डाॅ. राकेश राणा
करुणा ही आम सहमति और सद्भाव ला सकती है, यदि सच्ची भावना से उसका पालन किया जाय। दैनंदिन जीवन में यह सोच सार्वजनिक नीति और समाज में लोकतांत्रिक भाव के लिए मार्गदर्शक हो सकती है- स्वामी विवेकानंद
श्रीविश्वनाथ दत्त के घर में 12 जनवरी,1863 को बालक नरेन्द्र दत्त का जन्म हुआ जो बड़े होकर महान संन्यासी विवेकानन्द के रूप में जाने गये। स्वामी विवेकानन्द के आधुनिक भारत के आख्यान में धर्म, दर्शन, आध्यात्म, शिक्षा, संस्कृति, इतिहास, कला, साहित्य, विज्ञान, समाज, अर्थनीति और समाजवाद तथा नारी-जागृति एवं राष्ट्र-जागरण का पाठ प्रमुख है। उनके विचारों से भी बड़ी उनकी दृष्टि है जो पुरातन विरासत के बीज-मूल्यों को सहेजकर पुनरुत्थित भारत की नयी संकल्पना के साथ नया भारत गढ़ती है। विवेकानन्द ने जिस विवेक के साथ नवराष्ट्र-निर्माण का बीड़ा उठाया वह उन्हें आधुनिक भारत के निर्माताओं में निराला और अग्रणी बनाता है। धर्म जैसे प्राचीनतम मूल्य का आधुनिकता के दायरे में सफलतम ढंग से पुनर्व्याख्यान प्रस्तुत करना, उन्हें महानतम विचारक बनाता है। धर्म की स्थापित जड़ताओं को तोड़ना उस दौर में समय की धारा को मोड़ने जैसा है। सामाजिक-सांस्कृतिक वर्जनाओं पर दरिद्र-नारायण की नयी संकल्पना से वार करना उन्हें योद्धा बनाता है। विवेकानन्द से पहले तक जो पुनर्जागरण का पाठ पाश्चात्य पाठशाला की अंध-आधुनिक वैचारिकी में समाया हुआ था, उसे परम्परा के महानतम भारतीय मूल्यों में मथकर नया आख्यान खड़ा किया। यही वह समय था जब विवेकानन्द ने नये भारत की नींव रखी और दुनिया के सम्मुख नये भारत का महावृतांत प्रस्तुत किया। ब्रहम-समाज और आर्य-समाज सरीखे आन्दोलन हद से ज्यादा परम्परावादी ढंग से भारतीय जनमानस को जकड़े हुए थे और भारतीयता का अतिशय मोह आधुनिकता पर खंजर ताने हुए था। स्वामी विवेकानन्द का प्रादुर्भाव भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के इसी परिदृश्य पर हुआ।
अपने दौर के मौजूदा तनावों और अभावों को समझना ही सम्यक और संतुलित समाधान की दिशा में चिंतन की सार्थकता को साबित करता है और युगबोध को बढ़ाता है। स्वामी विवेकानन्द भारतीय स्वभाव और जनमानस की गहरी समझ रखते थे और उन समस्याओं के मूल को समझते थे, जिनसे भारत गुजर रहा था। इसलिए विवेकानन्द एक विवेकाधारित योजना के साथ आगे बढ़ते हैं। परम्परा और आधुनिकता के बीच भारतीय चिंतन परम्परा में पका विचार नये संदर्भों, नये तर्कों और नये अर्थों से लैस भारतीयता का आख्यान आयोजित करते हैं। राष्ट्र को अपना प्राचीनतम गौरव याद दिलाते हैं। पाश्चात्यी दुनिया को उसके अभाव गिनाते हैं। एक पद-दलित रौंदे हुए राष्ट्र को पुनः जागृत कर खड़ा करते हैं। विश्व को बताते हैं कि `यदि पश्चिम भारत का आध्यात्म ले और भारत पश्चिम का विज्ञान ले तो दोनों पूर्ण बन सकते हैं और विकसित भी।’ इसलिए विवेकानन्द देश के नौजवानों का उठो-जागो का आहवान् करते हैं क्योंकि किसी राष्ट्र के नौजवान नयी सोच, नयी योजना और नवाचार की दृष्टि रखते हैं। युवा पीढ़ी ही नये ज्ञान, नयी सोच और आधुनिक शिक्षा के बूते उन तमाम समाजार्थिक समस्याओं का सामना कर सकती है जो भारत को दीन-हीन बनाए हुए है। भारत सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक तथा राजनीतिक विविधताओं और विषमताओं वाला देश है। यहां राष्ट्र निर्माण हेतु कुछ अतिरिक्त और संगठित सद्-प्रयासों की जरूरत है जो भारतीयता की परमपरा को पुर्नस्थापित कर सके।
नये भारत की अवधारणा भारत के महानतम मूल्यों और लक्ष्यों की दिशा में एक कदम आगे बढ़ना है। इसके लिए विवेकानन्द ने राष्ट्र के नव निर्माण का नया मुहावरा गढ़ा। जो अपने समय की सीमा से परे राष्ट्र संबोध्य के नये तेवर लेकर जनमानस में देशप्रेम जगाने वाला प्रखर पाठ बना। विवेकानन्द के नवाख्यान से राष्ट्र जिन नये जीवन-मूल्यों से परिचित हुआ। उनमें लोकतांत्रिक अधिकारों की पैरवी, ठहरे हुए वेदान्तिक दर्शन को नव-वेदांत दर्शन में प्रस्तुत करना, राष्ट्र की एकता और अखण्डता को खोखला करने वाले क्षेत्रवाद, जातिवाद और धर्म-सम्प्रदाय के झूठे झगड़ों से टकराने के लिए देशभक्ति के मूल्य को नवोन्मेष के साथ स्थापित करना प्रमुख है। विवेकानंद राष्ट्र की कल्पना सशक्त जनशक्ति के रूप में करते हैं। उनके लिए विकास का अर्थ दबे-कुचले लोगों का क्षमता-वर्द्धन करना है। आध्यात्मिक उद्देश्य के साथ भौतिक उपलब्धियां हासिल करना है। मानवता की सेवा उनके लिए सर्वोपरि है। राष्ट्र-निर्माण के लिए व्यक्तिगत चेतना को अति-आवश्यक मानते हैं। अंतदृष्टि का विकास और अंतरात्मा के संकेत समझने के लिए आध्यात्मिक विकास होना अपरिहार्य है। उनका मानवीय क्षमताओं में यह दृढ़ विश्वास कि मानव-मन ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ और शक्तिशाली रचना है, उसे दिशा देना आवश्यक है क्योंकि वे उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में धर्म-सम्प्रदायों के संघर्ष, अंध-विश्वास तथा मानव तर्क-संगतता की गलत व्याख्याओं व अवधारणाओं के परिणाम देख चुके थे। इसीलिए संकुचित विश्व-दृष्टिकोण के बारे में दुनिया को आगाह किया-‘दूसरों का न्याय करने में हम हमेशा उन्हें अपने आदर्शों द्वारा न्याय प्रदान करते हैं। यह स्थिति वह नहीं है, जो होनी चाहिए। सभी को उनके आदर्शों के अनुरूप न्याय मिलना चाहिए।’ स्वामी जी का संदेश साफ है कि `करुणा और प्रेम सामाजिक और वैश्विक सद्भाव तक पहुंचने का एकमात्र माध्यम है। आध्यात्मिक जागृति के बिना आर्थिक सशक्तिकरण आधा-अधूरा लक्ष्य होगा। नव-वेदान्तिक शिक्षाएं पश्चिम को एक तर्कसंगत और मानवतावादी उद्यम के रूप में धर्म की उपयोगिता समझा सकेगी।’
स्वामी जी ने जिस ढंग से राष्ट्र का खोया स्वाभिमान लौटाया, एक देश के रूप में आत्मसम्मान जगाया ऐसा दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। परम्परा, मूल्यों, संस्कृति और जीवन-दर्शन के प्रति जो गहरी आस्था और विश्वास पैदा किया, वह अदभुत है। अपनी चीजों पर गर्व करना सिखाया। स्वदेश का स्वाभिमान जगाया। स्वदेशी की भावना का भाव बताया। राष्ट्र और समाज के साथ-साथ व्यक्ति की गरिमा को स्थापित किया। नर सेवा-नारायण सेवा है। दरिद्र में नारायण का दर्शन प्रस्तुत कर एक साहसी संन्यासी भारतीयता के मूल्यों की सिंहासन-संरचना का नया आख्यान गढ़ता है। जो समरस, न्यायपूर्ण, शांतिपूर्ण और सद्भाव से भरा भारत बनाने में अहम अवदान साबित हुआ। नये भारत की यह बुनियाद ही विवेकानन्द दर्शन की देन है। विवेकानन्द दार्शनिक नहीं द्रष्टा हैं, पारम्परिक नहीं मौलिक हैं। वह सिर्फ शास्त्रीय नहीं, वैज्ञानिक और व्यवहारिक हैं। विवेकानन्द विधिवादी नहीं, मानवीय और बोधि हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
मुख्य संपादक, उगता भारत