Categories
आज का चिंतन

राष्ट्रपति भवन के बारे में एक कड़वा सच

आज एक खास बात आपसे शेयर करना चाहता हूं ।
शायद आप में कई यह नहीं जानते होंगे कि हमारे देश का राष्ट्रपति जिस स्थान से बैठकर संवैधानिक रूप से देश का शासन चलाता है वह ऐसा स्थान है जिसका मुआवजा आज तक उसके वास्तविक मालिकों अर्थात किसानों को नहीं दिया गया है । इस स्थान को जबरदस्ती अंग्रेजों ने छीन कर यहां पर 1912 से 1920 के बीच वायसराय हाउस बनाया था। नॉर्थ ब्लॉक व साउथ ब्लॉक और देश के शासन के कई प्रतिष्ठान जहां पर आज स्थित हैं यह सब भी तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हमारे देश के किसानों से जबरदस्ती छीन कर यहां पर राजकीय भवनों का निर्माण किया था ।

यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि स्वतंत्र भारत की सरकारों ने भी आज तक यह नहीं सोचा कि जबरदस्ती कब्जाए गये इस विशाल भूभाग का मुआवजा लोगों को दे दिया जाए । जिनकी जमीन का मुआवजा उस समय उनके द्वारा न् लेने की स्थिति में सरकारी कोष में वापस जमा कर दिया गया था।

2012 में जब दिल्ली को देश की राजधानी बने हुए 100 वर्ष पूर्व पर तो मेरे पास हरियाणा के सोनीपत जिले के मालचा गांव से एक फोन आया । जिसमें एक दुखी व्यक्ति मेरे से कह रहा था कि आप एक बार हमारे गाँव आएं । हम आपको कुछ अपने दुख दर्द को बताना चाहते हैं ।

उस व्यक्ति के विशेष आग्रह पर मैं अपने कुछ साथियों के साथ वहां पर पहुंचा । तब उन लोगों ने जो कुछ बताया वह बड़ा दुखद था । उस समय जब देश का शासन दिल्ली के राजधानी के रूप में 100 वर्ष पूरे होने पर जश्न मना रहा था तो वे लोग इस बात पर दुख मना रहे थे कि उन्हें 100 वर्ष से किसी ने भी यह नहीं पूछा कि उन्हें दिल्ली को बसाने में उनके द्वारा दी गई जमीन का मुआवजा दे दिया जाए ।

हुआ यह था कि ये लोग मालचा नाम के गांव के निवासी थे । आज भी राष्ट्रपति भवन के पास मालचा हाउस नाम का एक स्थान है । यह वही स्थान है जहां पर यह गाँव हुआ करता था । अंग्रेजों ने गांव को जबरदस्ती यहां से उठाकर हटाने का प्रयास किया था। उस समय इस गांव में मात्र 85 परिवार रहते थे। जिन्होंने वहां से जाने से मना कर दिया तो अंग्रेजों ने रातों-रात वहां पर तोपें तान दीं और गांव वालों से कहा कि या तो भाग जाओ नहीं तो सारे उड़ा दिए जाओगे ।

डर के मारे गांव के लोग अपने गाँव को खाली कर वहां से भाग गए और उन्होंने दिल्ली की सीमाओं से दूर जाकर सोनीपत में मालचा के नाम से ही एक नया गांव बसा लिया । लोगों का कहना था कि हमें हमारी जमीन का कोई मुआवजा नहीं दिया गया और जहां आज राष्ट्रपति भवन है , साथ ही नॉर्थ ब्लॉक साउथ ब्लॉक आदि वह स्थान हैं जहां से देश का शासन चलता है , वे सारे के सारे हमारे गांव की भूमि में ही बने हुए हैं । आज शायद ही कोई जानता हो कि बुद्धा का नाम का उनका एक बुजुर्ग था उसी के नाम से बुद्धा गार्डन दिल्ली में है ।

उनका यह भी कहना था कि 1947 के बाद से लेकर आज तक वह लगभग हर सरकार के प्रधानमंत्री से मिले हैं परंतु किसी ने भी उनकी बात पर गौर नहीं किया । मैंने उनकी जमीन के सरकारी कागजात देखे तो सचमुच उनके गांव का मुआवजे का सारा पैसा 1913 की जनवरी में सरकारी कोष में उल्टा जमा कर दिया गया था । क्योंकि गांव के लोगों ने मुआवजा लेने से मना कर दिया था।

और हां एक बात और याद आई । नेहरू जी अपनी अचकन पर जिस गुलाब के फूल को लगाया करते थे उनके लिए गुलाब का वह फूल भी उस समय रोजाना इसी मालचा गाँव से ही आया करता था । नेहरू जी ने यहां के गुलाब को तो पसंद किया पर यहां के लोगों के चेहरे भी गुलाबी हो जाएं – इस ओर ध्यान नहीं दिया।

मैंने इस सारे समाचार को अपने ‘उगता भारत ‘ समाचार पत्र में प्रमुखता से प्रकाशित किया था । परंतु सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी । व्यवस्था गूंगी बहरी बनी रही। अब आप ही बताएं कि जिस देश का राष्ट्रपति जबरदस्ती कब्जा की गई भूमि में बैठा हो उसमें भूमाफिया और गैर कानूनी ढंग से काम करने वाले लोगों का वर्चस्व न होगा तो और कहां होगा ? क्या आपकी दृष्टि में यह उचित नहीं होगा कि आज की केंद्र सरकार मालचा गांव के लोगों को ससम्मान बुलाए और इस गांव के लोगों का देश के शासन पर जो ऋण है उसे चुकता करे ।

जब तक मालचा गांव के लोगों को उनका मुआवजा नहीं मिलता है तब तक समझ लेना चाहिए कि इस देश में किसी भी व्यक्ति को न्याय नहीं मिल पाएगा। क्योंकि शासन का संचालन जहां से होता है उस भूमि का पवित्र होना बहुत आवश्यक है । यदि राजा के राजभवन पर ही लोगों की अमंगलकारी कामनाओं का श्राप पड़ा हो तो देश का शासन कभी भी मंगलकारी नहीं हो सकता ?

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

Comment:Cancel reply

Exit mobile version