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अध्याय 20
अद्वीतीय बलिदान
बंदा वीर बैरागी को गिरफ्तार करके मुगल सैनिकों ने उसे काजियों के समक्ष प्रस्तुत किया । बंदा बैरागी की गिरफ्तारी मुगल सैनिकों के लिए बहुत बड़े उत्सव का कारण बन गई थी । क्योंकि उन्हें यह सफलता बहुत भारी हानि के पश्चात मिली थी । यदि इस समय भी सिक्ख लोग इस नरकेसरी का साथ देते तो मुगलों के लिए कदापि यह संभव नहीं होता कि वह बंदा बैरागी को गिरफ्तार कर पाते । जिस काम के होने की वह आशा त्याग चुके थे और अब उसे वह करने में सफल हो गए थे तो भारी उत्सव मनाया जाना स्वाभाविक था। किसी भी मुगल को अपनी आंखों पर यह विश्वास नहीं हो रहा था कि हम अपने सामने जिस विशालकाय व्यक्तित्व के स्वामी वैरागी को देख रहे हैं क्या वास्तव में वह वही बैरागी है जिसके नाम से ही कभी उनकी कंपकंपी छूट जाती थी ? मुगल सैनिकों में हमारे इस राष्ट्रनायक की झलक पाने की होड़ लग गई थी । वह एक बार बंदा बैरागी की झलक पा लेना चाहते थे। वह जानते थे कि बंदा बैरागी के साथ क्या होने वाला है ? वह एक बार हमारे इस महान शौर्य संपन्न , वीर स्वतंत्रता सैनानी , हिंदूराष्ट्र के स्वप्नद्रष्टा के दर्शन इसलिए कर लेना चाहते थे , जिससे कि उन्हें यह विश्वास हो जाए कि वास्तव में भारत का वह शेर उनके पिंजरे में है , जिसके नाम तक से वह भयभीत हो जाते थे ।
होता नहीं विश्वास था
कि हो गया कुछ खास था ।
जो भय का कभी पर्याय था ,
आज वही उनके पास था ।।
देश में हर्ष और शोक की ,
अब आई अजब घड़ी थी ।
मुस्लिम मना रहे थे खुशी ,
हिंदुओं को जान की पड़ी थी ।।
जैसे ही बंदा वीर बैरागी को काजियों के समक्ष प्रस्तुत किया गया काजियों ने उसके सामने भी अपना वही परंपरागत विकल्प रखा कि या तो इस्लाम स्वीकार करो या मृत्यु के लिए तैयार हो जाओ । काजियों को भी बंदा वीर बैरागी के अपने समक्ष प्रस्तुत करने की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा थी । वह भी उसे एक बार जी भर देख लेना चाहते थे। यही कारण था कि जैसे ही हमारे इस महानायक को काजियों के समक्ष प्रस्तुत किया गया वैसे ही काजियों ने उसे पैरों से लेकर सिर तक बड़े ध्यान से देखा। अबसे पहले संभवत: उन्होंने भारत के इस शेर को कभी देखा नहीं था । आज वह उसे जी भर इसलिए देख लेना चाहते थे कि भारत का यही वह शौर्यपुत्र है जिसके कारण मुसलमान हिंदुओं पर अत्याचार करना भूल गए थे और उन्हें लगने लगा था कि अब या तो यह देश छोड़ना पड़ेगा या फिर अत्याचारों पर पूर्णविराम लगाना पड़ेगा ।
काजियों ने भारत के महान स्वतंत्रता सेनानियों अथवा योद्धाओं के समक्ष अब से पूर्व भी अनेकों बार यह विकल्प रखा था कि या तो इस्लाम स्वीकार करो या मृत्यु का वरण करो । वह जानते थे कि भारत के किसी भी योद्धा ने मृत्यु से डरकर अब से पूर्व इस्लाम स्वीकार नहीं किया था । यदि फांसी के फंदे पर कोई भारतीय योद्धा पहुंच गया तो उसने या तो फांसी के फंदे को चूमा या फिर मुगलिया अत्याचारों को सहन कर अपने प्राण त्याग दिए । उसने अनेकों प्रलोभनों के रहते हुए भी इस्लाम स्वीकार नहीं किया , न ही किसी प्रकार के अत्याचार से भयभीत होकर निज धर्म को त्यागा । उन्हें पता था कि बंदा वीर बैरागी भी उनके प्रस्ताव को स्वीकार करने वाला नहीं है और यदि वह कुछ स्वीकार करेगा तो मृत्यु के अतिरिक्त कुछ स्वीकार नहीं करेगा । इसके उपरांत भी उन्होंने अपना परंपरागत प्रस्ताव बंदा बैरागी के समक्ष इसलिए प्रस्तुत किया कि यदि वह इस्लाम स्वीकार कर लेता है तो उसकी ही तलवार से उसी के धर्मबंधुओं का नरसंहार कराया जा सकेगा।
काजियों के प्रस्ताव को सुनकर बंदा वीर बैरागी ने सहर्ष मृत्यु का वरण करने पर अपनी सहमति दी । काजियों ने हिंदू वीर की इस धृष्टता पर झुंझलाकर उसे तथा उसके अन्य सभी साथियों को यथाशीघ्र मृत्युदंड देने का निर्णय लिया । एक सच्चे योद्धा और एक सच्चे संत के रूप में बैठे बाबा बैरागी और उनके अन्य साथियों पर इस दंड का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अब वह मानसिक रूप से मृत्यु के लिए तैयार हो चुके थे और इस नाशवान चोले को बड़े सहज भाव से रख देना चाहते थे । उन्होंने मन बना लिया था कि अब इस चोले का नाश होने का समय आ गया है । इसके पश्चात् फिर नया चोला पहनकर इन विदेशी अत्याचारी शासकों का अपने देश से सफाया करने के अभियान में लगेंगे। वे समझ गए थे कि उन्होंने हमारे इस शरीर को गिरफ्तार किया है ना कि हमारी आत्मा को गिरफ्तार किया है । आत्मा तो स्वतंत्र है । वह स्वतंत्र होकर अभी इनके पंजों और पिंजड़ों से मुक्त होते ही नया शरीर धारण करेगी । वह नया शरीर फिर इन दुष्टों का संहार करने में हमारे लिए सहायक बनेगा। यही कारण था कि उन्होंने मृत्युदंड को सुनकर अपनी प्रसन्नता का परिचय दिया।
अशफाक उल्ला खान ने बड़ा सुंदर लिखा है :–
कस ली है कमर अब तो कुछ करके दिखाएंगे , आजाद ही हो लेंगे या सर ही कटा देंगे ,
हटने के नहीं पीछे डरकर कभी जुल्मों से ,
तुम हाथ उठाओगे हम पैर बढ़ा देंगे ।
जब बंदा वीर बैरागी और उसके अनेकों साथियों को काजियों ने मृत्युदंड दिया तो मृत्युदंड पाने वाले उन सभी हिंदू स्वतंत्रता सेनानियों में एक 16 वर्ष का वीर बालक भी था । कहा जाता है कि इस वीर बालक की बूढ़ी मां रोती चिल्लाती वधिकों के पास पहुंची और कहने लगी कि – ” मेरा बेटा निर्दोष है । इसे बिना किसी अपराध के ही पकड़ लिया गया है । यह बैरागी का सिक्ख नहीं है । यदि इसे आप छोड़ देंगे तो बड़ी कृपा होगी । ” उसके अनुनय – विनय करने व रोने – पीटने से वधिकों ने उसकी बात को मान लिया ।
अतः जब उस वीर बालक की बारी आयी तो जल्लादों ने उसे छोड़ दिया । इस पर बालक ने कहा कि – ” मेरे लिए आप लोग क्यों विलंब किए जा रहे हो ? मैं शीघ्र स्वर्गारोहण करना चाहता हूँ । मुझे आप यथाशीघ्र मृत्युदंड दें । ” इस पर उन वधिकों में से किसी ने उस बच्चे को बताया कि – ” तुम्हारी माता ने तुम्हारी प्राण रक्षा के लिए प्रार्थना की है। उसने हमको सच बता दिया है कि तुम निर्दोष हो । तुमने बैरागी का साथ कभी नहीं दिया । इसलिए हम तुमको मृत्युदंड से मुक्त करते हैं ।”
इस पर उस वीर बालक ने उत्तर दिया कि – ” मेरी मां यदि ऐसा कहती हैं तो गलत कहती हैं । मैंने सहर्ष बैरागी का साथ दिया है ।, बंदा वीर बैरागी मेरे नेता हैं और मैंने देश के लिए उनके साथ मिलकर कार्य किया है ।” तब उस वीर बालक ने अपनी माता को भी संबोधित करते हुए कहा कि – मां ! तू बड़ी हत्यारी है , जो मुझे स्वर्ग से निकाल नरक में फेंक देना चाहती है । पुत्र मोह में आकर तू मेरा अधिकार मुझसे छीन लेना चाहती है । तुझे इस समय ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए , अपितु इस बात पर गर्व करना चाहिए कि तेरा बेटा देश व धर्म की रक्षा के लिए स्वर्गारोहण कर रहा है। ”
इस पर वह बूढ़ी मां रोती हुई परे हट गई। तब हत्यारों ने बालक की वीरता को देखते हुए उसे उसकी इच्छा के अनुसार स्वर्ग पहुंचा दिया । मां अपनी ममता के वशीभूत होकर भावुकता में अपना धर्म भूल गई ।परंतु वीर बालक ने अपना धर्म निभाकर देश व धर्म की रक्षा की । बालक ने मां की ममता का सम्मान करते हुए उसकी आंखें खोल दीं कि जब देश – धर्म की रक्षा व माँ भारती के सम्मान की रक्षा का प्रश्न उपस्थित हो तो उस समय मां की ममता गौण हो जाती है , क्योंकि संसार की माता की ममता भी तभी मिल सकती है जब हमारी धरती माता दुष्टों के अत्याचारों से मुक्त हो । धरती माता को दुष्टों के अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए बलिदानों की आवश्यकता होती है । बलिदान के क्षणों में बलिदान से पीछे हटने का अभिप्राय होता है करोड़ों ऐसी माताओं की ममता का निरादर करना जो अपने नौनिहालों पर ममता की वर्षा से केवल इसलिए वंचित कर दी जाती थीं कि वे काफिर थीं । किसी के काफिर होने को इतना बड़ा दंड देना मानवता को दंडित करने के समान था । इसलिए मानवता के हितार्थ उस बालक ने स्वयं ललकार कर अपनी माता को अपने और अपनी मृत्यु के मध्य से पीछे हटा दिया ।इसी को कहते हैं वीरता ।
मौत और ममता का कैसा था वह मंजर ?
मौत उठाना चाहती थी कुछ डर दिखाकर ।।
ममता रोककर जल्लाद को पूछती थी , यह –
कहाँ लिए जाता है मेरे कलेजा को निकालकर ?
तब कलेजा ने ही ममता को बेधड़क कह दिया —
मुझे है शौक मौत का बेहिचक फरमान दे दिया ।।
हत्यारों को वधिक का काम इसीलिए दिया जाता है कि उनके भीतर दया तनिक भी नहीं होती । मुगलिया हत्यारे नित्य प्रति बंदा बैरागी के किसी न किसी योद्धा को प्राण दंड देने लगे । प्राण दंड को पाते हुए हमारे उन वीरों को असीम प्रसन्नता होती थी । कई दर्शकों के हृदय में क्रूर सत्ता के विरुद्ध घृणा के भाव उत्पन्न होते थे । उनसे वह दृश्य देखे नहीं जाते थे । आंखें मूंदकर और हृदय पर पत्थर रखकर किसी न किसी प्रकार वह अपने इन स्वतंत्रता सेनानियों को यातना पूर्ण मृत्यु को वरण करते हुए देखते थे । वधिकों ने प्राण दंड भी सार्वजनिक स्थानों पर देना आरंभ किया था । इसके पीछे उनका उद्देश्य यही था कि अन्य हिंदू इन स्वतंत्रता सेनानियों के साथ होने वाली क्रूरता और अत्याचार को देखें । जिससे भविष्य में वह मुगल सत्ता के विरुद्ध किसी प्रकार का विद्रोह करने का साहस न कर पाएं । यद्यपि हमारे देशभक्त हिंदू इन अत्याचारों को देखकर या सुनकर दुखी तो होते थे परंतु भयभीत नहीं होते थे । वह और भी अधिक उत्साह के साथ विदेशी सत्ताधीशों के विरुद्ध उठ खड़े होने का संकल्प लेते जाते थे । कई मुस्लिम भी ऐसे थे जो इन क्रूरताओं को देखकर दुखी होते थे । वह बेचारे अपनी मजहबी मान्यताओं के सामने विरोध करने का साहस नहीं कर पाते थे । सचमुच क्रूरता के मजहब को अपनाने से आत्मा मर जाती है।
मुगल वधिकों के द्वारा बंदा बैरागी और उनके साथियों को दिया जाने वाला क्रूर यात्राओं का यह क्रम कई दिन तक चलता रहा । प्रतिदिन 100 लोगों को लाकर यातना पूर्ण ढंग से उनका वध किया जाता था । अंत में बैरागी को भी वध स्थल पर लाया गया । बैरागी के जीवन का किस प्रकार अंत होता है ? – इस दृश्य को देखने के लिए उस दिन विशेष भीड़ लगी । मुसलमान जहां प्रसन्नता के साथ इस दृश्य को देखने के लिए आए थे , वहीं हिंदू बहुत ही पीड़ा और वेदना को अपने अंतर्मन में लिए हुए वध स्थल पर आए। दरबार का एक अमीर मुहम्मद अमीन भी इन आने वालों में से एक था । उस व्यक्ति ने बैरागी से पूछा – ” तुमने ऐसे कार्य क्यों किए , जिनसे तुम्हें आज अपनी इस दुर्दशा का सामना करना पड़ रहा है ? ”
क्यों किया ऐसा कर्म जिससे मिला यह दंड।
बैरागी ! मुझे सच बता , मत करना पाखंड ।।
प्रश्न बड़ा समसामयिक था ।बंदा बैरागी को संसार से जाने से पहले इस प्रश्न का उत्तर भी देना चाहिए था । अतः इस प्रश्न को सुनकर बंदा बैरागी गंभीर हो गया । लगा वह किसी के गहन चिंतन में डूब गया है । प्रश्न को सुनते ही बैरागी के हृदय में वैदिक चिंतन उमड़ने – घुमड़ने लगा । उसके शब्द चाहे जो भी रहे हों , पर उसे वेद का यह संदेश सर्वप्रथम स्मरण हो आया कि ‘ नमो मात्र पृथिव्यै ‘ – ( यजुर्वेद 9 / 22 ) अर्थात पृथ्वी माता को नमस्कार । सचमुच बंदा बैरागी का जीवन जिस मां भारती के लिए समर्पित रहा और जिसके लिए वह आज अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान दे रहा था , उसका स्मरण इन पलों में उसके अंतर्मन में निश्चय ही आया होगा । भारत में तो लोग प्रातः काल उठते ही सर्वप्रथम पृथ्वी माता को ही नमस्कार करते हैं । अतः अपने जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार आज प्राप्त करते समय बैरागी को भी सर्वप्रथम उसी भारत माता पृथ्वी माता का स्मरण होना निश्चित था , जिसके लिए यह पवित्र जीवन उसने समर्पित कर दिया था।
अमीर के प्रश्न पर बंदा वीर बैरागी ने उसे स्पष्ट कर दिया कि जिस भारत माता को विदेशी क्रूर सत्ता अपने अत्याचारों से पददलित कर रही है , उसे मुक्त कराना हर देशभक्त का प्रथम और पुनीत कर्तव्य है । किसी भी मूल्य पर हम अपने देश में विदेशी शासन को सहन नहीं करेंगे । किसी विदेशी क्रूर सत्ता के विरुद्ध आंदोलन करने के लिए मुझे मेरी अंतरात्मा ने प्रेरित किया । मैं ऋणी हूँ अपने गुरु गोविंद सिंह जी का , जिन्होंने मुझे इस ओर उठ खड़े होने की प्रेरणा दी और राष्ट्र सेवा का अनुपम अवसर दिया ।
मैंने जो कुछ किया वह सोच-समझकर किया । अपनी मां भारती के सम्मान और प्रतिष्ठा की रक्षा हेतु किया । हिंदू राज्य की स्थापना हेतु किया । उसका फल आपकी दृष्टि में मेरे लिए अशुभ हो सकता है , पर मेरे लिए उससे शुभ फल संसार में कोई भी नहीं हो सकता । प्रजा हितचिंतन शासन और शासक का सर्वप्रथम कर्तव्य और दायित्व होता है । यदि कोई शासक कर्तव्य और दायित्व से विमुख होता है तो भारत में उसका विरोध करने का अधिकार प्राचीन काल से हर नागरिक को दिया गया है । अपने उसी मौलिक अधिकार का प्रयोग करने के लिए मैं और मेरे सभी भारतवासी हिंदू भाई इस कार्य के लिए उठ खड़े हुए ।
बंदा वीर बैरागी ने स्पष्ट किया कि मर्यादा विमुख लोगों और सत्ताधीशों को न्यायपूर्ण मार्ग पर लाना हर व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य है । उसने कहा कि ईश्वर ने हर व्यक्ति को संसार में मर्यादा स्थापित करने और कराने के लिए संसार में भेजा है । यदि कोई व्यक्ति संसार में आकर अपने इस मौलिक कर्तव्य को भूलता है अथवा ईश्वर को दिए गए वचन का भंग करता है तो उससे संसार की मर्यादा टूटने से संसार अस्त – व्यस्तता और अराजकता को प्राप्त होता है । इस अस्त – व्यस्तता और अराजकता को मर्यादित करना संसार के शासक लोगों का कार्य है । यदि शासक लोग अपनी मर्यादा को भूलते हैं तो सामान्य लोगों को उनका विरोध करने का पूरा अधिकार है । यही कारण है कि मैंने अपने जीवन में वही किया जो मेरा धर्म मुझे बताता है।
जिस दिन बंदा वीर बैरागी को वध स्थल पर लाया गया , उस दिन बादशाह फर्रूखसियर भी वध स्थल पर पहुंचा । बादशाह आज अपने इस शत्रु को बड़े ध्यान से देख लेना चाहता था । क्योंकि य बैरागी ही वह व्यक्ति था , जिसके कारण बादशाह का दिन का चैन और रात्रि की नींद समाप्त हो गई थी । बादशाह अपने इस शत्रु को अपनी आंखों के सामने मरता देखना चाहता था । वह यह भी चाहता था कि जो लोग वध स्थल पर उस समय उपस्थित हों , वह यह भली-भांति देख लें कि यदि कोई मुगलों की क्रूर सत्ता का विरोध करता है तो उसका परिणाम क्या होता है ? बादशाह सारी भीड़ को पीछे छोड़कर आगे आया । बादशाह ने वीर बैरागी की वीरता और शौर्य की परीक्षा लेने के दृष्टिकोण से उससे कुछ पूछना चाहा । उसने बंदा वीर बैरागी से पूछा – ” बैरागी ! अब तुम्हारी अंतिम घड़ी आ चुकी है , बताओ तुम्हें किस प्रकार मारा जाए ? ”
अंतिम घड़ी अब आ चुकी बैरागी कर ध्यान ।
बच सकता तू अब नहीं चाहे आ जाएं भगवान ।।
यह प्रश्न भी बड़ा मार्मिक था । जब बंदा वीर बैरागी ने बादशाह का यह प्रश्न सुना तो वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ । पूर्व की भांति निश्चिंत भाव से बैठा रहा । तब उसने बड़ी गंभीर मुद्रा में कहा : – ” आप जैसे चाहें , वैसे मेरा वध कर सकते हैं ? ”
वास्तव में बंदा वीर बैरागी का यह उत्तर भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने योग्य है। एक ही वाक्य में वैरागी ने बहुत कुछ कह दिया था । लग रहा था कि उसके हृदय में उस समय गीता का स्रोत फूट रहा था। जो उसे प्रेरित कर रहा था कि मेरे स्थूल शरीर का आप लोगों के द्वारा अंत किया जा सकता है , परंतु मेरे भीतर बैठा आत्मा तो अजर , अमर , अविनाशी है । मैं भी वही अजर , अमर ,अविनाशी हूँ । मेरा अस्तित्व ही अजर , अमर और अविनाशी है । अतः तुम या तुम जैसे अनेकों लोग मिलकर भी मेरे अस्तित्व को नहीं मिटा सकते । मेरी “मैं ” को नहीं मिटा सकते । इस शरीर का अंत करने में कुछ थोड़ी बहुत देर की पीड़ा झेलनी पड़ सकती है । जिसके लिए मुझे व मेरे साथियों को किसी भी प्रकार का दुख व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं है । जैसे अन्य साथियों ने उसे हंसकर झेला है , मैं भी उसे उसी प्रकार हंसकर झेलने के लिए तत्पर हूँ ।
अपने इस एक वाक्य में भारत के इस शाश्वत चिंतन को बैरागी ने बादशाह के समक्ष बड़ी गंभीरता से प्रस्तुत कर दिया था। उसने यह भी मान लिया था कि शत्रु आज किसी भी प्रकार की निर्दयता का प्रदर्शन कर सकता है , इसलिए उसके सामने अंतिम क्षणों में प्राणों की भिक्षा मांग कर स्वयं को लज्जित करना होगा । यही कारण था कि बंदा वीर बैरागी ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी वीरता का प्रदर्शन किया । वीर ही वीरता के साथ मृत्यु का वरण कर सकते हैं । बंदा वीर बैरागी ने आज यह भी स्पष्ट कर दिया था कि वह कहने के लिए ही वीर नहीं है ,अपितु वह मृत्यु को वीरता के साथ वरण भी कर सकता है ।
जिस समय भारत के इस शेर का वध किया जा रहा था , उस समय उसके पास उसका एक पुत्र भी उपस्थित था । उसे वधिकों ने बादशाह की आज्ञा से बैरागी की जंघाओं पर बैठा दिया था । बादशाह ने बैरागी को अपने हाथ से छुरा पकड़ाया और उस बच्चे की छाती में भोंकने के लिए कहा । ऐसी अपेक्षा किसी भी पिता से नहीं की जा सकती कि वह अपने हाथों से ही अपने पुत्र का वध करे । बैरागी के लिए पुनः एक परीक्षा की घड़ी आ गई थी । अतः वह फिर गंभीर स्वर से कह उठा — ” नहीं मैं यह नहीं कर सकता । ” बादशाह की सोच रही होगी कि बैरागी संभवत: किसी प्रकार की घबराहट के वशीभूत होकर अपने पुत्र का वध कर सकता है ।
वीर बैरागी को उन क्षणों में भी धर्म का स्मरण रहा । यही कारण रहा कि उसने अपने भीतर भय को प्रविष्ट नहीं होने दिया । वास्तव में वह धर्म वीर था । यही कारण था कि अंतिम क्षणों में भी अपने धर्म से विमुख होना या मर्यादा को त्यागना उसके लिए संभव नहीं था । अतः जब पुत्र का वध करने की बात बादशाह ने उससे कही तो उसे वैरागी ने बड़ी गंभीरता और वीरता से टाल दिया ।
वधिक को बैरागी के इस प्रकार के उत्तर अच्छे नहीं लग रहे थे । वह बैरागी को भयभीत और आतंकित कर देना चाहता था । अतः उसने तनिक भी विलंब किए बिना अपनी तलवार से बच्चे के दो टुकड़े कर दिए । बच्चे के रक्त की धारा बह चली । पिता का हृदय भी बहुत अधिक वेदना से भर गया । पिता के लिए यह क्षण अपने शोक को प्रकट करने के न होकर स्वयं को ” अशोक ” के रूप में प्रकट करने के थे । बैरागी निश्चिंत भाव से “अशोक ” की मुद्रा में बैठा रहा । वधिक सोचता था कि पुत्र के दो टुकड़े देखकर बैरागी की पीड़ा आंखों से छलकेगी और वह इस्लाम स्वीकार करने के लिए कह देगा । परंतु वधिक का ऐसा सोचना उसके लिए दिवास्वप्न ही सिद्ध हुआ । बैरागी को निश्चिंत भाव मुद्रा को बैठा देखकर वधिक क्रोध में भड़क उठा । क्रोध की यह विशेषता भी होती है कि जब यह आता है तो आपके विवेक के दीपक को बुझा देता है । क्रोध आता भी तब है जब आप की कामना की पूर्ति में किसी के द्वारा विघ्न डाला जाता है ।
वधिकों ने एक बार फिर अधर्म को अपनाया । उन्होंने बंदा वीर बैरागी के पुत्र का कलेजा निकालकर बैरागी के मुंह में देने का प्रयास किया । यह एक बादशाह की उपस्थिति में होने वाला ऐसा कृत्य था जिसे देखकर लज्जा को भी लज्जा आ जाएगी । पिता बैरागी ने किसी भी प्रकार से इस टुकड़े को अपने मुंह में लेने से इनकार कर दिया । जिसके परिणाम स्वरूप वधिक और भी अधिक क्रोध आवेश में आ गया । अब लगभग वह पागल हो चुका था । बादशाह , अधिकारीगण और काजियों की मौन स्वीकृति तो वधिकों के साथ थी ही उनका बनाया कानून भी वधिकों को ऐसा करने का आदेश दे रहा था । यही कारण था कि अब वह एक निर्ममता और क्रूरता की सारी सीमाओं को पार कर गया था । उसने लोहे की गर्म सलाखों से तथा तपे हुए लाल चिमटाओं से बंदा वीर बैरागी को मारना आरंभ किया । वधिक उसके मांस के लोथड़े खींचने लगा । अब अत्यंत कारुणिक दृश्य उत्पन्न हो गया था । वहां जिन लोगों के हृदय सचमुच धड़कते थे , उनके हृदय की धड़कनें रुक गईं और वे बैरागी के स्थान पर भीतर ही भीतर चीत्कार करने लगे । बैरागी के शरीर की हड्डियां दीखने लगीं ।इसके उपरांत भी उसने न तो कोई चीत्कार निकाली और न ही अपने देशप्रेम पर किसी प्रकार का पश्चाताप किया। वह शान्तमना होकर आज वास्तविक ‘ बाबा ‘ की मुद्रा में आ चुका था । अत्यंत करुणाजनक स्थिति में मां भारती का यह शेर पुत्र बलिदानी परंपरा के हुतासन में बैठ चुका था।
इस पर भाई परमानंद जी ने लिखा है : – ” इस देश के अंदर एक वीर उत्पन्न हुआ । जिसके जीवन के कारनामे अनुपम हैं । जिसकी शहादत अद्वितीय है। परंतु आश्चर्य तो केवल इस बात का है कि इस जाति ने ऐसे वीर शिरोमणि को भुला दिया। यदि इसके आत्मावसान पर कोई समाधि न हो तो कोई हर्ज नहीं यदि इसका और किसी प्रकार का कोई स्मारक ना हो तो कोई परवाह नहीं , परंतु यदि हिंदू बच्चों के हृदय मंदिरों में राम और कृष्ण की तरह बैरागी का नाम नहीं बसता तो जाति के लिए इससे बढ़कर और कोई अक्षम्य पाप नहीं होगा । बैरागी की आंख बंद होनी थीं कि सिखों की आंखें खुलीं । मायाजाल हट गया । उन्हें अब ज्ञात हुआ कि वे क्या कर बैठे हैं ? और उन्हें इस करनी का क्या प्रतिफल मिला है ? बैरागी की कर्तव्य परायणता का ज्ञान उन्हें अब हुआ , किंतु अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।”
मेरी यह लेखमाला भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध प्रकाशन प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली से पुस्तक रूप में शीघ्र प्रकाशित होकर आ रही है )
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत