हिन्दी भाषा के सम्बंध में कुछ विचार
जब से विश्व के प्रामाणिक संदर्भ ग्रंथों ने यह स्वीकार किया है कि चीनी भाषा के बाद हिन्दी के मातृभाषियों की संख्या सर्वाधिक है, कुछ ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का कुचक्र एवं षड़यंत्र रच रही हैं। यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि हिन्दी का मतलब केवल खड़ी बोली है। सामान्य व्यक्ति ही नहीं, हिन्दी के तथाकथित विद्वान भी हिन्दी का अर्थ खड़ी बोली मानने की भूल कर रहे हैं। हिन्दी साहित्य को जिंदगी भर पढ़ाने वाले, हिन्दी की रोजी-रोटी खाने वाले, हिन्दी की कक्षाओं में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों को विद्यापति, जायसी, तुलसीदास, सूरदास जैसे हिन्दी के महान साहित्यकारों की रचनाओं पढ़ाने वाले अध्यापक तथा इन पर शोध एवं अनुसंधान करने एवं कराने वाले आलोचक भी न जाने किस लालच में या आँखों पर पट्टी बाँधकर यह घोषणा कर रहे हैं कि हिन्दी का अर्थ तो केवल खड़ी बोली है। भाषा-विज्ञान के भाषा-भूगोल एवं बोली-विज्ञान के सिद्धांतों से अनभिज्ञ ये लोग ऐसे वक्तव्य देते हैं जैसे वे भाषा-विज्ञान के भी पंडित हैं।
क्षेत्रीय भावनाओं को उभारकर एवं भड़काकर ये लोग हिन्दी की संश्लिष्ट परम्परा को छिन्न-भिन्न करने का पाप कर रहे हैं। तुर्रा यह कि हम तो हिन्दी के विद्वान हैं।
जब मैं जबलपुर के विश्वविद्यालय में हिन्दी-भाषाविज्ञान का प्रोफेसर था, मेरे पास विभिन्न विश्वविद्यालयों से हिन्दी की उपभाषाओं एवं बोलियों पर संपन्न पी-एच.डी. उपाधि के लिए जमा किए गए शोध-प्रबंध जाँचने के लिए आते थे। मैंने ऐसे अनेक शोध-प्रबंध जाँचे जिनमें एक ही पृष्ठ पर एक पैरा में विवेच्य बोली को उपबोली का दर्जा दिया दिया गया, दूसरे पैरा में उसको हिन्दी की बोली निरुपित किया गया तथा तीसरे पैरा में उसे भारत की प्रमुख भाषा के अभिधान से महिमामंडित कर दिया गया। इससे यह स्पष्ट है कि शोध-क्षात्र या शोध-क्षात्रा को तो जाने ही दीजिए, उनके निर्देशक महोदय भी भाषा-विज्ञान के भाषा-भूगोल एवं बोली-विज्ञान के सिद्धांतों से अनभिज्ञ थे।
जब छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाने का आन्दोलन जोरों से चल रहा था, उसी समय मैंने यह आकलन कर लिया था कि छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के बाद कुछ लोग छत्तीसगढ़ी को हिन्दी से अलग भाषा बनवाने के लिए ज़ोर देने लगेंगे। मैंने छत्तीसगढ़ के प्रबुद्ध जनों का ध्यान इस खतरे की ओर दिलाया था। उनके आग्रह पर मैंने भाषावैज्ञानिक आधार पर भाषा और बोलियों के अंतर-सम्बंधों पर प्रकाश डाला था। मेरा लेख छत्तीसगढ़ के रायपुर के दैनिक समाचार पत्रों एवं साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था।
सन् 2009 में, मैंने नामवर सिंह का यह वक्तव्य पढ़ाः
– “हिंदी समूचे देश की भाषा नहीं है वरन वह तो अब एक प्रदेश की भाषा भी नहीं है। उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की भाषा भी हिंदी नहीं है। वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ यथा अवधी, भोजपुरी, मैथिल आदि हैं”।
इसको पढ़कर मैने नामवर के इस वक्तव्य पर असहमति के तीव्र स्वर दर्ज कराने तथा हिन्दी के विद्वानों को वस्तुस्थिति से अवगत कराने के लिए लेख लिखा।
हिन्दी के प्रेमियों से मेरा यह अनुरोध है कि इन लेखों का अध्ययन करने की अनुकंपा करें जिससे जो ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का षड़यंत्र कर रहीं हैं, वे बेनकाब हो सकें।
स्वाधीनता के लिए जब-जब आन्दोलन तीव्र हुआ, तब-तब हिन्दी की प्रगति का रथ भी तीव्र गति से आगे बढ़ा। हिन्दी राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक बन गई। स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व जिन नेताओं के हाथों में था, उन्होंने यह पहचान लिया था कि विगत 600-700 वर्षों से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की एकता का कारक रही है; यह संतों, फकीरों, व्यापारियों, तीर्थ-यात्रियों, सैनिकों द्वारा देश के एक भाग से दूसरे भाग तक प्रयुक्त होती रही है।
मैं यह बात जोर देकर कहना चाहता हूँ कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा की मान्यता उन नेताओं के कारण प्राप्त हुई जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी। बंगाल के केशवचन्द्र सेन, राजा राम मोहन राय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस; पंजाब के बिपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय; गुजरात के स्वामी दयानन्द, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी; महाराष्ट के लोकमान्य तिलक तथा दक्षिण भारत के सुब्रह्मण्यम भारती, मोटूरि सत्यनारायण आदि नेताओं के राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्बंध में व्यक्त विचारों से मेरे मत की संपुष्टि होती है। हिन्दी भारतीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई। हिन्दी राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक हो गई। इसके प्रचार प्रसार में सामाजिक, धार्मिक तथा राष्ट्रीय नेताओं ने सार्थक भूमिका का निर्वाह किया।
मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोलीजाने वाली भाषाओं के जो आंकड़े मिलते थे, उनमें सन् 1998 के पूर्व, हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था। सन् 1991 के सेन्सॅस ऑफ इण्डिया का भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का ग्रन्थ जुलाई, 1997 में प्रकाशित हुआ। यूनेस्को की टेक्नीकल कमेटी फॉर द वॅःल्ड लैंग्वेजिज रिपोर्ट ने अपने दिनांक 13 जुलाई, 1998 के पत्र के द्वारा ‘यूनेस्को प्रश्नावली’ के आधार पर हिन्दी की रिपोर्ट भेजने के लिए भारत सरकार से निवेदन किया। भारत सरकार ने उक्त दायित्व के निर्वाह के लिए केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन को पत्र लिखा। प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने दिनांक 25 मई, 1999 को यूनेस्को को अपनी विस्तृत रिपोर्ट भेजी।
प्रोफेसर जैन ने विभिन्न भाषाओं के प्रामाणिक आँकड़ों एवं तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया कि प्रयोक्ताओं की दृष्टि से विश्व में चीनी भाषा के बाद दूसरा स्थान हिन्दी भाषा का है। रिपोर्ट तैयार करते समय ब्रिटिश काउन्सिल ऑफ इण्डिया से अंग्रेजी मातृभाषियों की पूरे विश्व की जनसंख्या के बारे में तथ्यात्मक रिपोर्ट भेजने के लिए निवेदन किया गया। ब्रिटिश काउन्सिल ऑफ इण्डिया ने इसके उत्तर में गिनीज बुक आफ नॉलेज (1997 संस्करण) का पृष्ठ-57 फैक्स द्वारा भेजा। ब्रिटिश काउन्सिल ने अपनी सूचना में पूरे विश्व में अंग्रेजी मातृभाषियों की संख्या 33,70,00,000 (33 करोड़, 70 लाख) प्रतिपादित की। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार भारत की पूरी आबादी 83,85,83,988 है। मातृभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार करने वालों की संख्या 33,72,72,114 है तथा उर्दू को मातृभाषा के रूप में स्वीकार करनेवालों की संख्या 04,34,06,932 है। हिन्दी एवं उर्दू को मातृभाषा के रूप में स्वीकार करनेवालों की संख्या का योग 38,06,79,046 है जो भारत की पूरी आबादी का 44.98 प्रतिशत है। मैंने अपनी रिपोर्ट में यह भी सिद्ध किया कि भाषिक दृष्टि से हिन्दी और उर्दू में कोई अंतर नहीं है। (जो विद्वान हिन्दी-उर्दू की एकता के सम्बंध में मेरे विचारों से अवगत होना चाहते हैं, वे निम्न लिंक पर जाकर अध्ययन कर सकते हैं –
इस प्रकार ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, आयरलैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि सभी देशों के अंग्रेजी मातृभाषियों की संख्या के योग से अधिक जनसंख्या केवल भारत में हिन्दी एवं उर्दू भाषियों की है। रिपोर्ट में यह भी प्रतिपादित किया गया कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक कारणों से सम्पूर्ण भारत में मानक हिन्दी के व्यावहारिक रूप का प्रसार बहुत अधिक है। हिन्दीतर भाषी राज्यों में बहुसंख्यक द्विभाषिक समुदाय द्वितीय भाषा के रूप में अन्य किसी भाषा की अपेक्षा हिन्दी का अधिक प्रयोग करता है।
हिंदी की अन्तर-क्षेत्रीय, अन्तर्देशीय एवं अंतरराष्ट्रीय भूमिका को स्पष्ट करने के लिए मैंने सन् 2002 में विस्तृत लेख लिखा। उक्त लेख सातवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन समारिका में प्रकाशित हुआ (पृष्ठ 13-23) उसको इंटरनेट पर भी देखा जा सकता है।