लोकतंत्र में प्रमुख रूप से द्वीदलीय व्यवस्था होती है। इसमें एक सत्तापक्ष होता है तो दूसरा विशेष पक्ष, अर्थात वह पक्ष जो सत्तापक्ष की नीतियों की विशेष पड़ताल करे और राष्ट्रहित में यथावश्यक संशोधन प्रस्तुत कर नीति या किसी विधेयक को राष्ट्रोचित बनाने में विशेष सहयोग करे। स्वस्थ लोकतंत्र की बुनियाद ही ये सोच है कि जनहित में हम नीति बनाएं और आप उसमें हमारी कमियों को ढूंढ़कर उसे और भी सुंदर बना दें। इस कसौटी पर जब हम भारत के लोकतंत्र को कसकर देखते हैं तो निराशा ही हाथ आती है। बहुत सी विसंगतियों, कुरीतियों, दोषों और पूर्वाग्रहों
भारत के इसी लोकतंत्र के लिए अब खबर आ रही है कि पुन: तीसरा मोर्चा स्थापित करने की कुछ नेताओं ने कवायद आरंभ कर दी है। भारतीय राजनीति में एक राजनीतिक विचारधारा की प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस है, तो दूसरी की भाजपा। इसके पश्चात एक तीसरी विचारधारा कम्युनिस्टों की है। चौथी विचारधारा भारत में कोई नही है। शेष जितने भी राजनीतिक दल हैं, उन सबकी नीतियां पहली और दूसरी विचारधारा की प्रतिनिधि कांग्रेस और भाजपा से ही मिलती जुलती हैं। कुल मिलाकर भारतीय राजनीति के बगीचे में कांग्रेस और भाजपा नाम के दो मोर नाच रहे हैं। तीसरा मोर यद्यपि है परंतु अभी तक वह अपने बलबूते पर कभी सत्ता के निकट नही पहुंचा, इसलिए वह स्वयं ही अपने आपको तीसरा मोर (चा) नही मानता। इस तीसरे मोर को कभी जनता ने नही बनाया। यह किसी कंपनी का तैयार शुदा माल नही है। इसे कुछ मिस्त्री ‘तिकड़म और जुगाड़’ से बनाने का प्रयास करते आए हैं। इसलिए इसकी टांग किसी मार्का की होती है, बाजू किसी अन्य मार्का की, दिल किसी अन्य मार्का का, दिमाग किसी अन्य मार्का का तथा पेट, आंख, कान, नाक आदि किसी अन्य मार्का के होते हैं। इसीलिए भारत में इस तीसरे मोर को कुछ लोगों के द्वारा ‘भानुमति का कुनबा’ कहा गया है, कुछ के द्वारा स्वार्थियों का जमावड़ा कहा गया है, तो कुछ के द्वारा अवसरवादी नेताओं का सत्ता सुख भोगने के लिए ऐसा अनैतिक और अवैधानिक उपाय माना गया है जो इतनी सावधानी से अपनाया जाता है कि अवसरवादी अवसरवादी नही दीखते और उनकी सारी अनैतिकता और अवैधानिकता भी नैतिक और वैध परिलक्षित होती है।
सामान्यत: तीसरे मोर्चे की बात भारत में वही नेता करते आए हैं जो स्वयं बंधा बंधाया रूपया नही होते अपितु पंजी, दस्सी, दुअन्नी या चवन्नी की औकात रखते हैं और सारी पंजी दस्सी, दुअन्नी या चवन्नी को मिलाकर एक रूपये बनाने और दिखाने का प्रयास करते हैं। दूसरे शब्दों में जनता को बहकाने व बरगलाने का काम करते हैं। विखंडित सोच के कारण टूटे हुए शीशे को जोड़कर जनता को दिखाते हैं कि देखो हमने कितना बड़ा (शीशे के टुकड़े की भांति टूटे पड़े नेता एक साथ बैठ गये) काम कर दिखाया है। अब तो बस तुम हमें वोट दे दो, और हम हैं कि तुम्हारा कल्याण कर देंगे। वास्तव में पूरे देश की सवा अरब जनता को अपने पुरूषार्थ और विशेष नीतियों से प्रभावित करने में अक्षम सिद्घ हो चुके नेता या राजनीतिक दल ही तीसरे मोर्चे के गठन की बात करते आए हैं। अब भी ऐसे नेता ही तीसरे मोर्चे के गठन का प्रयास कर रहे हैं। वास्तव में भारत में तीसरे मोर्चे के माध्यम से सत्ता को पाने के और अपनी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के अवसर कई बार कई ऐसे लोगों को मिल चुके हैं, जिन्हें वास्तव में नही मिलने चाहिए थे। इस प्रकार सत्ता पाने का यह एक सरल रास्ता है। पहली बार ‘सत्ता के लिए एकता’ और विभिन्न दलों का सांझा प्रयास 1977 में हुआ था। तब आपातकाल के कारण लोग इंदिरा गांधी के शासन से दुखी थे इसलिए सत्ता विरोधी मानसिकता उस समय लोगों की बनी हुई थी। विपक्ष के सारे नेता इंदिरा गांधी ने जेलों में ठूंस दिये थे। आम चुनाव के समय जब ये नेता रिहा किये गये तो इन्होंने समय कम होने के कारण और इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाने के लिए राजनीति में पहली बार एक अद्भुत परीक्षण किया और पांच दलों ने मिलकर जनता पार्टी बनायी। प्रयोग सफल रहा, इंदिरा सत्ता से हटा दी गयीं, बस यहीं से इस प्रयोग को बार-बार दोहराने की राजनीतिज्ञों की प्रवृत्ति का विकास हुआ। बाद में वीपी सिंह ने 1977 के प्रयोग का निराशाजनक परिणाम देखकर भी सत्ता प्राप्ति के लिए उसी प्रयोग को फिर से अपनाया। क्षेत्रीय क्षत्रपों तक को उनकी दो दो पैसे की कीमत के आधार पर रूपया में हिस्सा दिया गया। हर पंखुड़ी अलग अलग रखी गयी, बस ऊपर से संतरा एक दिखाया गया। परिणाम पहले वाले 1977 के परीक्षण से भी बुरा आया। पर जिन नेताओं के मुंह खून लग चुका था वो बाज नही आए। ड्राइंग रूम से ही राजनीति करने वाले निकम्मे, आलसी और प्रमादी राजनीतिज्ञ इस अलोकतांत्रिक प्रयास को बार-बार दोहराते रहने के अभ्यासी और आदी हो गये हैं। ये सारे एक साथ बैठते हैं और गुप्त मंत्रणाओं के माध्यम से सत्ता में अपनी अपनी भागीदारी सुनिश्चित करते हैं। प्रधानमंत्री के दावेदार इस ‘तीसरे मोर’ के पास थोक में होते हैं। पर समझौता सदा ही सुयोग्यतम के नाम पर नही, अपितु अयोग्यतम के नाम पर किया जाता है। जिससे कि दस पैसे की कीमत रखने वाला नेता उस दो पैसे की कीमत के पी.एम. को हड़का सके और जब चाहे अपने पैरों में उसे दण्डवत प्रणाम करने के लिए विवश कर सकें। एच.डी. देवेगौड़ा और चंद्रशेखर की सरकारें गिरायीं गयीं तो बेचारे दोनों ही भरी संसद में सरकार गिराने वालों से पूछते रहे कि आखिर हमारा दोष क्या है? यदि आप हमें हमारा दोष बता दें तो हम दण्डवत करने को भी तैयार हैं। लेकिन सरकार गिराने वालों ने दोष नही बताया और कह दिया कि सत्ता से हटो, तुम्हारी बारी समाप्त हुई, अब हमारी बारी है। देश की जनता की भावनाओं से किया गया ये क्रूर उपहास है। जिसे ये देश 1977 से कई बार देख चुका है अब फिर कुछ राजनीतिज्ञ भाजपा के और कांग्रेस के सामने अपना तीसरा मोर नचाने की कोशिशों में लग गये हैं। जद(यू) के नीतिश कुमार के सिर में सबसे ज्यादा पीड़ा है। सिर:शूल से पीड़ित नीतीश कुमार भाजपा में मोदी की स्वीकार्यता को पचा नही पा रहे हैं। इसलिए धर्मनिरपेक्षता के नाम पर फिर उन्होंने तथा कुछ अन्य राजग घटकों ने तीसरे मोर्चे की बात कहनी आरंभ की है।
नीतीश कुमार तीसरा मोर्चा बनाएं या ममता बैनर्जी बनायें, इस पर हमें आपत्ति नही है। यह उनका अपना अधिकार है कि वह जनता के सामने वोट मांगने के लिए किस रूप में जाते हैं। हमारा कहना तो केवल इतना है कि यदि वह तीसरे मोर्चे की बातें करने ही लगे हैं, तो पहले पुराने अनुभवों को देख लें कि जनता के लिए यह तीसरा मोर्चा कितना लाभकारी रहा है। नरेन्द्र मोदी का सामना शरद यादव और नीतीश कुमार तीसरे मोर्चे के माध्यम से करें, यह उचित नही है। उचित यह होगा कि पूरे दमखम के साथ नरेन्द्र मोदी को लोकप्रियता में पीछे धकेल दें और कांग्रेस से जाती हुई सत्ता को मोदी से रोककर अपने पाले में ले आयें। कई संजीदा लोग शरद यादव में भी एक गंभीर पी.एम. के लक्षण देखते हैं। नि:संदेह उनकी योग्यता असंदिग्ध है। परंतु अपनी योग्यता को सिरे चढ़ाने के लिए वह निराशाजनक तीसरे मोर्चे को अपना पायदान बनायें यह उचित नही है। क्योंकि इस प्रकार के मार्चे में उन्हें विभिन्न महत्वाकांक्षाओं से दो चार होना पड़ेगा और ये सारी प्रतिभाएं तराजू में तोले जाने वाले मेंढक हैं, जिन्हें तोला ही नही जा सकता। लोकतंत्र का तकाजा विभिन्न महत्वाकांक्षाओं को उनकी कीमत दे देकर संतुष्ट करना नही होता है, अपितु लोकतंत्र की अपेक्षा होती है, अपने आसपास बह रही विभिन्न महत्वाकांक्षाओं को अपनी महत्वाकांक्षा के अधीन ले आना अर्थात अपना वर्चस्व स्थापित करना और दूसरों से उसे स्वीकार करवाना। तभी शासन में स्थायित्व उत्पन्न होता है। महत्वाकांक्षाओं में साम्यता आते ही दूसरी महत्वाकांक्षा उभरने का प्रयास करने लगती है और समय आते ही आपकी सत्ता पलट देती है। इसे आप केकड़ों का खेल भी कह सकते हैं। जैसे एक केकड़ा ऊपर चढ़ते किसी दूसरे केकड़े की टांग खींचकर उसे नीचे गिरा देता है और दूसरा तीसरे को चौथा तो चौथे को पांचवां इसी प्रकार गिराता देखा जाता है। उसी प्रकार जब समकक्ष प्रतिभाएं और महत्वाकांक्षाएं एक पात्र में डाली जाती हैं, तो वो ऐसी ही केकड़ा वृत्ति का प्रदर्शन करती है। अभी तक के तीसरे मोर्चों की कार्यशैली ऐसी ही रही है। इसलिए केकड़ों के सभागार में शरद यादव जैसे राष्ट्रीय नेता को जाने से बचना चाहिए। नीतीश कुमार यदि उन्हें इस सभागार में ले जा रहे हैं तो नीतीश के नरेन्द्र मोदी से कुछ व्यक्ति गत मतभेद इसके पीछे एक कारण हो सकते हैं। जिन्हें अधिक तूल नही दिया जाना चाहिए। कांग्रेस राजनीतिक दलों की नजरों में इस समय डूबता जहाज है। इसलिए उसकी ओर गठबंधन के लिए कम हाथ बढ़ रहे हैं। यद्यपि राजद के लालू कांग्रेस के समोसे में स्वयं को ‘आलू’ की तरह खपाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन कांग्रेस देशी ‘लालू और आलू’ से परहेज करना ही उचित समझ रही है। फिर भी कांग्रेस को हलके से नही लेना चाहिए। 2014 दूर है और परिणाम कुछ भी आ सकते हैं। वह आज भी भारतीय राजनीति का पहला मोर है और उसके नाच को देखने वाले पर्याप्त हैं। अब अंत में दूसरे मोर पर भी नजर डाल लें। आडवाणी ने भाजपा के किले की कई दीवारों को स्वयं ही गोला दाग दागकर पहले तो क्षतिग्रस्त किया और अब गोरा बादल की तरह रात में भी किले का निर्माण करा रहे हैं। उन्हें और भाजपा को सावधान रहना होगा-क्योंकि शत्रु रात में भी गोरा बादल को खत्म कर सकता है। किले की ढहती दीवारें शुभ संकेत नही हैं-निर्माण कम और विध्वंस अधिक हो रहा है। जबकि निर्माण अधिक और विध्वंस कम होना चाहिए। अब तो केवल निर्माण ही निर्माण होना चाहिए नही तो ‘निर्वाण’ भी हो सकता है। तीसरे मोर के नचाने की कार्यवाहियों को भाजपा गंभीरता से ले।