ओ३म्
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हम इस संसार में रहते हैं और हमसे पहले हमारे पूर्वज इस सृष्टि में रहते आये हैं। संसार में प्रचलित मत-मतान्तर तो कोई लगभग दो हजार और कोई पन्द्रह सौ वर्ष पुराना है, कुछ इनसे भी अधिक प्राचीन और कुछ अर्वाचीन हैं, परन्तु यह सृष्टि वैदिक मत व गणना के अनुसार 1.96 अरब वर्ष पूर्व बन चुकी थी और तब से ही चल रही है। मनुष्य की उत्पत्ति भी इस सृष्टि में तिब्बत नामक स्थान पर 1.96 अरब वर्ष पूर्व ही परमात्मा ने की थी। अमैथुनी सृष्टि में परमात्मा ने युवावस्था में स्त्री पुरुषों को बनाया था। यह रहस्योद्घाटन ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में किया है। इसके लिये उनकी युक्ति है कि यदि परमात्मा वृद्धावस्था में मनुष्यों को बनाता तो यह सृष्टिक्रम न चल पाता और यदि शैशव अवस्था में मनुष्यों को उत्पन्न करता तो उनका पालन पोषण करने के लिये माता-पिता की आवश्यकता होती। अतः ईश्वर ने प्रथम मनुष्योत्पत्ति युवावस्था में ही की थी। मनुष्यों को ज्ञान की आवश्यकता भी होती है। ज्ञान भाषा में ही निहित होता है। बिना भाषा के कोई भी मनुष्य न तो ज्ञान दे सकता है और न ही ज्ञान को ग्रहण किया जा सकता है। भाषा की आवश्यकता ज्ञान से पूर्व व ज्ञान के साथ होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति भी परमात्मा ने ही पूरी की थी। उसने सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी में उत्पन्न चार सर्वाधिक पवित्र आत्माओं वाले ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा के माध्यम से ज्ञान प्राप्त कराया था। परमात्मा ने इन ऋषियों को ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान उनकी आत्मा के भीतर सर्वान्तर्यामी स्वरूप से प्रेरणा देकर दिया था। ऋषियों ने मिलकर ईश्वर से प्राप्त वेदों के ज्ञान को ब्रह्मा जी व अन्य स्त्री पुरुषों को प्रदान किया था, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। वेदों का ज्ञान आज से पांच हजार वर्ष पूर्व तक आर्याव्रत सहित पूरे विश्व में था। इस प्रकार ईश्वर से ही धर्म व संस्कृति का ज्ञान प्राप्त हुआ और वही सब मनुष्यों का सत्य, यथार्थ व वास्तविक धर्म रहा है और आज भी है। आज संसार में जितने मत-मतान्तर प्रचलित हैं वह सब अविद्या से युक्त मान्तयाओं वाले हैं। ऋषि दयानन्द ने सभी मतों की मान्यताओं में निहित अविद्या का दिग्दर्शन अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में कराया है। इससे यह बात सामने आयी है कि वेद मत के अतिरिक्त संसार का कोई भी धार्मिक मत अविद्या से सर्वथा मुक्त नहीं है।
परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाया है। वही इसका पालन व धारण कर रहा है तथा वही सृष्टि का संहार भी करता है। परमात्मा ने इस सृष्टि को प्रकृति नामक पदार्थ जो सत्व, रज और तमो गुण की साम्यवास्था कही जाती है, उस अत्यन्त सूक्ष्म अनादि व नित्य जड़ पदार्थ से बनाया है। सांख्य दर्शन में सृष्टि की रचना पर प्रकाश डाला गया है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर इस तथ्य व रहस्य का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। सृष्टि निर्माण के लिये सृष्टि का प्रयोजन व उसके निर्माण की विधि का ज्ञान व बल चाहिये। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर सहित सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान भी है। ज्ञान में भी वह पूर्ण है और बल में भी वह पूर्ण है। उसमें कोई किसी प्रकार की न्यूनता नहीं है। वह सूक्ष्म प्रकृति के भीतर व बाहर भी विद्यमान है। अतः उसी से सृष्टि की रचना हुई व यह जगत प्रकाश में आया है। उसी परमात्मा ने सब प्राणियों एवं वनस्पति जगत को भी रचा है और वही इस सृष्टि को चला रहा है। यदि परमात्मा सृष्टि की रचना न करता तो क्या होता? इसका उत्तर यह है कि परमात्मा सृष्टि की उत्पत्ति वा रचना न करता, ऐसा सोचना भी उचित नहीं है। परमात्मा सर्वशक्तिमान है और वह स्वाभाविक रूप से इस सृष्टि को बनाता व पालन करता है, अतः वह ऐसा क्यों न करता इसका कोई उत्तर नहीं है। एक व्यक्ति रात्रि को शयन करता और 6 या 8 घंटे की निद्रा लेकर प्रातः उठकर शौच, ईश्वर के चिन्तन, अपने लिये अन्न प्राप्ति व अन्य आवश्यकता की पूर्ति के कार्यों में लग जाता है। कोई यह कहे कि वह प्रातः न उठता, पड़ा ही रहता, वह क्यों उठा, उसे उठना नहीं चाहिये था, इस प्रकार के प्रश्न मूर्खतापूर्ण कहे जाते हैं। अतः ईश्वर के विषय में भी यदि हम ऐसी शंका करें तो यह हमारी शंका मूर्खतापूर्ण होगी। जिन लोगों में सामथ्र्य होती है वह उस सामथ्र्य का सदुपयोग अवश्य ही करते हैं। मूर्ख लोग दुरुपयोग करते हैं परन्तु ज्ञानी व सच्चे धार्मिक लोग अपनी सामथ्र्य का सदुपयोग परोपकार, परसेवा व परहित के लिये करते हैं। अतः ईश्वर का सृष्टि की रचना करना सर्वथा उचित एवं स्वाभाविक है।
यद्यपि सृष्टि न होती तो क्या होता इस प्रश्न का उत्तर हमें मिल गया है परन्तु विचार तो किसी भी प्रश्न पर किया ही जा सकता है। यदि यह मान लें कि ईश्वर सृष्टि न करता तो जीवों की क्या अवस्था होती? जीव अनादि, नित्य, अजर, अमर, अविनाशी व भाव सत्ता हैं। इनका अभाव कभी नहीं होता। जीवात्मा चेतन, एकदेशी, ससीम, ज्ञान व बल की अल्प सामथ्र्य से युक्त, कर्म के बन्धनों में बंधी हुई, जन्म-मरण धर्मा सत्ता है। यह सद्कर्मों से अपने प्रारब्ध में सुधार कर सुखों को प्राप्त होती है। वेदों का अध्ययन कर व विद्वानों के सदुपदेशों से ईश्वर को जानकर और उपासना से ईश्वर का साक्षात्कार कर आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होती है। मोक्ष में यह आनन्दस्वरूप परमात्मा के सान्निध्य में रहकर आनन्द का भोग करती है। मोक्ष की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब होती है। इतनी अवधि यह जन्म व मरण के चक्र से छुटी व बची रहती है। यह मोक्ष व उसमें आनन्द की प्राप्ति परमात्मा की ओर से सद्कर्म करने वाली जीवात्माओं जो ऋषि, योगी व सदाचारी ज्ञानी मनुष्यों के तुल्य होती है, उनको एक विशेष उपहार कह सकते हैं। यदि ईश्वर किसी कारण से सृष्टि न बनाता तो जीवात्माओं को मनुष्य जीवन में प्राप्त होने वाले नाना प्रकार के सुखों सहित मोक्ष का आनन्द भी प्राप्त न हो सकता। दोनों स्थितियों पर विचार करने पर लगता है कि सृष्टि की उत्पत्ति कर ईश्वर ने जीवों पर बहुत बड़ा उपकार किया है। इसके लिये सभी मनुष्य व जीवात्मायें ईश्वर की सदा-सदा के लिये ऋणी हैं। ईश्वर ने सृष्टि की उत्पत्ति कर जीवात्माओं को सद्कर्मों के द्वारा अपनी उन्नति करने का अवसर दिया है। ईश्वर के इस उपकार से कोई जीव कभी उऋण नहीं हो सकता। सभी जीवात्माओं वा मनुष्यों को ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर उसकी उपासना करने के साथ वेदविहित सद्कर्मों का अनुष्ठान अवश्यमेव करना चाहिये। इससे उसे जन्म-जन्मान्तरों तक सुख प्राप्त होगा। जो जीवात्मायें इसके विपरीत आचरण व व्यवहार करती हैं वह आत्मायें अज्ञानी व मूढ़ आत्मायें कही जा सकती हैं जो अपना अहित करती हैं और अपने परजन्म के सुखों को बिगाड़ती हैं।
परमात्मा यदि सृष्टि को न बनाता तो जीवों को मनुष्य एवं अन्य किसी प्राणी का शरीर प्राप्त न होता। ऐसी स्थिति में वह अज्ञान तिमिर में पड़ा रहता। उसे सुख दुःख का ज्ञान भी न होता। सुख व दुःख किसी प्राणी के शरीर का जन्म प्राप्त होने पर ही अनुभव हुआ करते हैं। ऐसा जीवन किसी काम का जीवन नहीं कहा जा सकता। आजकल बैंकों में धनी लोग लाकर लेकर उसमें अपने स्वर्णाभूषण आदि रखते हैं। यदि यह स्वर्णाभूषण सरकार के पास हों तो इससे देश की उन्नति में योगदान मिल सकता है। तिजोरी की भांति लाकर में बन्द सोने का कोई उपयोग न होने से यह अनुपयोगी बना रहता है। ऐसा ही सृष्टि के न बनने पर मनुष्य का जीवन होता है जिसका कोई लाभ स्वयं जीव व अन्य जीवों को न मिलता। माता-पिता, आचार्य व अन्य संबंधी सब जीवात्मायें ही तो हैं। सब सृष्ट अवस्था में एक दूसरे के लिये उपकार व लाभकारी होती हैं। अतः हमें धन व सम्पत्ति के संग्रह की प्रवृत्ति को महत्व न देकर उनका सदुपयोग व सत्कार्यों में व्यय करना चाहिये। इसी में धन व साधनों की शोभा होती है। शास्त्र कहते व विद्वान समझाते हैं कि धन की सबसे अधिक शोभा सुपात्रों को दान देने में होती है। महाराणा प्रताप को भामाशाह जैसे दानी मिले थे जिससे महाराणा प्रताप यवन राजा अकबर से संघर्ष कर सके थे और अपनी आन, बान व शान को बनाये रखा था। परमात्मा संसार का सबसे बड़ा दानी है। उसने इस संसार को बनाया है। संसार का समस्त ऐश्वर्य उसी का है। जीवात्मा को वह उपयोग करने के लिये ही देता है। मृत्यु होने पर कोई एक पैसा अपने साथ नहीं ले जा सकता। जब उस मृतक का था ही नहीं तो वह ले कैसे जाता? हम परमात्मा के पुत्र हैं। हमें परमात्मा के गुणों को धारण करना है। हम भी परमात्मा से दान करना सीखे। दान एक सद्कर्म है। दान देने से यश प्राप्त होता है। हम यश के भागी बने, अयशस्वी व अपयश को प्राप्त न हो। इसके लिये हमें परोपकार आदि सद्कर्मों को करने के साथ सुपात्रों को दान करना ही होगा। वेद हमें सद्मार्ग बताते हैं। हमें उसको ग्रहण करना चाहिये।
सृष्टि के विषय में हम बता चुके हैं कि ईश्वर सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है। वह स्वभाविक रूप से जैसे हम श्वास प्रश्वास लेते व छोड़ते हैं, इससे हमें कोई कष्ट नहीं होता और न ही कोई विशेष प्रयत्न करना होता है। इसी प्रकार से ईश्वर को सृष्टि को रचने व पालन करने के लिये किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं करना पड़ता और न ही विशेष प्रयत्न करना पड़ता है। यह स्वभाविक रूप से होता है। अतः ईश्वर ने सृष्टि रचना के विवेकपूर्ण विकल्प को धारण किया हुआ है। इससे सभी जीव, अज्ञानी व मूर्खों को छोड़कर, उसकी उपासना करते हैं और उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर उसका आभार एवं धन्यवाद करते हैं। हमें भी ईश्वर का कृतज्ञ रहते हुए उसकी उपासना एवं सद्कर्मों को धारण करना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत