भगवान को पसंद हैं श्रद्धा और एकांत
संसार से मुक्त होने चाहिएं तीर्थ
डॉ. दीपक आचार्य
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भगवान चरम शांति, महा आनंद और शाश्वत आत्मतोष प्रदाता है और उसे वे ही स्थान पसंद होते हैं जहाँ असीम शांति हो, पंच तत्वों से भरपूर उन्मुक्त प्रकृति का आक्षितिज विस्तार हो और सदा बहती रहें श्रद्धा और आस्था की वेगवती अभिराम और अविराम धाराएँ।
तभी तो हमारे प्राचीन तीर्थ और देवालय बस्तियों यानि की संसार से दूर बहुत दूर होते हैं। भगवान को वे ही स्थल पसंद हैं जो संसार से दूर हों। माया और राम में से एक ही एक स्थान पर हो सकता है। इस तत्व को हमारे पुरखों ने अच्छी तरह आत्मसात कर रखा था।
दुनिया में जहाँ-जहाँ प्राचीन धर्म स्थल हैं वे सारे के सारे संसार से दूर अर्थात एकान्त और असीम शांत स्थलों पर हैं जहाँ से बस्तियाँ मीलों दूर हैं। हमारे आस-पास के मन्दिरों से लेकर देश के प्राचीन तीर्थों को ही देख लें। इनकी भौगोलिक स्थितियों से साफ पता चल जाता है कि भगवान ने पहाड़ों, गुफाओुं, कंदराओं, नदियों के किनारे, जंगलों और ऎसे स्थलों पर अपना डेरा जमाया जहाँ न किसी प्रकार का शोरगुल था और न ही सांसारिक प्रवृत्तिया का मायाजाल।
इन स्थलों की तमाम खासियतों के साथ ही उन्मुक्त प्रकृति का खुला पसरा आँगन, नदी-नालों का बहता नीर और सभी पाँच तत्वों की प्रचुरता विद्यमान थी। असीम शांति का माहौल तो इन स्थलों में था ही।
तभी तो ऋषि-मुनियों, सिद्धों-तपस्वियों और महात्माओं ने इन एकान्त स्थलों को ईश्वरीय दिव्यता का धाम मानकर इन्हें तपस्या के लिए चुना और अपने आश्रम स्थापित किए। और इसी वजह से शांति और आत्मतत्व की खोज में हजारों किलोमीटर दूर से इन स्थलों पर आने वाले श्रद्धालुओं के रेले सदियों से इन स्थलों की पावन दिव्यता का जयघोष करते रहे हैं।
संसार की तमाम प्रकार की प्रवृत्तियों में एकरसता और जड़ता से घिरा आदमी शांति और आत्मतोष की भूख-प्यास मिटाने मन्दिरों व तीर्थों की ओर रूख करता है। लेकिन आजकल असीम शांति और सुकून का अहसास कराने वाले मन्दिर रहे कहाँ ?
सभी मन्दिरों को हमने संसार के बीच ला खड़ा कर दिया है और अब शायद ही कोई ऎसा अज्ञात स्थल बचा होगा जो संसार के मायाजाल से अछूता होगा। आजकल के मन्दिरों में शांति और सुकून कहीं रहा ही नहीं। देश के चारों धामों, द्वादश ज्योतिर्लिंगों, सप्त पुरियों से लेकर हमारे अपने इलाकों के मन्दिरों को ही देख लें तो साफ-साफ पता चल जाएगा कि मन्दिर रहे ही नहीं बल्कि मन्दिरों का स्वरूप ऎसा हो चला है जैसे कि कोई दुकान ही हो।
देश भर में अधिकांश मन्दिर दुकानों, बाजारों, होटलों, रेस्टोरेंट्स, धर्मशालाओं और जाने किन-किन किस्मों के व्यवसायिक केन्द्रों से घिर कर रह गए हैं।
भगवान का एकान्त छिन गया है, मन्दिरों की शांति भंग हो गई है और अब शांति की तलाश में मन्दिर आने वाले श्रद्धालुओं को कोई आत्मीय सुकून प्राप्त नहीं हो पाता है। कई मन्दिर दुकानों से घिर गए हैं तो कई खुद दुकान की तरह हो गए हैं।
जिन मन्दिरों में भक्त मनःशांति के लिए आया करते थे वहाँ पोंगापंथियों और ढोंगियों ने माईक लगवा दिए हैं,दिन-रात भजनों और मंत्रों की कैसेट्स बजवा रहे हैं और कृत्रिम ढोल-नगाड़ों वाले यंत्रों का उपयोग कर दिखावे की आरतियां कर रहे हैं। जहाँ धर्म से विमुख इन लोगों को न धर्म की समझ है, न मन्दिरों के महत्त्व से ये वाकिफ हैं। इनके लिए ये मन्दिर धंधे से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
इन्हें इस बात की भी समझ नहीं है कि ये लोग जो कर रहे हैं वह सब कुछ बस्तियों के लिए है, मन्दिरों के लिए नहीं। मन्दिरों में हमेशा असीम शांति का माहौल बना रहना चाहिए। संसार के कर्मों में निरन्तर शोरगुल में रमे रहने वाले लोग शांति पाने के लिए मन्दिरों में आते हैं और ऎसे में मन्दिरों में भी शांति का माहौल नहीं रहा। खुद भगवान के कान भी पक जाते होंगे दिन-रात कैसेट्स और माईक के शोरगुल को सुनते-सुनते।
धर्म का धंधा प्रचार के रंग में रंगने लगा है और अब जो कुछ धर्म के नाम होता है वह बिना माईक के संभव नहीं हो पाता। बाबाजी और पण्डितों को भी माईक के बिना मजा नही आता। यों कहें कि धंधों में रमे इन लोगों की आवाज में अब वो पुराना दम-खम रहा ही नहीं। माईक न हो तो इनकी आवाज थोड़ी दूर भी नहीं पहुंच पाए।
आजकल हम जो कुछ सत्संग, भजन-कीर्तन और अनुष्ठान कर रहे हैं वह भगवान की आराधना की बजाय लोगों के लिए हो रहे हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग आकषित हों तथा अपना धंधा लगातार परवान पर चढ़ता रहे। छोटे से लेकर बड़े स्तर पर धर्म स्थलों को धंधों से जोड़ने की जो कोशिशें हमारे अपने गांव-शहर और कस्बों से लेकर देश के प्रमुख तीर्थों तक हो रही है उसी का नतीजा है कि आज हमारे तीर्थ ईश्वरीय आस्था और श्रद्धा की बजाय धंधों से घिर कर रह गए हैं।
जात-जात के धंधों और अंधविश्वासों से श्रद्धालुओं के विश्वास को लूटने का गोरखधंधा सभी जगह चल रहा है। मन्दिरों की एक-एक इंच जमीन को हम अपने धंधों और लाभ के लिए इस्तेमाल करने लगे हैं। कहीं दुकानों की भरमार है जो भगवान के नाम पर उन लोगों को कमा कर दे रही हैं जो धर्म के ठेकेदार हैं।
वहीं बड़े-बड़े तीर्थ स्थलों से श्रद्धा और सेवा भावना गायब है और उसकी जगह ले ली है धंधों से भरी मानसिकता ने, जहाँ आने वाले श्रद्धालुओं से ज्यादा से ज्यादा पैसा खींचने की मनोवृत्ति हावी है और इसी के फेर में मन्दिरों को चारों तरफ से घेर लिया गया है। कहीं दुकानें हैं, कहीं धर्मशालाएं, कहीं होटलों और रेस्टोरेंट्स की भरमार है। कहीं पुजारियों और ट्रस्टियों के आवास बने हुए हैं। लारियां, फेरियां और ठेलों-गुमटियों वालों का तो कोई हिसाब है ही नहीं। आखिर इतने सारे धंधेबाजों के हमेशा बने रहने वाले कुंभ के बीच भला भगवान भी अपने आपको शांत रख सकता है?
मन्दिरों और तीर्थों की शांति के साथ-साथ शुचिता भी समाप्त होती जा रही है। अब तीर्थों और दैव धामों पर आने वाले श्रद्धालुओं की गिनती पर्यटक और उपभोक्ता के रूप में होने लगी है।
मन्दिरों और तीर्थों की शांति भंग करने का यह सिलसिला रुकना चाहिए। संसार को दैव धामों से दूर रखना चाहिए और दैव धामों के परिक्षेत्र में सभी प्रकार की व्यवसायिक एवं सांसारिक गतिविधियों का बंद होना जरूरी है क्योंकि जब-जब भी संसार अपने करीब आने लगता है, तब-तब देवी-देवता अपने मन्दिरों और तीर्थों से दूर होने लगते हैं।
यह बात उत्तराखण्ड की महानतम आपदा पर भी लागू होती है। मन्दिरों और तीर्थों से संसार को काफी दूर रखा जाना चाहिए ताकि जो श्रद्धालु आते हैं उन्हें तसल्ली से देवदर्शन और साधना-आराधना का भरपूर अवसर मिले और दैव तथा श्रद्धालु के बीच संसार न रहे।
संसार को छोड़ कर वैराग्य पा चुके बाबाबों, मठाधीशों और महंतों-महामण्डलेश्वरोें को भी इस दिशा में आगे आना चाहिए। सच तो यह है कि इन्हीं मार्गदर्शकोें का फर्ज है कि वे दिशा दें और मन्दिरों तथा तीर्थों की शांति एवं शुचिता को भंग न होने दें। लेकिन इसके लिए यह जरूरी है कि ये लोग प्रलोभन और अपेक्षाओं से दूर रहें और सांसारिक कामनाओं तथा लोकप्रियता के भूत को सिद्ध करने की बजाय ईश्वरीय चिंतन के साथ काम करें।