इतिहास हमारे आने वाली पीढ़ियों को ऊर्जान्वित करता है
इतिहास की विशेषता
इतिहास किसी जाति के अतीत को वर्तमान के संदर्भ में प्रस्तुत कर भविष्य की संभावनाओं को खोजने का माध्यम है। इतिहास अतीत की उन गौरवपूर्ण झांकियों की प्रस्तुति का एक माध्यम होता है जो हमारी आने वाली पीढिय़ों को ऊर्जान्वित करता है और उन्हें संसार में आत्माभिमानी, आत्म सम्मानी और स्वाभिमानी बनाता है। इसलिए विश्व में जातियों के और सभ्यताओं के संघर्ष में अपनी जीवंतता को सिद्घ करने के लिए लालायित रहने वाली जातियों ने और देशों ने अपने अतीत के गौरव को सुरक्षित और संरक्षित बनाये रखने के लिए कड़ा परिश्रम किया है। उन्होंने इतिहास में अपने अतीत की एक-एक घटना को इतनी उत्कृष्टता से सजीव बनाया है कि उनके इतिहास के हर पृष्ठ से रोमांच टपकता है। जिसे समझकर और जानकर उनकी पीढिय़ों के हृदय में अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्घा सम्मान और आभाराभिव्यक्ति का भाव जागृत होता है। जो जातियां ऐसे जीवंत इतिहास को संजोकर रखने का प्रशंसनीय प्रयास करती हैं उन्हें धरती की कोई भी जाति न तो परास्त कर सकती है और न ही उन्हें किसी प्रकार से क्षति पहुंचा सकती है।
इतिहास के संबंध में हमारी आत्मघाती नीति
हमने दुर्भाग्यवश अपने इतिहास को संजोकर रखने का कोई गंभीर प्रयास नही किया। हमने अपने इतिहास के गौरव पृष्ठों को ही फाडक़र उड़ा देना उचित समझा है। यहां उन महत्वपूर्ण घटनाओं को जिनसे हमारे देश के लोगों में आत्माभिमान का भाव जाग्रत हो, मिटाने का प्रयास किया जाता है, और कम महत्व की उन घटनाओं को संजोकर रखने का प्रयास किया जाता है जो हमें अपने विषय में ही हेयभाव से भरने वाली हों। हम यह भूल जाते हैं कि गंगा का निर्माण छोटे-छोटे जलस्रोतों से होता है। गंगा का इतिहास खोजने वाले के लिए इन छोटे-छोटे स्रोतों की उपेक्षा करना जैसे वर्जित है वैसे ही इतिहास की गंगा के निर्माण में सहायक छोटी-छोटी घटनाओं के जलस्रोतों को या जल धाराओं को उपेक्षित करना भी आत्मघाती ही सिद्घ होता है। इसलिए इतिहास की उन कथित महत्वपूर्ण घटनाओं को पढ़ते-पढ़ते जो हमें विदेशियों के समक्ष परास्त होता दिखाती हैं और हमारे हिंदू वीरों की वीरता, बलिदान और शौर्य की कथाओं का विलोपीकरण करती हैं, इतिहास के ऐसे गौरवपूर्ण अधिकांश पक्ष को हमारी दृष्टि से उपेक्षित कर डालना उचित नही है। विशेषत: तब जबकि कौन सी घटना महत्वपूर्ण है और कौन सी नही, का निर्णय करना हमारे शत्रुओं के हाथ में रहा हो।
विदेशी इतिहासकारों का कुचक्र
हमारे लिए अपने इतिहास की कौन सी घटना महत्वपूर्ण है और कौन सी नही, अथवा उस घटना के सत्यापन/प्रमाणन के लिए कौन सा लेखक प्रामाणिक है और कौन सा नही, या कौन से तथ्य प्रमाणिक हैं और कौन से नही ? जैसे अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए विदेशी शत्रु लेखकों ने हमारे विषय में यह निर्धारित किया कि हमारे लिए क्या उपयुक्त है और क्या नही?
इन इतिहासकारों ने अकबर के लिए उन मुस्लिम लेखकों के कथनों और वर्णनों को तो अपने लेखन में कहीं स्थान नही दिया जिन्होंने तथ्यात्मक रूप से लिखने का प्रयास किया। इसके विपरीत अपने इतिहास लेखन को उचित और न्यायसंगत सिद्घ करने के लिए इन इतिहास लेखकों ने चाटुकार इतिहास लेखकों के कथनों को ही प्रमाणिक माना और अकबर को महान बना दिया।
इसके विपरीत जब राजस्थान के या अन्य हिंदू शासकों के जीवन वृत्त या उनके शासन के विषय में ऐसे शासकों के अपने लेखकों के वर्णन को प्रामाणिक मानने की बात आती है, तो उन्हें यह कहकर छोड़ दिया जाता है कि इनमें घटनाओं को अतिरंजित करके लिख दिया गया है। कहने का अभिप्राय है कि हमारे इतिहास नायकों का इतिहास लेखक तो आधुनिक इतिहास लेखकों के लिए अप्रमाणिक हो जाता है, और उसी समय विदेशी आक्रांताओं का दरबारी भाड़े का लेखक उनके लिए प्रमाणिक हो जाता है, ऐसा क्यों?
हमारा मानना है कि या तो अकबर के दरबारी लेखकों के वर्णनों को भी प्रमाणिक मत मानो और यदि उन्हें प्रमाणिक मानकर लिखने का प्रयास करते हो तो उस स्थिति में हिंदू शासकों के अपने लेखकों के वर्णनों को भी प्रमाणिक मानो अथवा दोनों के इतिहास लेखकों के वर्णनों को समीक्षित कर उन्हें तथ्यात्मक रूप से लिखने का प्रयास किया जाए। हमारे विचार में इतिहास लेखन की यही परंपरा उचित है और यही एक इतिहास लेखक की निष्पक्षता की सच्ची कसौटी भी है।
राणा उदयसिंह का उदाहरण
हम एक उदाहरण ले सकते हैं। भारत के इतिहास में राणा उदयसिंह का योगदान नगण्य माना जाता है। जबकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उसका योगदान भारत के इतिहास में अनुपम है। इसके समर्थन में ऐसे इतिहास लेखकों का मानना है कि महाराणा उदयसिंह के दृढ़ निश्चय की ओर कभी ध्यान नही दिया गया। चित्तौड़ पर तीस हजार हिंदू नागरिकों के नरसंहार के पश्चात भी महाराणा उदयसिंह ने भय का प्रदर्शन नही किया और ना ही अकबर की शरण में जाना उचित समझा, जबकि तीस हजार हिंदुओं का एक दिन में नरसंहार हो जाना, किसी निर्बल शासक के धैर्य भंग के लिए पर्याप्त था। इसके विपरीत राणा उदयसिंह ने धैर्य से काम लिया और जंगलों में रहकर अपने कार्यों और उद्देश्यों पर ध्यान दिया। उनके पश्चात उनकी इस महान परंपरा का निर्वाह उनके पुत्र महाराणा प्रतापसिंह ने किया। घटना का वर्णन करने के लिए एक तो ढंग यह है कि जिसमें महाराणा उदयसिंह अपने पुत्र के लिए भी प्रेरणा का स्रोत स्पष्टत: दिखायी पड़ता है और एक यह है कि वह तो निर्बल शासक था, उसमें दूरदृष्टि का अभाव था इत्यादि।
अन्य हिंदू शासकों के लिए प्रेरणा का स्रोत-उदयसिंह
एक निष्पक्ष इतिहासकार के लिए उचित है कि वह ‘घटनाएं भी बोलती हैं,’ और न्याय की प्राप्ति के लिए ‘पारिस्थितिकीय साक्ष्य’ भी महत्वपूर्ण होता है, इन दो बिंदुओं पर भी ध्यान है। यदि दोनों बिंदुओं पर ध्यान दिया जाएगा तो कोई भी निष्पक्ष इतिहासकार उदयसिंह के विषय में प्रचलित भ्रांत धारणाओं को तोडक़र यह कहने में कोई संकोच नही करेगा कि महाराणा उदय सिंह का भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान है। वह पहला व्यक्ति था जिसने अकबर के घोर अमानवीय और पाशविक अत्याचारों के समक्ष झुकना उचित नही समझा। वह धैर्य पूर्वक अकबर के सामने खड़ा हो गया, जिसका परिणाम यह निकला कि देश के अन्य स्वतंत्रता प्रेमी हिंदू शासकों में भी आशा का संचार हो गया।
फलस्वरूप लोगों को यह लगा कि अकबर जैसे क्रूर शासक का सामना भी किया जा सकता है। यदि उदयसिंह तीस हजार शवों को देखकर झुक गया होता तो हम महाराणा प्रताप जैसे कितने ही महान योद्घाओं की मध्यकालीन भारत में भ्रूण हत्या होते देखते। इसलिए निष्पक्ष इतिहास लेखन का तकाजा यही है कि महाराणा उदयसिंह का स्थान उपयुक्त निर्धारित किया जाए।
एक दिन अकबर बादशाह ने भरे दरबार में आमेर के राजा भारमल से पूछा कि क्या यह सत्य है कि मेवाड़ के हर स्त्री पुरूष ने और बच्चे-बच्चे ने यह प्रतिज्ञा की है कि हमें भगवान एकलिंगजी की सौगंध है कि-जब तक चित्तौड़ को स्वतंत्र नही करा लिया जाएगा, तब तक वह भूमि पर ही सोएंगे?
इस पर राजा भारमल ने सम्राट अकबर को बताया कि उन लोगों ने भूमि पर सोने की ही प्रतिज्ञा नही की है, अपितु उन्होंने यह भी प्रतिज्ञा की है कि जब तक चित्तौड़ को स्वतंत्र नही करा लिया जाएगा तब तक वह सभी एक समय का ही भोजन लेंगे। बादशाह सलामत! वे लोग संगठित हंै और अपनी देशभक्ति के सामने वह अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति की भी चिंता नही करते हैं। वह भविष्य के लिए जीते हैं, और उस भविष्य के लिए जिसमें उनके पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र इत्यादि जिएंगे। परंपराओं और नैतिकताओं से उनका चरित्र बना है वे जीवन, धन और सुविधाओं की चिंता नही करते हैं, वे सम्मान के लिए जीते हैं। वे अपने को राम का वंशज मानते हैं, अपनी धरोहर के लिए वह कोई भी त्याग कर सकते हैं। तलवार हाथी, घोड़े उन्हें झुकाव नही सकते, पर मित्रता उन्हें झुका सकती है, (संदर्भ : राजपूतों की गौरव गाथा, राजेन्द्रसिंह राठौड़ बीदासर, पृष्ठ 241-242)
1567 ई. में चित्तौड़ को अकबर ने जीत तो लिया था, परंतु वह जीतकर भी दुखी रहता था, क्योंकि वह चित्तौड़ को जीतकर भी उदयसिंह को नही जीत पाया था। इस प्रकार उदयसिंह अकबर के लिए स्वयं एक व्यक्ति न होकर एक राष्ट्र बन गया था। उस काल में स्वयं को इतनी ऊंचाई पर स्थापित कर लेना छोटी बात नही थी।
गुरू गोविंदसिंह की महानता
1606 ई. में जहांगीर के शासनकाल में गुरू गोविंदसिंह ने हिंदू धर्म की रक्षा का संकल्प लिया, जिसके लिए उन्होंने धर्म की तलवार बांधी। तब उनके दरबार में अकाल तख्त के आगे चित्तौड़ के वीर जयमल-फत्ता की वीरता को गीतों में गाकर प्रस्तुत किया जाता था, जिससे कि उन राष्ट्रवीरों का बलिदान व्यर्थ ना जाए और उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया जा सके। (‘द मुगल एंपायर’ पेज 310, भारतीय विद्या भवन मुंबई)
निर्भीकता न्याय के लिए आवश्यक
न्याय के लिए व्यक्ति का निर्भीक होना आवश्यक है। यदि व्यक्ति में निर्भीकता नही है, तो वह न्याय की प्राप्ति नही कर सकता। यही बात इतिहास के लिखने के संदर्भ में भी जाननी समझनी चाहिए। इतिहास लेखन में न्याय आवश्यक है, अन्यथा आप अपनी आने वाली पीढिय़ों के साथ न्याय नही कर पाएंगे।
एक बार राजा जनक अपने दलबल के साथ मिथिलापुरी के राजपथ से भ्रमण पर निकले। राजा की सुविधा के लिए राजपथ को सजाया जाने लगा। मार्ग में अष्टावक्र था उसे भी राजकर्मियों ने हटाने की याचना और चेष्टा की, परंतु अष्टावक्र ने स्वयं को हटाने से इंकार कर दिया। उसने बड़ी निर्भीकता से कहा-प्रजाजनों के आवश्यक कार्यों को रोककर अपनी सुविधा का प्रबंध करना राजा के लिए उचित और न्याय संगत नही कहा जा सकता। राजा यदि अन्याय, अनीति और अत्याचार करता है, तो विद्वान का कर्म है कि वह उसे रोके। अत: आप राजा तक मेरा संदेश पहुंचा दें और कह दें कि अष्टावक्र ने गलत आदेश मानने से मना कर दिया है।”
अष्टावक्र के इस ‘दुस्साहस’ से राजकर्मियों और मंत्री को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने अष्टावक्र को बंदी बना लिया और उसे राजा जनक के सामने प्रस्तुत किया।
राजा जनक परम विद्वान थे और इसलिए वह विद्वानों का सम्मान भी करते थे। जब उन्होंने अपने मंत्री से अष्टावक्र के विषय में सारावृतांत सुना तो वह अष्टावक्र की निर्भीकता से अत्यंत प्रभावित हुए। तब उन्होंने अपने मंत्री से जो कुछ कहा वह ध्यान देने के योग्य है-”ऐसे निर्भीक विद्वान राष्ट्र की सच्ची संपत्ति होते हैं, ये दण्ड के नही, सम्मान के पात्र हैं।”
राजा ने अष्टावक्र से क्षमायाचना की और कहा कि अनुचित नीति चाहे राजा की ही क्यों ना हो, तिरस्कार के ही योग्य होती है। आपकी निर्भीकता ने मुझे मेरी भूल को समझने और सुधारने का अवसर प्रदान किया है। अत: मैं निवेदन करता हूं कि आप मेरे राजगुरू बनें, और अपनी इस निर्भीकता से सदैव न्याय के पक्ष का समर्थन करें।”
न्याय से मानवता की रक्षा होती है
न्याय से इतिहास की और मानवतावादी परंपराओं की रक्षा होती है और न्याय की रक्षा निर्भीकता से होती है। शासक से कोई भी भूल होना संभव है, जिस पर राजगुरू को बड़ी सूक्ष्म दृष्टि रखनी चाहिए। इसलिए जनक ने अष्टावक्र को अपना राजगुरू बनाकर जनहित के दृष्टिगत अपनी महानता का परिचय दिया। यह भी एक इतिहास है, और इतिहास को गति-प्रगति देने का एक उत्तम ढंग भी है। जबकि मध्यकाल में तुर्कों और मुगलों के द्वारा मानवतावादी विद्वानों की निर्भीकता को समाप्त करने का प्रयास किया गया, इसलिए उस काल में हमें विकृत न्याय और विकृत इतिहास के दर्शन होते हैं।
भारतीय इतिहास में न्याय का स्थान
न्याय की स्थापना के लिए पंडित वर्ग का होना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक क्षत्रिय वर्ग का होना भी है। न्याय को क्षत्रिय ही लागू कराता है। यदि क्षत्रिय वर्ग की तलवार (शस्त्र) ब्राह्मण के आदेश (शास्त्रगत दण्ड) को मनवाने के लिए नही हो, तो समाज में अन्याय का प्राबल्य हो जाएगा। इसलिए भारतीय समाज में न्याय को लागू कराने का दायित्व क्षत्रिय समाज को दिया गया। इसके लिए क्षत्रिय धर्म की व्यवस्था की गयी, जिस पर महाभारत ‘शांतिपर्व’ (64-27) में कहा गया है :-
‘आत्मत्याग: सर्वभूतानां कुम्भा लोकज्ञानं पालनं विपणा ना मोक्षण पीडि़तानां क्षात्र धर्मे विद्यते पार्थिवनातम्।।’
अर्थात ”शत्रु से (न्याय और धर्म की रक्षार्थ) युद्घ करते हुए अपने शरीर की आहुति देना, समस्त प्राणियों पर दया करना, लोक व्यवहार का ज्ञान करना, प्रजा की रक्षा करना, विषादग्रस्त व पीडि़त स्त्री पुरूषों को दुखों से मुक्ति दिलाना, आदि सभी बातें क्षत्रिय धर्म में सम्मिलित हैं।”
राजा का प्रथम कर्त्तव्य है देश की स्वतंत्रता की रक्षा करना
राजा की स्थिति और क्षात्रधर्म की उपरोक्त व्यवस्था पर यदि विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि अपने देश के लोगों की स्वतंत्रता की रक्षा करना प्रत्येक राजा का प्रथम कत्र्तव्य है। इतिहास में हमें बताया जाता है कि मध्यकाल में सारे विश्व में ही अशांति व्याप्त थी और चारों ओर युद्घों की प्रबलता थी, लोग एक दूसरे के देशों पर अधिकार करने को आतुर रहते थे और दूसरी जातियों को भी नष्ट कर अपनी जाति की उत्कृष्टता को सिद्घ करने की प्रतिद्वंद्विता से उस समय सारा विश्व समाज ही ग्रसित था। हम मानते हैं कि ऐसी परिस्थितियां उस समय थीं, परंतु इतिहास के इस काल खण्ड की ऐसी परिस्थितियों को आप उस काल की अनिवार्य बाध्यता नही मान सकते, ना ही इसे आप ‘युग धर्म’ कह कर महिमामंडित कर सकते हैं। यदि ऐसा किया गया तो (जो कि किया भी गया है) समझिये कि आप अराजकता को समर्थन दे रहे हैं, और इतिहास कभी अराजकता का समर्थक नही हो सकता, इतिहास तो अराजकता और अराजक तत्वों से संघर्ष करने की मानव गाथा है। जब इतिहास अराजकता और अराजक तत्वों का महिमामंडन करने लगे, तब समझना चाहिए कि वह अपने धर्म से पतित हो गया है। वह न्याय का प्रतिपादक न होकर अन्याय का प्रतिपादक हो गया है।
इतिहास में मिथक गढना ठीक नही
भारत के राजधर्म के नीति निर्धारक महाभारत के उपरोक्त श्लोक की व्याख्या करने की आवश्यकता नही है, उसके विषय में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि भारत के मध्यकालीन इतिहास में व्याप्त अराजकता और अराजक तत्वों की प्रबलता को या उनके वर्चस्व को समाप्त करने के लिए जिन-जिन लोगों ने जहां-जहां भी जैसे भी प्रयास किये, वे सभी स्वतंत्रता सेनानी थे। उनके साथ न्याय तभी होगा जब इतिहास के इस मिथक को तोडऩे का साहस किया जाएगा कि अराजकता तो उस काल की विश्व समस्या थी? समस्या तो थी, पर क्या समस्या को समस्या ही बने रहने दिया जाएगा? या उस समस्या से उस समय का सारा समाज ही निरपेक्ष भाव बनाये खड़ा देखता रहा? यदि नही, तो जिन लोगों ने समस्या के विरूद्घ संघर्ष किया, और अपनी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हर प्रकार के बलिदान दिये, उनके संघर्ष और बलिदान को भुला भी मूर्खता होगी। अत: ऐसे रणबांकुरे स्वतंत्रप्रेमी योद्घाओं का इतिहास में उचित स्थान निर्धारित किया जाना अपेक्षित है।
प्राचीन आर्य धर्म में राजा का धर्म
हमारे प्राचीन आर्य धर्म में राजा के धर्म में दुर्गों की रक्षा करना, देश की संस्कृति-धर्म इतिहास के विनाशकों से उसकी रक्षा करना, धर्म और न्याय के मौलिक सिद्घांतों के अनुसार शासन करना (यही उस समय का संविधान होता था) जनता के लिए आजीविका के विभिन्न अवसर उत्पन्न कर उन्हें रोजगार देकर समृद्घ करना, अपराधियों को दंडित करना, और ईश्वर का ध्यान करने के लिए लोगों को उचित स्थान उपलब्ध कराना जैसे गुणों को सम्मिलित किया गया है। भारत में दुष्ट शासक वही माना जाता था, जो राजधर्म के इन मौलिक सिद्घांतों के विपरीत शासन करता था। अब जिस भारत में किसी हिंदू शासक को इन सिद्घांतों के विपरीत शासन करने की स्थिति में दुष्ट शासक कहा जा सकता है, उसमें किसी मुस्लिम शासक को इन सिद्घांतों की अवहेलना करने पर दुष्ट क्यों नही कहा जा सकता? समान नागरिक संहिता को हमें इतिहास के माध्यम से ही स्थापित करने की पहल करनी होगी। विधि के समक्ष असमानता और व्यक्ति व्यक्ति के मध्य भेदभाव करना, या तुष्टिकरण के लिए आज की कथित धर्मनिरपेक्षता की रक्षार्थ आप अपने गौरवमयी महापुरूषों के गौरवमयी इतिहास की हत्या नही कर सकते और यदि ऐसा करते हैं तो आप सबसे बड़ा ‘पाप’ करेंगे।
आशा है कि हम इतिहास की हत्या नही करेंगे। हम इतिहास का निर्माण करेंगे, वैसे भी इतिहास शाश्वत-जीवंत मूल्यों की प्रवाहमान सरिता है। जिन्हें हम एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को वंशनुक्रम से प्रदान करते हैं और उन शाश्वत जीवंत मूल्यों से कोई देश या कोई समाज अनुप्राणित होकर जीवित रहता है। इतिहास पूर्णत: वैज्ञानिक होता है, इसलिए वह मरता नही है। वह तर्क, प्रमाण, सत्य और न्याय के आधार पर सदा जीवित रहता है।
भारत के मध्यकालीन स्वतंत्रता सैनानियों का धर्म
भारत के मध्यकालीन स्वतंत्रता सैनानियों ने भारत के क्षात्रधर्म को, भारत के राजधर्म को और भारत के नैतिक मूल्यों को इन्हीं अर्थों और संदर्भों में ग्रहण किया और इन्हीं के लिए संघर्षरत रहे। इसलिए उन महामानवों के महान कृत्यों को हमें यथोचित स्थान और सम्मान देना चाहिए। अपने इस प्रयास को हमें निरंतरता देनी ही होगी, अन्यथा हम मिट जाएंगे। हमारा इतिहास हमें जीवित रहने के लिए कह रहा है और विडंबना है कि हम मर रहे हैं, अपने आप ही अपने विषय में भ्रांतिपूर्ण कहानियों को पढ़ पढक़र। नही, हमें उठना होगा चलना होगा, लक्ष्य साधना होगा, मंजिल हमारे लिए प्रतीक्षारत है।
राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत