देश के थल सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने कहा है कि जो देश में हिंसा भड़काए या आग लगाए वह व्यक्ति नेता नहीं हो सकता । जनरल रावत ने चाहे चाहे जिस नेता के लिए भी ऐसा कहा हो , परंतु वर्तमान की परिस्थितियों को देखकर उनके इस वक्तव्य का बहुत गहरा अर्थ है। सचमुच देश में आग लगाकर या दंगे भड़काकर कर या लोगों को देश की ही सरकार के विरुद्ध उकसाकर सरकार विरोधी से राष्ट्र विरोधी बन जाने का खेल विपक्ष के नेताओं की ओर से खेला जा रहा है। जिसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश की विधानसभा के भीतर ही विपक्ष को आड़े हाथों लेते हुए कड़े शब्दों में उसे संदेश दिया कि आप विरोध प्रदर्शन करें यह सहन किया जा सकता है , लेकिन प्रदेश की सार्वजनिक संपत्ति को आप आग लगाएं यह बर्दाश्त नहीं हो सकता है । मुख्यमंत्री योगी का यह कड़ा संदेश बहुत प्रशंसनीय है । उनके भाषा संतुलन और साहस को भी सराहना मिलनी चाहिए।
अपनी बात को स्पष्ट करने से पहले हम थोड़ा इतिहास की ओर जाना चाहेंगे ।
जब देश में बुद्ध धर्म की अहिंसा क्षत्रियों की तलवार को जंग लगा रही थी और ब्राह्मणों की बौद्धिक क्षमताओं को सीमित कर रही थी , तब इस देश में बढ़ते अहिंसावाद को रोकने के लिए कुमारिल भट्ट जैसे लोग सामने आए । उनकी सोच और विचारधारा को और भी अधिक प्रखरता उस समय मिली , जब शंकराचार्य ने आबू पर्वत पर जाकर क्षत्रियों की एक चिंतन सभा आयोजित की । जिसमें देश के वैदिक धर्म ,संस्कृति और इतिहास की परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए नए नेतृत्व की आवश्यकता पर बल दिया गया । अपनी इसी सभा के माध्यम से आदि शंकराचार्य ने महात्मा बुद्ध की अहिंसा की शरण में गए क्षत्रियों को वापस बुलाकर फिर से वैदिक धर्म का डिंडिम कराने का महान कार्य किया था। सोलंकी ,परमार , चौहान और प्रतिहार वंशी वीर क्षत्रिय राजा सामने आए और उन्होंने फिर से वैदिक धर्म को स्वीकार कर इसकी रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने का प्रण लिया । उसके पश्चात प्रत्येक विदेशी आक्रमणकारी को परास्त करने की नीति पर हमारे शासकों ने चलने का भी संकल्प लिया। इसी से अग्नि वंश की स्थापना हुई । शंकराचार्य ने हिंदू वैदिक धर्म की रक्षार्थ एक क्रांतिकारी कदम उठाया और अपने लक्ष्य की साधना के लिए समाज में से ही ‘पंच प्यारे’ खोज लिये। यदि इतिहास का निष्पक्ष अवलोकन किया जाए और सारी परिस्थितियों पर निष्पक्ष लेखन किया जाए तो यह ‘पंच प्यारे’ ही अंत में भारत की पूर्ण स्वतंत्रता को प्राप्त कराने में सर्वाधिक सहायक सिद्घ हुए। स्वामी शंकराचार्य की दूर दृष्टि को हमें नमन करना चाहिए, जिन्होंने ‘सत्यमेव जयते’ की परंपरा को देश के लिए उस समय उचित माना। उनका दिया हुआ संस्कार उनकी पूर्ण साधना को प्राप्त करके इस देश का सामूहिक संस्कार बन गया, जिसने सैकड़ों वर्ष तक इस देश का पराक्रमी नेतृत्व किया। उसी पराक्रमी नेतृत्व के नायक शलि वाहन पर्यंत शिवाजी और स्वामी शंकराचार्य पर्यंत स्वामी दयानंद सरस्वतीजी महाराज तक अनेकों वीर योद्घा और धर्मयोद्घा बने।
यदि स्वामी शंकराचार्य उस समय युद्घ के स्थान पर बुद्घ की बातें करने लगते तो जैसे बौद्घ धर्मावलंबी बने-अफगानिस्तान को मुस्लिम बनाने में मुस्लिम आक्रांताओं को देर नहीं लगी थी, वैसे ही भारत को भी मुस्लिम बनाने में देर नही लगती।
धन्य है स्वामी शंकराचार्य जिन्होंने यहां लोहा गलाने (विदेशियों की तलवारों, ढालों और अन्य अस्त्र शास्त्रों को) का उद्योग आरंभ करा दिया और धन्य हैं-भारत के वे अनेकों असंख्य वीर योद्घा जिन्होंने जब लोहा गलाने के लिए कहीं अन्यत्र स्थान नहीं मिला तो अपनी छाती को ही उसके लिए आगे कर दिया। लोहा गलाने की उस भट्टी में जलने वाली आग को प्रज्ज्वलित किये रखने के लिए किसी ने अपना सिर दिया तो किसी ने अपना कलेजा काटकर ही उसमें डाल दिया। कितना महान संस्कार था-यह, जिसके लिए संपूर्ण भारतवर्ष को अपने महान स्वामी शंकराचार्य के प्रति ऋणी होना चाहिए। क्योंकि आधुनिक भारत के निर्माता कोई अन्य नहीं होकर स्वामी शंकराचार्य जैसे लेाग हैं जिनकी दूरदृष्टि से विदेशी सत्त्ता को एक दिन यहां से विदा होना पड़ा और हम आज स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक होने का गर्व रखते हैं।
मुगलकाल में जितने योद्घा बाबर से लेकर औरंगजेब तक उनकी सत्ता और निर्दयता से भिड़े वे सबके सब उसी महान संस्कार की फलश्रुति थे, जो स्वामी शंकराचार्य ने सैकड़ों वर्ष पूर्व रोपित कर दिया था। शंकराचार्य जी की इस क्रांतिकारी योजना को जानबूझकर हमारी दृष्टि से ओझल रखा गया है। जिसका परिणाम यह हुआ है कि शंकराचार्य को हमने केवल एक धार्मिक पूजापाठ वाला व्यक्ति बनाकर छोड़ दिया है।
आदि शंकराचार्य के इसी प्रयोग को गुरु गोविंद सिंह ने अपने लिए पंच प्यारे खोज कर पूरा किया था। उन्होंने भी देश व धर्म की रक्षा के लिए पंच प्यारों को की खोज की।
वास्तव में भारत में महात्मा बुद्घ की अहिंसा का अतिरेकी प्रचार-प्रसार सम्राट अशोक ने किया था। जिस कारण बौद्घधर्म बड़े वेग से भारत में फैला। अशोक के इस अतिरेकी कार्य पर स्वातंत्रयवीर सावरकर ने भारतीय ‘इतिहास के छहस्वर्णिम पृष्ठ भाग 1’ पृष्ठ 56 पर लिखा है -”बौद्घधर्म में दीक्षित होने के पश्चात अशोक ने बौद्घधर्म के अहिंसा प्रभृति कुछ तत्वों और आचारों का जैसा अतिरेकी प्रचार किया, उसका भारतीय राजनीति पर, राजनीतिक स्वाधीनता पर और साम्राज्य पर अनिष्टकर प्रभाव हुआ है। राजशक्ति के बल पर अशोक ने अपने साम्राज्य में और बाहरी देशों में भी बौद्घधर्म की अहिंसा का एक अतिरेकी प्रचार प्रारंभ कर भारतीय साम्राज्य के मूल पर ही जो आघात किया था वह राष्ट्रीय अस्तित्व और स्वातंत्र्य के लिए कहीं अधिक महंगा था। सभी प्रकार का शस्त्रबल हिंसामय और पापकारक है तथा क्षात्रधर्म का पालन करने वाले हिंसक तथा पापियों की श्रेणी में रखने योग्य हैं, जैसे प्रचार से क्षात्रवृत्ति पर आघात लगाया गया। राष्ट्र की रक्षा के लिए लडऩे वाले तथा वीरगति स्वीकार करने वाले क्षत्रिय वीर सैनिकों की तुलना में बौद्घ धर्मानुसार जीवन यापन करने वालों को उच्च पुण्यात्मा और पूजा योग्य घोषित किया गया, जिससे क्षात्र धर्म को क्षति पहुंची।”
स्वामी शंकराचार्य का विचार था कि आत्यंतिक अहिंसा भारतीय क्षात्रधर्म और राष्ट्रनीति का विध्वंस कर देगी। वह श्रीराम जी और श्रीकृष्ण के यौद्घेय स्वरूप को राष्ट्र के लिए और राष्ट्रनीति के लिए उपयुक्त मानते थे।
सल्तनत काल और मुगलकाल में भारत में बड़ी शीघ्रता से जनसंख्या का विस्थापन हुआ। लोग सुरक्षित स्थानों की ओर भागते थे और वहीं अपने ठिकाने बनाकर शत्रु से संघर्ष करते थे। इन पलायनों और जनसंख्या के विस्थापन में वही जातियां और गोत्रों के लोग सम्मिलित रहे जो अपनी समकालीन सत्ता का अधिक विरोध कर रहे थे और इस कारण जिन्हें सत्ता की क्रूरता और निर्दयता का अधिक शिकार बनना पड़ रहा था। इन लोगों के इस प्रकार के पलायन का प्रमुख कारण चूंकि देशभक्ति थी इसलिए इनके वंशज आज तक अपने पूर्वजों के इधर-उधर घूमने को और बहुत देर कष्ट सहकर कहीं किसी निश्चित स्थान पर बस जाने को अपना सौभाग्य समझते हैं। जिस देश में सदियों तक कष्ट सहने वाली अपनी पूर्वज पीढिय़ों को लोग आज तक गौरव के साथ स्मरण करते हों, उस देश के लोगों को भला कायर कैसे माना जा सकता है ?
हमारा भारतीय धर्म जिस दिन मानवता ने आंखें खोली थीं उसी दिन से यह घोष करता चला आ रहा है कि ‘ब्रह्मतेज’ धारी व्यक्ति के मस्तक से ऐसी किरणें निकलती हैं-जिनसे शत्रु भय खाता है। जैसे ईश्वरीय दिव्य शक्तियों के समक्ष दुष्टता का विनाश होने लगता है और मानव का भीतर से निर्माण होकर वह दिव्यता को प्राप्त करने लगता वैसे ही ‘ब्रह्मतेज’ युक्त व्यक्ति के प्रभाव के सामने दुष्ट व्यक्ति स्वयं ही भागने लगता है। इसी ‘ब्रह्मतेज’ के उपासक हमारे वे सभी पूर्वज रहे जिन्होंने भारत का दीर्घकालीन स्वातंत्र्य समर लड़ा। जो देश ‘ब्रह्मतेज’ को त्याग देता है वह अपनी स्वतंत्रता को खो देता है। हमारा ‘ब्रह्मतेज’ क्षीण तो हुआ पर हमारे कितने ही जननायकों की प्रेरणा से हम ‘निस्तेज’ कभी नहीं हुए और कदाचित यही कारण रहा कि हम एक दिन अपने ‘ब्रह्मतेज’ से अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने में सफल हो गये। इस स्वतंत्रता को लाने में हमारी गोत्रीय परंपरा का विशेष महत्व है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत