द्वेष करै साधु नही, ज्ञानी नही कहाय
बुद्घि में जो कुशाग्र हो,
नीति में गंभीर।
मनोभाव प्रकटै नही,
राज्य के रक्षक धीर।। 106।।
दण्ड-क्षमा का भान हो,
कोष का होवै ज्ञान।
प्रजा को समझै पुत्रवत,
राजा वही महान।। 107।।
भृत्यों के जो संग में
करै ऐश्वर्य उपभोग।
ऐसे राजा के राज में,
खुशहाली के योग।। 108।।
राजा का भेदी मंत्री,
पति की भेदी नार।
भ्राता पुत्र के संग में,
करो कुशल व्यवहार।। 109।।
बूढ़े बच्चे दीन पर,
रहना सदा उदार।
इनकी दुआएं ही बनें,
नौका की पतवार।। 110।।
सागर जैसा विशाल बन,
सरिता दौड़ी आय।
तुझसे मिलकर तुझमें खोकर,
गौरव से मुस्काय।। 111।।
व्यर्थ कलह में मत गवां,
ऊर्जा है बे मोल।
मूर्खों के संग मत लड़ै,
लोग उड़ावै मखौल ।। 112।।
नपुसंक नर को नारियां,
जैसे देवें त्याग।
तेजहीन राजा बनै,
तो प्रजा उतारै पाग।। 113।।
सुख दुख और दरिद्रता,
कोई पूर्वजन्म का कर्म।
मूरख तो समझै नही,
पर ज्ञानी जानै मर्म।। 114।।
झूठे झांसे दे नही,
अपना वचन निभाय।
उत्तम वाणी कारनै,
शत्रु मीत हो जाए।। 115।।
व्यवहार में होय पवित्रता,
मित्र करें विश्वास।
धीर पुरूष के गेह में,
लक्ष्मी करै निवास ।। 116।।
कृतघ्न और निर्लज्ज हो,
जिसका दुष्टï स्वभाव।
स्वार्थी और कंजूस को,
कभी न मीत बनाय।। 117।।
करै क्रोध निरीह पै,
और घर में हो सांप।
सुख से वो सोवै नहीं,
मन में रहै संताप।। 118।।
मूर्खों का शासन जहां,
न्याय का हो आभाव।
दरिया भीतर डूबती,
ज्यों पत्थर की नाव ।। 119।।
महिमा जिसकी गावते,
जुआरी वेश्या चाटुकार।
इनका निश्चित नाश हो,
झुलसते रिश्तेदार।। 120।।
बुद्घि सदा विकृत करै,
जब हो अहम सवार।
पल में राजा बलि का,
तोड़ दिया अहंकार ।। 121।।
भक्ति होवै भाव तै,
बणज मधुर व्यवहार।
रिश्ते जीवें प्रेम तै,
भूलो मत दरकार ।। 122।।
वाणी के उद्वेग से,
प्रेम खतम हो जाए।
वाणी ऐसी बोलिए,
जो प्रेम की उमर बढ़ाय।। 123।।
गलत गति के कारनै,
मन होवै बलहीन।
धन यश और सुकून को,
पल में लेवै छीन।। 124।।
दान देय प्रिय बनै,
कोई मीठे बोल।
सर्वश्रेष्ठ नर है वही,
विचार देय अनमोल।। 125।।
द्वेष करै साधु नही,
ज्ञानी नही कहाय।
कुटिलता के कारनै,
पाखण्डी कहलाय।। 126।।