सिद्धार्थ शंकर गौतम
भारतीय कला और संस्कृति के बिखरे खंडों को एकत्रित करने और उनके संरक्षण की आवश्यकता को पहचानते हुए 1987 में मूर्धन्य कला विद्वान डॉ. कपिला वात्स्यायन ने इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र की स्थापना की थी। उन्होंने इस केन्द्र को देश-दुनिया में विशिष्ट पहचान दिलाई किन्तु वर्तमान में इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र विशुद्ध रूप से राजनीति, भ्रष्टाचार व सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारियों की शरणस्थली बन गया है। कला-संस्कृति के नाम पर हर माह होने वाले कार्यक्रमों के माध्यम से सरकारी धन की जमकर फिजूलखर्ची की जा रही है। वर्ष के कुछेक बड़े आयोजनों को छोड़ दें तो अधिकाँश कार्यक्रमों द्वारा स्वयं के लोगों को उपकृत किया जा रहा है। नियुक्तियों व सेवावृद्धि में बड़े पैमाने पर नियमों की अनदेखी की जा रही है। उच्च पदों पर चुके हुए कारतूस बिठाकर पता नहीं केंद्र के कर्णधार क्या साबित करना चाहते हैं? उदाहरण के लिए, केंद्र में निदेशक (प्रशासन) के पद पर ले.क. (सेवानिवृत्त) श्री आर.ए. रांगणेकर को नियमों के परे जाकर २६ नवम्बर, २०१८ को दो वर्षों के लिए निदेशक (प्रशासन) का दायित्व सौंपा गया जबकि उनका प्रशासन व वित्त का अनुभव शून्य था। यहाँ तक कि ०५ अक्तूबर, २०१९ को ले.क. (सेवानिवृत्त) श्री आर.ए. रांगणेकर की आयु ६० वर्ष की हुई किन्तु उन्हें ०१ नवम्बर, २०१९ को पुनः एक वर्ष के लिए प्रशासन व वित्त के सम्पूर्ण अधिकारों के साथ अनुबंध आधार पर सेवा विस्तार दिया गया। जो पूर्ण अधिकार उन्हें दिए गए उनका सरकारी नियमों में प्रावधान ही नहीं है। यहाँ यह तथ्य गौर करने करने योग्य है कि जिस चयन समिति ने ले.क. (सेवानिवृत्त) श्री आर.ए. रांगणेकर का उक्त पद हेतु दो वर्षों के लिए चयन किया उसने संभवतः यह देखा ही नहीं कि नियुक्ति के एक वर्ष बाद ही वे ६० वर्ष की आयु पूर्ण कर लेंगे। अब या तो चयन समिति के होनहार व काबिल सदस्यों के ऊपर इन्हें चुनने का दबाव था अथवा सभी ने बिना गंभीरता के इनका चयन कर लिया? ले.क. (सेवानिवृत्त) श्री आर.ए. रांगणेकर को सेवा निवर्तन (Superannuation) का भी गैर-अनुचित लाभ दिया गया। ०५ अक्तूबर, २०१९ को सेवा-निवृत्ति के बाद भी ले.क. (सेवानिवृत्त) श्री आर.ए. रांगणेकर को ०६ अक्तूबर, २०१९ से ३१ अक्तूबर, २०१९ तक नियमित वेतन दिया गया जो तकनीकी रूप से गलत है। गैर-अनुभवी ले.क. (सेवानिवृत्त) श्री आर.ए. रांगणेकर के कारण कार्यालय का दैनिक प्रशासकीय कार्य प्रभावित न हो इस हेतु सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी के विशेष कार्य अधिकारी के रूप में लगभग ७० वर्षीय श्री विजय कुमार रील की ५०,००० रुपये मासिक व ५,००० रुपये यात्रा भत्ता (मासिक) पर नियुक्ति की गई ताकि केन्द्र के प्रशासकीय कार्य में ले.क. (सेवानिवृत्त) श्री आर.ए. रांगणेकर को परेशानी न हो। अब एक ही कार्य हेतु दो व्यक्तियों पर जनता के धन का डेढ़ लाख खर्च किया जा रहा है। आश्चर्य तो इस बात का भी है कि ले.क. (सेवानिवृत्त) श्री आर.ए. रांगणेकर को कला दर्शन विभाग के विभागाध्यक्ष का पद भी सौंपा गया है जबकि कला-संस्कृति व कार्यालय की दैनिक व्यवस्था में भी उनका अनुभव शून्य है।
इसके अलावा इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के प्रकाशन एकक के निदेशक श्री अरुण कुमार सिन्हा के लगभग दो वर्षों के कार्यकाल के दौरान प्रकाशन से जुड़ा अधिकाँश कार्य बिना उद्धरण (Quotation) या प्रवेशद्वार (Portal) पर प्रकाशित अथवा जांचे बिना किया गया है जिसमें बड़े पैमाने पर प्रकाशकों से अवैध लेन-देन की चर्चा है। इस आरोप की सत्यता संदिग्ध है किन्तु अपने पद का दुरुपयोग करते हुए सरकारी कार्य मन-मुताबिक़ प्रकाशकों को देना संदेह को जन्म देता है। श्री अरुण कुमार सिन्हा भारत सरकार से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और केन्द्र में अस्थायी नौकरी पर हैं तो इन्हें सरकारी तंत्र के बारे में पूरी जानकारी है, फिर वे ऐसी अनियमितता क्यों और किसने कहने पर कर रहे हैं यह जांच का विषय है? ऐसी सूचना है कि प्रकाशन एकक में श्री अरुण कुमार सिन्हा बिना आई.एस.बी.एन संख्या के पांच से दस पुस्तक प्रतियां प्रकाशकों से प्रकाशित करवा कर उनका विमोचन करवा देते हैं और इसके बाद बाकी बची पुस्तकों की छपाई कब होती है इसका कुछ पता नहीं। यहाँ यह बात भी गौर करने वाली है कि इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में जिन उच्च पदस्थ व्यक्तियों को अस्थायी नौकरी प्राप्त है वे न तो कभी बायोमैट्रिक उपस्थिति दर्ज करते हैं और न ही कार्यालय में उनकी उपस्थिति हेतु कोई अन्य माध्यम है। ये सभी कर्मी अपने मन-मुताबिक़ समय पर कार्यालय आते हैं तथा कभी भी चले जाते हैं। इनकी अनुपस्थिति का भी कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता जबकि इनकी मोटी-मोटी तनख्वाह हर माह की ०१-०२ तारीख को इनके अकाउंट में आ जाती है। अब क्या यह उच्च स्तर पर चल रहा भ्रष्टाचार है कि बिना इनकी उपस्थिति रिकॉर्ड के; इनके खाते में हर माह की तनख्वाह अपने आप आ जाती है। इस फेहरिस्त में श्री राजेन्द्र रांगणेकर (निदेशक, प्रशासन), श्री अरुण कुमार सिन्हा (निदेशक, प्रकाशन एकक), श्री राकेश कुमार द्विवेदी (परामर्शदाता, राजभाषा अनुभाग), श्री सुरेश चंद (विशेष कार्य अधिकारी, शैक्षणिक), श्रीमती सुप्रिया कॉन्सुल (परियोजना निदेशक, कालदर्शन विभाग) आदि का नाम शामिल है।
इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में बीते तीन वर्षों में कुछ ख़ास कर्मियों की बार-बार पदोन्नति हुई है किन्तु एक बड़ी संख्या में काबिल और मेहनती कर्मियों को उनके हक़ से वंचित रखा जा रहा है। एक सहायक प्राध्यापक को आंतरिक समिति द्वारा पदोन्नत करके प्राध्यापक पद पर प्रोन्नत कर दिया जाता है किन्तु उप सचिव पद पर बैठे व्यक्ति को निदेशक पद पर आने के लिए साक्षात्कार की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इस अनियमितता के कारण अपने चुनिंदा व्यक्ति को (सरकारी तंत्र से बाहर का) निदेशक पद पर बिठाना और मन मुताबिक़ काम करवाना आसान होता है। आश्चर्य इस बात का है कि वेतनमान समान होने के बाद भी दोनों पदों की प्रोन्नति प्रक्रिया में इतना अंतर है। क्या यह परिपाटी उच्च स्तर पर पद के दुरुपयोग व उसकी आड़ में भ्रष्टाचार करने का मामला नहीं है? अभी हाल ही में इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में प्रोफेसर मौली कौशल (विभागाध्यक्ष, जनपद सम्पदा), श्री प्रतापानन्द झा (निदेशक, कल्चरल इन्फॉर्मेटिक्स) एवं डॉ. रमेश गौर (निदेशक, पुस्तकालय) की सेवानिवृत्ति की उम्र सीमा ६० वर्ष से बढ़ाकर ६२ वर्ष कर दी गई। इस प्रक्रिया को कार्यकारिणी समिति के माध्यम से पूरा किया गया। न्यास के अन्य सदस्यों को इस प्रक्रिया में शामिल ही नहीं किया गया। संभवतः संस्कृति मंत्रालय को भी इसकी सूचना अभी तक नहीं दी गई है। डॉ. रमेश गौर (निदेशक, पुस्तकालय) को इसके तीन माह बाद ही डीन (शैक्षणिक) के पद पर प्रोन्नत कर दिया गया। इसके अलावा इस केन्द्र में कार्यरत कई वरिष्ठ कर्मी बिना मंत्रालय की अनुमति के सरकारी खर्चे पर कार्यालयीन कार्य का कहकर विदेश यात्रा करते हैं किन्तु अपनी यात्रा पूर्ण करने के पश्चात परियोजना रिपोर्ट जमा नहीं करते। ऐसा देखने में आ रहा है कि कई अधिकारियों ने ये विदेश यात्राएं बहुतायत की संख्या में की हैं। इस मामले में उच्च स्तर पर सरकारी धन के दुरुपयोग हुआ है और इसकी गहन जांच होना चाहिए। यहाँ कार्यरत कर्मियों हेतु खेल गांव (सीरी फोर्ट इंस्टीटूशनल एरिया) में आवास की व्यवस्था है किन्तु उच्च स्तर पर इन आवासों के आवंटन में भी भाई-भतीजावाद की प्रवृत्ति दिख रही है। अपात्र कर्मियों से लेकर सेवानिवृत्त हो चुके अधिकारियों को इसकी सुविधा प्रदान की जा रही है। ऐसी सूचना है कि उच्च पदस्थ एक सज्जन ने तो दो आवासों को तोड़कर एक करवा लिया है और उसकी सजावट का सारा व्यय केंद्र के मद से हुआ है। क्या यह उच्च पद पर आसीन व्यक्ति द्वारा पद के दुरुपयोग का मामला नहीं है?
दरअसल, ”भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्त निकाय” ही इस केन्द्र की दुर्दशा और मनमानी हेतु उत्तरदायी है। इसकी आड़ में उच्च स्तर पर ‘सब चलता है’ अथवा ‘सब देख लेंगे’ की प्रवृत्ति को आश्रय मिलता है और कार्यकारिणी समिति के माध्यम से मन मुताबिक़ काम करवाना आसान होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि इस केन्द्र में संयुक्त सचिव का पद सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी और कार्यकारिणी समिति की मिलीभगत से खत्म कर दिया गया ताकि भारतीय प्रशासनिक सेवा अथवा मंत्रालय से सम्बंधित कोई अधिकारी केन्द्र में बैठकर इनकी मनमानी तथा पद के दुरुपयोग को बाधित न कर सके। क्या यह साफ़ तौर पर भ्रष्टों को संरक्षण देने व स्वयं को सर्वेसर्वा बनाने की परिपाटी नहीं है? क्या संस्कृति मंत्रालय के अधिकारियों को यहाँ के कर्मचारियों के सन्दर्भ में जानकारी नहीं है? बिलकुल है किन्तु कोई भी मुंह नहीं खोलना चाहता। आश्चर्य तो इस बात का भी है कि ”मैं भी चौकीदार” का नारा लगाने वाले भी इस केन्द्र को चूसने में लगे हैं। सरकारी धन से चलने वाला यह केन्द्र यदि खुद को सर्वेसर्वा मान चुका है तो इसका सबसे बड़ा कारण यहाँ के बारे में स्पष्ट नियम-कायदे न होना है। अब समय आ गया है कि यह मनमानी व भ्रष्टाचार बंद हो ताकि इस देश की जनता की गाढ़ी कमाई का धन इन ”टायर्ड” व ”रिटायर्ड” व्यक्तियों पर खर्च न हो। यहाँ के लिए स्पष्ट नियमावली बने तथा पिछले तीन वर्षों के क्रियाकलापों की विस्तृत व गहन जांच हो ताकि जनता यह मान सके कि ”नए भारत” का निर्माण सही अर्थों में हो रहा है।
सिद्धार्थ शंकर गौतम