भारत अपने पड़ोसियों को भी देखता रहे
भारत की विदेशनीति जैसी 1947 में देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू जी के द्वारा तय की गयी थी कुछ कुछ वैसी ही चली आ रही है। यद्यपि इस विदेश नीति पर नेहरू जी का कोई अपना विशेष प्रभाव नही था वस्तुत: यह ब्रिटिशर्स के काल में जैसी थी न्यूनाधिक बाद में भी वैसी ही चलती रही। नेहरू के पश्चात नेहरू को एक ‘पूर्ण पुरूष’ घोषित और स्थापित करने का हरसंभव प्रयास किया गया। इसलिए बहुत सी चीजों पर ‘नेहरूवाद’ का काल्पनिक ठप्पा लगाया गया और वो हमारे सामने बड़े अदब से परोस दी गयीं। उन्हीं में से एक चीज विदेशनीति भी है। नेहरू जी को अपने पड़ोस में वही देश मिले थे जो 14 अगस्त 1947 तक ब्रिटिश भारत के पड़ोसी थे। हां, इसके पश्चिम में एक नया पड़ोसी देश इसी के कल तक के भूभाग पर अवश्य (पाकिस्तान के रूप में) पैदा हो गया, और उस नये पड़ोसी के पश्चिम में बसा अफगानिस्तान भारत से दूर हो गया। नेहरू को नये पड़ोसी और दूर हो गये पुराने पड़ोसी से ही स्वतंत्र रूप से अपनी विदेशनीति स्थापित या संचालित करने का अवसर मिला। इनमें से भी पाकिस्तान के साथ उन्होंने लेडी माउंटबेटन के दिमाग से व्यवहार करना आरंभ किया और यही कारण रहा कि भारत पाकिस्तान के प्रति आरंभ से अस्पष्ट और राष्ट्रीय हितों से समझौता करने वाली तुष्टिकरणवादी विदेशनीति का शिकार हो गया। अफगानिस्तान को हमने दूर का देश माना और पाकिस्तान को वैसे ही माना जैसे वह 1947 से पहले हमारा भूभाग था और हम पाकिस्तान की मांग करने वालों की चाटुकारिता में लगे रहते थे। हमने स्वतंत्रता के पश्चात बांग्लादेश भूटान के विलय प्रस्तावों को ठुकरा दिया बर्मा को हमने अपने आपसे दूर रखना आरंभ कर दिया। क्योंकि हमारे पुराने आकाओं का इन देशों के प्रति यही दृष्टिकोण था। जबकि भारत की आजादी के बाद इन देशों को भारत से विशेष अपेक्षाएं थीं। लेकिन हमने नेपाल को अपना पड़ोसी और धर्म का भाई होने के बावजूद केवल इसलिए अपने आपसे दूर कर दिया ताकि दुनिया हमें धर्म निरपेक्षता का वास्तविक पैरोकार कह सके । अपनों से हमने घृणा का और उपेक्षा का व्यवहार किया और उन्हें अपने आपसे दूर रखने में ही देश का हित समझा। उसी घृणा और उपेक्षा का परिणाम निकला कि धीरे धीरे हमारे पड़ोसी देश शत्रु राष्ट्रों की क्रीड़ास्थली बनने लगे। पाकिस्तान जो कि जन्मजात शत्रु था, वहां तो आतंकी शिविर भारत के विरूद्घ चलते ही रहे है नेपाल जैसे मित्र राष्ट्र के यहां भी आतंकी शिविर चलने लगे। आज का नक्सलवाद का चाहे जन्म कहीं भी हुआ, परंतु उसकी धायमां (माओवादी) तो नेपाल में ही रहती है। वो वहीं से इन के लिए दूध पानी की व्यवस्था कर रही है। नेपाल में 1 जून 2001 को शाही परिवार में खूनी खेल खेला गया। जब राजा वीरेन्द्र के बेटे दीपेन्द्र ने शाही परिवार के बहुत से सदस्यों की हत्या कर दी और फिर स्वयं की भी हत्या कर ली। तब वहां की गद्दी पर राजा वीरेन्द्र के भाई ज्ञानेन्द्र ने कब्जा कर लिया। बाद में राजा ज्ञानेन्द्र ने एक फरवरी 2005 को वहां की लोकतांत्रिक सरकार और उसके प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा को बर्खास्त कर दिया। यहां से नेपाल में माओवाद की खूनी कहानी का विधिवत आरंभ हुआ। पीछे से चीन ने दस्तक दी, भारत की सरकार ने अपनी दुविधा का इजहार किया और बहुत देर इस बात को समझने में लगा दी कि अब क्या किया जाए? लोकतंत्र बहाली के नाम पर भारत ने नेपाल को दी जाने वाली अपनी सैनिक सहायता रोक दी। राजा ने भारत की मनमोहन सरकार से कहा भी कि हमें सहायता न देने का अर्थ माओवादियों को सहायता देना होगा। उधर माओवादी जनता को निरंकुश बने राजा के प्रति यह समझाने लगे कि राजा की पीठ पर भारत का हाथ है। अपनी किरकिरी कराने के बाद हमारी आंखें खुलीं और डा. कर्णसिंह को मनमोहन सरकार ने काठमाण्डू रवाना किया। उन्होंने 19 अप्रैल को राजा को भारत का कड़ा संदेश दिया और लोकतंत्र बहाली के लिए दबाव बनाया। अंत में अप्रैल के अंतिम दिन वहां गिरिजा प्रसाद कोइराला की सरकार अस्तित्व में आयी। भारत तब सक्रिय हुआ जब काफी क्षति हो चुकी थी। नेपाल तब से अब तक भारत के प्रति बहुत बदल चुका है, वह भारत को अब अधिक अपनेपन के भाव से नही देखता। अब वहां विदेशी शक्तियों का प्रभाव है, जो भारत विरोधी गतिविधियों में भारत के भाई को ही लगा रही है। कारण कि भाई का मूल्य हमने सही समय पर सही नही आंका था। यही स्थिति न्यूनाधिक रूप से बर्मा की है। बर्मा को अंग्रेजों ने 1935 में भारत सरकार अधिनियम के अंतर्गत पृथक देश घोषित किया था। 1947 में इसे भारत से जुदा हुए 12 वर्ष ही हुए थे। उस समय तक बहुत से भारतीय बर्मा में रहते थे और स्वतंत्र भारत के आजाद होने पर वो उसे अपना घर मानते थे। पर हमारी नीति रही कि (वही अंग्रेजों वाली) तुम हमारे नही बल्कि एक पड़ोसी देश के नागरिक हो। इतिहास और भूगोल जिन लोगों में निकटताएं पैदा कर रहे थे उन्हें हमने अपने आकाओं की शत्रुतापूर्ण नीति का अनुकरण करते हुए अपने आप से दूर रहने के लिए प्रेरित और विवश कर दिया। इस देश को आजकल म्यांमार कहा जाने लगा है। आजाद होने पर बर्मा ने भारतीय नागरिकों के साथ अच्छा व्यवहार नही किया और वहां से अधिकतर भारतीय स्वदेश चले आए। यहां का स्वतंत्रता आंदोलन आंग सान के नेतृत्व में लड़ा गया। इन्हीं की बेटी आंगसान सू की हैं, जो कि इस देश में लोकतंत्र बहाली के लिए संघर्ष करती रही है। भारत ने बर्मा में लोकतंत्र बहाली के लिए अपना समर्थन समय समय पर व्यक्त किया है। लेकिन इस देश की अस्थिर राजनीतिक परिस्थितियों का लाभ भारत से अधिक चीन ने अपने हित में उठाया और जो बर्मी सेना भारत की ओर देख रही थी उसे चीन ने अपनी झोली में डाल लिया। फलस्वरूप वहां की सेना के लिए चीन हथियारों का एक महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता देश बन गया। फलस्वरूप 1935 तक भारत को ‘मादरेवतन’ मानने वाला बर्मा भी भारत विरोधी गतिविधियों का केन्द्र बन गया। 2004 में बर्मा के विदेशमंत्री सात दिन की भारत यात्रा पर आये थे तो उन्होंने जोर देकर कहा था कि-‘मैं भारत की जनता से यह कहना चाहता हूं कि मेरे देश का कोई द्वीप या म्यांमार की धरती का प्रयोग किसी भी शक्ति द्वारा भारत के विरूद्घ सैनिक अड्डे बनाने के लिए नही किया जाएगा। परंतु चीन इसके उपरांत भी नेपाल बर्मा सहित पाकिस्तान को भी भारत के विरूद्घ प्रयोग कर रहा है। भारत की विदेशनीति आज भी किंकर्त्तव्य विमूढ़ की सी स्थिति में है। पड़ोस के आतंकी शिविर अब घर में घुस आये हैं और माओवाद का लाल खूनी पंजा देश के अधिकांश जिलों पर अपना शिकंजा कसता जा रहा है। इधर हम हैं कि आतंकवाद के खिलाफ एक सर्वमान्य नीति तक बनाने में असफल रहे हैं। जैसा कि पिछले दिनों मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में देखा गया था। इन परिस्थितियों में हमारे लिए यह आवश्यक हो गया है कि हम दूर का देखने की बजाए अपने पड़ोस में देखने की नीति पर चलें और देश की सुरक्षा के लिए ठोस रणनीति बनाएं?