आदि अवस्थायें सम्मिलित हैं, करनी चाहिये। ईश्वर की सत्यस्वरूप की उपासना से जो लाभ प्राप्त होते हैं वह किसी मत-मतान्तर की विधि व वेद व योग से इतर विधियों से उपासना व भक्ति करने पर प्राप्त नहीं होते। जब ईश्वर एक है, जीवात्मा का स्वरूप व उनके गुण, कर्म व स्वभावों में भी अधिकांशतः समानता है, तो उन सबकी उपासना विधि भी एक ही होनी चाहिये। मनुष्य को सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहिये। यह कार्य वेदाध्ययन एवं सत्यार्थप्रकाश आदि के अध्ययन व स्वाध्याय से ही हो सकता है। सबको इन ग्रन्थों का अध्ययन व स्वाध्याय करना चाहिये। ईश्वर सब मनुष्यों को सद्बुद्धि दे और सबका कल्याण करें। उन्हें असत पथ से हटा कर सतपथ पर चलने की प्रेरणा करें। असत पथ और देश व समाज के विपरीत स्वार्थ के पथ पर चलने वालों और देश के हितों को हानि पहुंचानें वालों को सत्प्रेरणा वा दण्ड प्रदान करें जिससे वैदिक धर्म एवं संस्कृति सुरक्षित रह सकें। सभी वैदिक धर्मी एवं भारत माता, राम, कृष्ण, शंकर व दयानन्द जी को मानने वाले संगठित हों और वैदिक धर्म की रक्षा के लिये संकल्पवान हों, यह हमारी ईश्वर से प्रार्थना है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य