हे कबीर ! लौट आओ
जरूरत है मूर्दों में जान फूँकने की
डॉ. दीपक आचार्य
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हे कबीर ! तुम्हारे जाने के बाद आज फिर तुम्हारी याद में बेसब्र हैं हम। आज वही युग फिर लौट आया है जो तुम्हारे समय था। उन दिनों विषमताओं का रंग-रूप कुछ और किस्म का था, आज आधुनिकताओं की चाशनी, फैशनी फ्राई और जाने किन-किन मिक्सचरों के इस्तेमाल से रंगीन और लजीज हो उठे समाज के साथ ही कई नई-नई समस्याओं,दुरावस्थाओं, मनोमालिन्य, ऎषणाओं, औचित्य और अनौचित्यपूर्ण आशाओं और अपेक्षाओं का पल्लवन-पुष्पन हो रहा है।ऎसे-ऎसे ठूँठ सर उठाने लगे हैं जो तुम्हारे वक्त अधमरे या मरे हो गए थे लेकिन जलाने से शेष रह गए थे। उन पर जाने कितनी बिष बेलों ने कब्जा कर लिया है और ठूंठों के जख्म हरे हो गए हैं, जान आ गई है उनमें। रिसने लगा है नीला जहर इनकी शिराओं से। और जमीन पर गिरने वाली हर बूँद जन्म दे रही है किसी ऎसे रक्तबीज को, जो दुनिया में अंधेरों का नाम रौशन करने के लिए काफी है।उन दिनों की सारी कुप्रथाओं, बुराइयो और विद्रुपताओं ने नए रूप-रंग धारण कर समाज की जड़ों को खोखला करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। नए जमाने की नई समस्याएं नए आकारों में सामने हैं। इनका रंग तो सुनहरा दिखता है लेकिन इनका केमिकल ऎसा कि आदर्शों और नैतिकताओं की पूरी की पूरी नदी का रंग मटमैला करने को काफी है।आदमी ही क्यों, जमाना भी बदल चुका हैं। परिवेश की हवाओं में जाने कौनसी नई गैसों का समावेश हो चुका है जो नाक से नीचे उतरते ही घुटन का अहसास कराती है। जानदार आदमी बेजान होकर जीने लगा है और आकाओं के बिजूकों की हालत ऎसी मस्त हो गई है कि लगता इनमें जान ही आ गई हो।अब आदमी की बजाय रोबोट काम कर रहे हैं। अपने स्वार्थों में डूबे आदमियों के लिए किसी का कद या वजन नापने का कोई पैमाना नहीं रहा है। जो अपने काम निकलवा सकता है, काम आ सकता है और काम कर या करवा सकता है वही श्रेष्ठीजन हो चला है, भले ही वो चोर-उचक्का, डाकू-बेईमान और कितना ही असामाजिक या भ्रष्ट क्यों न हो।उन लोगों की पूजा होने लगी है जो सरेआम तिरस्कृत होने लायक हैं। तुम्हारे ही कथन ‘ हमन को इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या…’ का अर्थ अब लोग नए संदर्भों के साथ निकालने लगे हैं। अब इश्क में भी दिल या दीवानगी का जोर नहीं रहा बल्कि पैसा ही सब कुछ हो गया है। हृदय पर जेब हावी हैं और मन पर पर्स। शरीर के लिए तो कहना ही क्या। जो भी हमारे काम का है वह उसी के काम का हो जाता है। आधुनिकताओं के जंगल में सैर करते हुए हम वे सारे काम करने लग गए हैं जिनसे क्षणिक सुख की प्राप्ति होती है। हमें हमारे स्वार्थों के पूरे होने, कद-पद और मद पाने की ही इच्छा शेष रह गई है। भले ही इसके लिए हमें अपने सिद्धान्तों की बलि ही क्यों न चढ़ा देनी पड़े।सिद्धांतवाद खो चला है और उसका स्थान ले लिया तात्कालिक स्वार्थवाद ने। यहाँ अब कोई किसी का आत्मीय नहीं रहा। स्वार्थ पूरा करने और कराने वाले ही एक-दूसरे के आत्मीय और कुटुम्बी हैं और वह भी तब तक कि जब तक दोनों के मध्य स्वार्थ पूत्रि्त का अनुबंध समाप्त न हो जाए। फिर अपनी-अपनी राह। यों ही लोग राह भी बदलने लगे हैं,आदर्श और प्रतिमान भी।धर्म के नाम पर धंधों की बहार आई हुई है। हमारे यहाँ बाबाबों, महंतों, कथावाचकों, पण्डों और पुजारियों को अब न भगवान से मतलब रहा है, न त्याग-तपस्या से और न ही समाज को दिशा दिखाने से। इन सभी की दिशाएं और रास्ते उसी तरफ हो चले हैं जहां उन्मुक्त भोग-विलास, पैसों की माया, स्वर्गीय सुख और वह सब कुछ हो जो एक आम आदमी को आनंद पाने के लिए चाहिए।बेचारे कुछेक ही लोग ऎसे बचे हैं जिन्हें सज्जन या महात्मा कहा जा सकता है। लेकिन पब्लिसिटी के स्टंट से दूर रहने की वजह से इन बेचारों का कोई प्रचार नहीं, यों ये लोग भी प्रचार के मोहताज नहीं हैं। इनकी गंध परिवेश से लेकर आदमी के हृदयों तक में स्वाभाविक रूप से पसरी हुई जरूर है। फिर इनका लक्ष्य परमात्मा है, भिखारियों या दूसरे लोगों की भीड़ थोड़े ही है।अंधविश्वास, रूढ़ियाँ, आडम्बर और पाखण्ड के जिन बीजों को कबीर के युग में कुचल देने के प्रयास हुए थे वे बीज अब फिर अंकुरित होकर वटवृक्ष बनने लगे हैं। समाज के दो भाग होते जा रहे हैं पूज्य और सामान्य। एक किस्म ऎसी है जो अपने आपको पूजवाने और लोकप्रियता पाने के लिए जो जतन कर रही है वे आज से पहले शायद ही किसी के जेहन में हों। लोग चरण स्पर्श से लेकर वे सब कर और करवा रहे हैं जिनसे आदमी की जायज-नाजायज इच्छाओं की पूत्रि्त हो सके। इस मामले में आदमी-आदमी में कोई अंतर रहा ही नहीं है। जहाँ स्वार्थ की बात आती है सारे के सारे एक-दूसरे के लिए तैयार हैं।दूसरी किस्म हम जैसे सामान्यजन है जो तुम्हारे युग से लेकर आज तक विपन्नता और विषमताओं के साथ ही जी और मर रहे हैं। बीच की एक किस्म ठीक तुम्हारे जमाने की तरह ही आज भी है जो सब कुछ जानते-बूझते हुए भी अधमरी होकर चुपचाप मूकदर्शक बनी हुई है।इस प्रजाति के पास सोचने-समझने और करने को खूब है, बावजूद इसके कुछ नहीं कर पाने का वृहन्नला-चरित्र ओढ़े हुए ये लोग मूर्दों की तरह यहाँ-वहाँ यों ही पड़े हुए हैं। समाज की अपेक्षाओं पर जिनको खरा उतरना चाहिए कि उन पर शेष समाज को रोना आ रहा है। इन नपुसंकों से देश या समाज को कोई आशा नहीं रही है अब।चारों तरफ विवशता का अंधकार छाया है, वृहन्नलाओं का नंगा नृत्य छाया हुआ है और हालात ऎसी होती जा रही है कि कहीं दूर से भी कोई आशा की किरण नज़र नहीं आ पा रही। इसलिए हे कबीर, एक बार फिर हम पर दया करो, लौट आओ, कुछ करो, यह समाज और यह धरती तुम्हें पुकार रही है।