आधुनिक विकास की देन है, देवभूमि आपदा
भगवान भोले नाथ का गुस्सा,प्रतीक रूप में मौत के ताण्डव नृत्य में फूटता है। देवभूमि उत्तराखंड में आई भयंकर प्राकृतिक आपदा को इसी गुस्से के प्रतीक रूप में देखने की जरूरत है। इस भूक्षेत्र के गर्भ में समाई प्राकृतिक संपदा के जिस दोहन से उत्तराखंड विकास की अंग्रिम पांत में आ खड़ा हुआ था,वह विकास भीतर से कितना खोखला था,यह इस आपदा ने साबित कर दिया। बारिश,बाढ़,भूस्खलन,बर्फ की चट्टानों का टूटना और बादलों का फटना, अनायास या संयोग नहीं है,बल्कि विकास के बहाने पर्यावरण विनास की जो पृष्ठभूमि रची गई, उसका परिणाम है। तबाही के इस कहर से यह भी साफ हो गया है कि आजादी के 65 साल बाद भी हमारा न तो प्राकृतिक आपदा प्रबंधन प्राधिकरण आपदा से निपटने में सक्षम है और न ही मौसम विभाग आपदा की सटीक भविष्यवाणी करने में समर्थ हो पाया है। हाल ही में मौसम के क्षेत्र में निजी कंपनी स्काईमैट ने भी दखल दिया है। ये विभाग केरल और बंगाल की खाड़ी को तो ताकते रहे लेकिन उत्तर में प्रकृति का प्रकोप अंगड़ाई ले रहा है,इसकी तनिक भी आशंका व्यक्त नही कर पाए। आखिर इन सफेद हाथियों को पाले रखने का औचित्य क्या रह गया है?
भागीरथी,अलकनंदा और मंदाकिनी का टीवी पर्दे पर रौद्र रूप देखकर कलेजा बैठ गया,वहीं उत्तरकाशी, केदारनाथ, रामबाड़ा, रूद्रप्रयाग और अन्य कई क्षेत्रों को जलसमाधि लेते देख कलेजा मुंह में आ गया। मरने वाले श्रद्धालुओं की अनुमानित संख्या देख कलेजा फटने को हो जाता है। समृद्धि, उन्नति और वैज्ञानिक उपलब्धियों का चरम छू लेने के बावजूद प्रकृति का प्रकोप धरा के किस हिस्से के गर्भ से फूट पड़ेगा या आसमान से टूट पड़ेगा,यह जानने में हम बौने ही हैं। भूकंप की तो भनक भी नहीं लगती। जाहिर है, इसे रोकने का एक ही उपाय है कि विकास की जल्दबाजी में पर्यावरण की अनदेखी न करें। लेकिन विडंबना है कि घरेलू विकास दर को बढ़ावा देने के मद्देनजर अधोसंरचना विकास के बहाने देशी विदेशी पूंजी निवेश को बढ़ावा दिया जा रहा है। पर्यावरण संबधी मंजूरियों को प्रधानमंत्री मनमोहम सिंह बाधा करार देते हैं। इससे साबित होता है कि अंततः हमारी वर्तमान अर्थव्यस्था का मजबूत आधार अटूट प्राकृतिक संपदा और खेती ही है। लेकिन उत्तराखंड हो या प्राकृतिक संपदा से भरपूर अन्य प्रदेश उद्योगपतियों की लॉबी जीडीपी और विकास दर के नाम पर पर्यावरण सबंधी कठोर नीतियों को धारहीन बनाकर अपने हित साधने में लगी है। विकास का लॉलीपॉप प्रकृति से खिलवाड़ का करण बना हुआ है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में आई इन ताबाहियों का आकलन इसी परिप्रेक्ष्य में करने की जरूरत है।
उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश से विभाजित होकर 9 नवंबर 2000 को अस्तिव में आया है। 13 जिलों में बंटे इस छोटे राज्य की जनसंख्या 1 करोड़ 11 लाख है। 80 फीसदी साक्षरता वाला यह प्रांत 53,566 वर्ग किलोमीटर में फैला है। उत्तराखंड, भागीरथी, अलकनंदा, सौंग,गंगा और यमुना जैसी बड़ी और पवित्र मानी जाने वाली नादियों का उद्गम स्थल है। इन नादियों के उद्गम स्थलों और किनारों पर पुराणों में दर्ज अनेक धार्मिक व सांस्कृतिक स्थल हैं। इसलिए इसे धर्म-ग्रंथों में देवभूमि कहा गया है। यहां के वनाच्छादित पहाड़ अनूठी जैव विविधता के पर्याय हैं। तय है, उत्तराखंड प्राकृतिक संपदाओं का खजाना है। इसी बेशकीमती भंडार को सत्ताधारियों और उद्योगपतियों की नजर लग गई,जिसकी वजह मौजूदा तबाही है।
उत्तराखंड की तबाही की इबारत टिहरी में गंगा नदी पर बने बड़े बांध के निर्माण के साथ ही लिख दी गई थी। नतीजतन बड़ी संख्या में लोगों की पुश्तैनी ग्राम-कस्बों से विस्थापन तो हुआ ही, लाखों हेक्टेयर जंगल भी तबाह हो गए। बांध के निर्माण में विस्फोटकों के इस्तेमाल ने धरती के अंदरूनी पारिस्थिकी तंत्र के ताने-बाने को खंडित कर दिया। विद्युत परियोजनाओं और सड़कों का जाल बिछाने के लिए भी धमाकों का अनवरत सिलसिला जारी रहा। विस्फोटों से फैले मलबे को भी नादियों में ढहा दिया गया। नतीजतन नदियों का तल मलबे से भर गया,फलस्वरूप उनकी जलग्रहण क्षमता नष्ट हुई और जल प्रवाह बाधित हुआ। लिहाजा बारिश आई तो तुरंत बाढ़ में बदलकर विनाशलीला में तब्दील हो गई। पिछले साल उत्तरकाशी में जो बाढ़ आई थी,उसकी वजह कालिंदी गाड और असिगंगा नदियों पर निर्माणाधीन जलविद्युत परियोजनाएं बनाई गई थीं। इस आपदा में करीब 176 लोग मारे गए थे। परियोजनाओं के लिए पेड़ भी काटे गए। इस कारण से पेड़ो की जड़े मिट्टी को बांधें रखने की कुदरती सरंचना रचती है,वह टूट गई, नतीजतन भूस्खलन को उभरने में आसानी हुई। इस प्रदेश में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर जल विद्युत परियोजना लगाकर सरकार इसे विद्युत प्रदेश बनाने की कोशिश मे है। जिससे बिजली बेचकर यहां की अर्यव्यस्था को मजबूत बनाया जा सके। फिल्हाल राज्य में 70 से ज्यादा जल विद्युत परियोजनाएं आकार ले रही हैं। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुदंरलाल बहुगुणा ने इस तथाकथित विकास को रोकने की दृष्टि से अनेक बार अनशन किये, लेकिन सत्ताधारियों के कानों में जूं तक नहीं रेंगी।
उत्तराखंड जब स्वंतत्र राज्य नहीं बना था, तब इस देवभूमि क्षेत्र में पेड़ काटने पर प्रतिबंध था। नदियों के तटों पर होटल नहीं बनाए जा सकते थे। यहां तक कि निजी आवास बनाने पर भी रोक थी। लेकिन उत्तरप्रदेश से अलग होने के साथ ही, केंद्र से बेहिसाब धनराशी मिलना शुरू हो गई। इसे ठिकाने लगाने के नजरिए स्वयंभू ठेकेदार आगे आ गए। उन्होंने नेताओं और नौकरशाहों का एक मजबूत गठजोड़ गढ़ लिया और नए राज्य के रहनुमाओं ने देवभूमि के प्राकृतिक संसाधनों के लूट की खुली छूट दे दी। भागीरथी और अलंकनदा के तटो पर बहुमंजिला होटल और आवासीय इमारतों की कतार लग गई। पिछले 13 साल में राज्य सरकार का विकास के नाम पर प्रकृति के दोहन के अलावा कोई उल्लेखनीय काम नहीं है। जबकि 13 साल में 6 मुख्यमंत्रियों के 7 कार्यकाल देख चुके इस राज्य का निर्माण का मुख्य लक्ष्य था कि पहाड़ से पलायन रूके। रोजगार की तलाश में युवाओं को महानगरों की और तकना न पड़े। लेकिल 2011 में हुई जनगणना के जो आंकड़े सामने आए हैं, उनके अनुसार पौढ़ी-गढ़वाल और अल्मोड़ा जिलों की तो आबादी ही घट गई है। तय है, क्षेत्र में पलायन और पिछड़ापन बढ़ा है। विकास की पहुंच धार्मिक स्थलों पर ही सीमित रही है, क्योंकि इस विकास का मकसद महज श्रद्धालुओं की आस्था का आर्थिक दोहन था। यही वजह रही कि उत्तराखंड के 5 हजार गांवों तक पहुंचने के लिए सड़कें भी नहीं हैं। खेती वर्षा पर निर्भर है। उत्पादन बाजार तक पहुंचाने के लिए परिवहन सुविधाएं नदारद हैं। तिस पर भी छोटी बड़ी प्राकृतिक आपदाएं कहर ढाती रहती हैं। इस प्रकोप ने तो तथाकथित आधुनिक विकास को मिट्टी में मिलाकर जल के प्रवाह में बहा दिया। ऐसी आपदाओं की असली चुनौती इनके गुजर जाने के बाद खड़ी होती है, जो अब जिस भयावह रूप में देखने में आ रही है,उसे संवेदनशील आंखों से देखा जाना भी मुश्किल है।
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