आज का चिंतन (25/06/2013)
ये कैसा पैशाचिक ताण्डव
– डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
यह वही दैवभूमि है जहाँ भगवान रहते हैं और भगवान की झलक पाने पूरा देश उत्तराखण्ड की वादियों में सदियों से उमड़ता रहा है। जीवन बनाये रखने को तरसने वाले लोगों के लिए रोटियां और पानी सोने से कहीं अधिक महंगा हो गया है, फंसे हुए लोग विवश हैं और जिन्दगी की भीख मांग रहे हैं।
अचानक आयी इस महान आपदा में मारे गए लोगों के जिस्म से जेवरों और परिधानों से धन की लूट का ताण्डव है वहीं जो लोग जिन्दा हैं उनके सामने जिन्दा रहने का संकट पैदा हो गया है। दूसरी ओर चोर-उचक्कों, गुण्डों और लूटेरों के लिए उत्तराखण्ड की आपदा वरदान बन कर सामने आ गई है।
ऎसे बदमाश नरपिशाच न भगवान को छोड़ रहे हैं, न लोगों को, और न ही मुर्दों को। ये वही उत्तराखण्ड की वादियां हैं जहाँ भगवान केदारनाथ रहते हैं, भगवान बदरी विशाल विराजमान हैं, गंगोत्री और यमुनोत्री है। अलकनंदा,भगीरथी और गंगा जैसी सुर सरिताएं विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग नामों से प्रवाहमान हैं।
उत्तराखण्ड की असली तस्वीर लगता है अब सामने आ रही है। यात्री जितनी श्रद्धा और भावना से वहाँ जाते रहे हैं उससे भी कहीं अधिक शोषक मानसिकता से वहाँ जाने कितने धंधे चल रहे हैं।
धर्म के नाम पर जो कुछ होता रहा है वह दैव भूमि में आसुरीत्व को ही प्रकटाता है। देश के कोने-कोने से हजारों-लाखों लोग चार धाम का पुण्य पाने के लिए उत्तराखण्ड की यात्रा को जाते हैं। लोग वहाँ की यात्रा को पूर्ण कर दैव ऋण से उऋण होते हैं और मोक्ष प्राप्ति की राह में आगे बढ़ने का अहसास करते हैं लेकिन इन श्रद्धालुओं की श्रद्धा का कितना आदर-सम्मान इन दैव तीर्थों पर होता है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है।
धर्म स्थल जब पर्यटन, अंधाधुंध कमाई और धंधों का आवरण ओढ़ लेते हैं तब अधर्म की सारी प्रदूषित हवाओें का जोर चलते लगता है। तब सिर्फ लगता है जैसे धर्म और भावना नेपथ्य में कहीं खो गए हैं और मुखर हो गई हैं वे सारी विद्रुपताएं जिनमें कूट-कूट कर भरी है मुनाफाखोरी और धंधों की मानसिकता।
हर श्रद्धालु इन धंधेबाजों के लिए आस्थावान से कहीं ज्यादा टकसाल के रूप में दिखने लगता है जिसकी जेब से जितना ज्यादा कुछ निकलवा सकें निकाल लें। तभी तो उत्तराखण्ड में हर कहीं दैव धामों के पास धर्मशालाओं के मुकाबले होटलें और रेस्टोरेंट बन गए हैं और हर तीर्थयात्री इन लोगों के लिए श्रद्धालु की बजाय पर्यटक नज़र आने लगे हैं।
इतनी विराट आपदा, मौत का मंजर और दर्द के समंदर के बीच मारपीट और लूट जैसी घटनाओं ने साबित कर दिया है कि अब मानवीय संवेदनाएं खत्म होती जा रही हैं और इसका स्थान ले रहा है आसुरी प्रभाव।
अपना सब कुछ गँवा बैठे लोगों को लूटने से लेकर मुर्दों के जेवर, रुपये-पैसे निकाल लेने जैसी घटनाओं ने सिद्ध कर दिया है कि हम कलियुग के उस चरम पर पहुंच गए हैं जहां आदमी आदमी के खून का प्यासा हो गया है।
दैवभूमि में नरपिशाचों की इन हरकतों ने मानवता को शर्मसार किया है और बीते युगों की याद दिला दी है जहाँ सज्जनों और ऋषि-मुनियों पर आसुरी हमले होना आम बात थी।
लानत है उन लोगों को जो आपदा में फंसे लोगों की मजबूरी और जीने की ललक का फायदा उठाकर मुनाफाखोरी कर रहे हैं। दैव भूमि में रहने वाले ऎसे ही नरपिशाचों, डकैतों और लूटेरों की ही वजह से दैवभूमि के दैव नाराज हो गए हैं वरना हजारों मील दूर से श्रद्धा के साथ आए श्रद्धालुओं का कोई दोष नहीं था। वे लोग तो पुण्य कमाने के लिए ही इन वादियों में आए थे।
दैवभूमि पर इन्हीं धंधेबाज नरपिशाचों और भेड़ियों के पापों का ही परिणाम है कि बेचारे हजारों श्रद्धालु बेघर हो गए, मौत के मुँह में चले गए और पूरा का पूरा उत्तराखण्ड बर्बाद हो गया है।
अब बरसोें तक इन धंधेबाजों तक को निवाला नहीं मिलने वाला। धर्म और पर्यटन की बात तो दूर है। पीड़ितों और आपदाग्रस्तों को यथासंभव सेवा तथा सहयोग देने जैसी मानवीय संवेदनाओं के उदाहरणों के बीच लाशों को टटोल कर, अंग काट कर जेवर निकाल देने जैसी घटनाएं आखिर क्या दर्शाती हैं? यह हम सभी को सोचना होगा।
बात उत्तराखण्ड तक ही सीमित नहीं है। जहाँ-जहाँ धर्म के नाम पर धंधों का जोर बढ़ता जा रहा है उन सभी के लिए केदारनाथ का कहर और उत्तराखण्ड की वादियों का हश्र सीधा और साफ-साफ संकेत दे रहा है। अब भी समय है हम समझ जाएं, संभल जाएं वरना ….।