——————————————–अध्याय —- 18तत्तखालसा और बंदा वीर बैरागीदिल्ली के मुगल राज्य सिंहासन पर फर्रूखसियर जब विराजमान हुआ तो उसने बादशाह बनते ही बंदा वीर बैरागी के विरुद्ध षड्यंत्रकारी नीतियों को प्रोत्साहित करना आरंभ कर दिया । बादशाह स्वयं भी बंदा वीर बैरागी को अपने लिए एक चुनौती मान रहा था । वह चाहता था कि जैसे भी हो बंदा वीर बैरागी का विनाश किया जाना आवश्यक है । फलस्वरूप बादशाह ने सूबा लाहौर को आदेश दिया कि वह बैरागी के सिक्खों को चेतावनी जारी करे । बादशाह के आदेश का अनुपालन करते हुए सूबा लाहौर सरहिंद पर सेना लेकर जा चढ़ा । उसने वहां के सिक्खों को पराजित किया । इस घटना की सूचना जब बैरागी को मिली तो वह अपनी सेना लेकर वहां जा धमका । दोनों पक्षों में जमकर संघर्ष हुआ । वैरागी की पराक्रमी तलवार के समक्ष मुगलिया सेना ठहर नहीं पाई और उसे हर बार की भांति इस बार भी युद्ध क्षेत्र से पीठ दिखाकर भागना पड़ा।अपनी सेना की इस प्रकार की पराजय को देखकर फर्रूखसियर को बड़ी आत्मग्लानि हुई । तब उसने यह भी आभास कर लिया कि वह सीधे-सीधे बंदा वीर बैरागी को युद्ध क्षेत्र में नहीं हरा सकता । अब फर्रूखसियर ने अपनी कुटिल चालों का आश्रय लेना आरंभ करने का निर्णय लिया । उसने विचार किया कि दिल्ली में गुरु गोविंदसिंह जी की दो पत्नियां माता सुंदरी और साहब देवी रहती हैं । उसने उन दोनों को अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रयोग करने की योजना पर कार्य करना आरंभ किया । अपनी योजना को सिरे चढ़ाने के लिए बादशाह ने हिंदू मंत्री रामदयाल को माता सुंदरी के पास भेजा । उसने बहुत सुंदर संदेश माता सुंदरी के लिए भेजा जिसमें कहा गया था कि हमारा वंश गुरु का सेवक है । बाबा नानक ने ही हमारे वंश को बादशाही का वरदान दिया था। बादशाह सिक्खों को जागीर देने को तैयार है । इस प्रकार की मीठी – मीठी बातों में उसने माता सुंदरी को ठगने का प्रयास किया।बादशाही उद्यत है सम्मान तुम्हारा करने को।जागीर तुम्हें मैं देना चाहता मुझे प्रायश्चित करने दो।।जब बादशाह का यह संदेश माता सुंदरी के पास पहुंचा तो वह स्त्री सुलभ स्वभाव के कारण बादशाह के बिछाये जाल में फंस गई । यद्यपि उसे भाई मानसिंह और सदकीसिंह जैसे प्रसिद्ध कुशल सैन्य नीतिकारों ने समझाने का हर संभव प्रयास किया । परंतु उनकी अच्छी बातों का माता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । माता सुंदरी ने बादशाह की बातों से प्रभावित होकर बैरागी को भी एक पत्र लिख भेजा । जिसमें उसने स्पष्ट किया कि – ” तुम गुरु के सच्चे सिक्ख सिद्ध हुए हो । तुमने बड़े मनोयोग से सिख पंथ की सेवा की है , परंतु अब बादशाह हमें जागीर देने पर सहमत हो गया है। इसलिए तुम जागीर स्वीकार कर लो । हमारा कहना मान जाओ और लूटमार बंद कर दो । “जब यह पत्र बैरागी ने पढ़ा तो उसे बहुत दुख हुआ । उसने तुरंत दरबार का आयोजन किया । उसने अपने दरबार के सामने माता सुंदरी के उस पत्र को रखा । साथ ही अपनी पीड़ा भी सभी दरबारियों के समक्ष व्यक्त की । इसके पश्चात उन्होंने आवेशपूर्ण शब्दों में माता सुंदरी के लिए एक पत्र भी लिखा । जिसमें उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि : – ” आप सिक्ख हो । मैं बैरागी साधु हूँ । मैं कभी गुरु का सिक्ख नहीं रहा । गुरु गोविंदसिंह मुझे मिले अवश्य थे एक बार । उन्होंने मुझसे कहा था कि मेरे बच्चों का प्रतिकार लो । मैंने अपनी तलवार और धनुष बाण से इतना प्रदेश जीता है। इन्ही की शक्ति से लाहौर और दिल्ली जीतूंगा । न मैं किसी की जागीर लेना चाहता हूं ना किसी का उपकार मानता हूं । आप जाओ । किंतु जब तक हमारे ह्रदयों के अंदर गुरुपुत्रों की स्मृति शेष है , हम अपने इस निश्चय को कभी निर्बल नहीं होने देंगे । “माता पर बादशाह का जादू चल गया था । उसने एक ही झटके में तत्कालीन परिस्थितियों में देश के गौरव और सम्मान का प्रतीक बने बंदा बैरागी को संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया । जिस मनोयोगपूर्ण पौरुष और उत्साह के साथ देश बंदा वीर बैरागी के नेतृत्व में अपना स्वाधीनता आंदोलन लड़ रहा था , उसे माता सुंदरी ने एक ही पत्र से मटियामेट करने का प्रयास किया । जिसको बंदा बैरागी ने उसी संदर्भ और अर्थ में लिया जिसमें उसे लेना चाहिए था । फर्रूखसियर अपनी चाल में सफल होने लगा था। बंदा वीर बैरागी ने यद्यपि बहुत ही ओजपूर्ण परंतु आवेशात्मक शब्दों में पत्र लिखा । जिसे पढ़कर स्वाभाविक था कि माता सुंदरी को भी नारी सुलभ ईर्ष्या या क्रोध ही आना था ।बादशाह ने अपनी नई चाल चलते हुए दोनों माताओं का विशेष सम्मान करना – कराना आरम्भ कर दिया । जिससे वह दोनों ही प्रभावित होकर अपने परिवार की परंपरा का विस्मरण कर गईं । बादशाह जितना ही अधिक उनके प्रति झूठा आदर – सम्मान प्रकट करता था , उतना ही वह बंदा वीर बैरागी और अपने सिख सरदारों से दूर होने का प्रयास करती थीं । अब दोनों माताओं ने भी खुलकर बंदा बैरागी का विरोध करना आरंभ कर दिया। वह स्वार्थ में अंधी हो चुकी थीं । यही कारण रहा कि उन्होंने एक ऐसा पत्र सिक्खों के लिए भेज दिया जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि जो गुरु गोविंदसिंह का सिक्ख है वह बैरागी का साथ छोड़ दे। क्योंकि बंदा वीर बैरागी अपने आप को सिक्ख नहीं मानता ।इस प्रकार के आदेश को पाकर पन्थ के मानने वालों में खलबली मच गई । कुछ लोग यह समझ रहे थे कि दोनों गुरु माता जो कुछ भी कर रही हैं , उसके पीछे फर्रूखसियर की कूटनीतिक चालें हैं तो कुछ इसे माताओं के द्वारा पंथ के हित में किया जाने वाला कार्य समझ रहे थे । पंथ के कुछ सरदारों ने माताओं के लिए उनके भेजे गए पत्र का उत्तर देते हुए लिखा कि हम बैरागी को तो छोड़ देंगे परंतु हमें यह भी बताया जाए कि उसके छोड़ने के उपरांत हमारा नेता कौन होगा ? यदि हम युद्ध को छोड़कर अपने घरों में लौट जाएंगे तो स्वाभाविक रूप से हम संसार के बंधनों में फंस जाएंगे और युद्ध को भूल जाएंगे । तब हमारा राज कैसे सुरक्षित रह पाएगा ? इस पर आदेश पारित करते हुए माताओं ने स्पष्ट किया कि अब तुम लोगों को गुरु को ही सदा अपने संग समझना चाहिए । ग्रंथ साहब ही अब तुम्हारे नेता हैं । कभी बैरागी के सामने तुम लोग शीश नहीं झुकाओगे। इस प्रकार के स्पष्ट शब्दों में दिए गए संदेश और आदेश को सुनकर अधिकांश सिक्खों ने बंदा वीर बैरागी से मुंह मोड़ना आरंभ कर दिया।ना बैरागी को शीश झुकाना ना अधिक सम्मान करो। गुरु का यह शिष्य नहीं , इस पर न अभिमान करो।। बादशाह की सेवा करना अपना लक्ष्य बनाओ तुम ।भूलकर कड़वी बातें अपना भविष्य बनाओ तुम ।।अंत में सम्वत 1773 की बैसाखी का वह काला दिन आया जब अमृतसर में बंदा बैरागी का अपमान करते हुए उसी के लोगों ने उसे वहां से बांह पकड़ कर बाहर निकाल दिया । उस समय बैरागी के विरुद्ध वहां पर एक दल बन गया था । अमृतसर में आयोजित होने वाले मेले में जब बैरागी पहुंचा तो इस दल के लोगों ने अपने आपको तत्तखालसा कहा । तत्तखालसा का नेता विनोदसिंह था जो कभी बैरागी का बहुत ही अधिक घनिष्ठ और विश्वस्त साथी रहा था । बैरागी जैसे ही उस मेले में जाकर बैठा इस विनोदसिंह ने बैरागी का अपमान करते हुए अपने साथियों की सहायता से उसकी बांह पकड़ कर उसे वहां से उठा दिया । उसी समय चारों ओर शोर मचने लगा कि जो गुरु का सिक्ख है वह इससे हट जाए । तत्तखालसा इसके पश्चात पृथक हो गया । जितने सिक्ख बैरागी से अलग हुए वह सब उसके शत्रु बन गए।बैरागी जिस मिट्टी का बना हुआ था उसमें पराजय की कहीं कोई संभावना नहीं थी । अतः अत्यंत विषम परिस्थितियों के आने के पश्चात भी बंदा बैरागी ने साहस नहीं छोड़ा । वह धैर्य के साथ स्थिति की समीक्षा करने में लग गया और जितने भर भी लोग उसके साथ थे उन सबको साथ लेकर उसने आगे बढ़ने का निश्चय किया । यद्यपि उस समय उसको भारी चोट लग चुकी थी और अप्रत्याशित क्षति उसको भी उसको उठानी पड़ रही थी । इसके उपरांत भी उसने धैर्य और साहस से काम लेने का प्रयास किया । उसने अपने समर्थकों के बीच यह घोषणा की कि वह हिंदुओं का चक्रवर्ती राज्य स्थापित करने के लिए अपने संघर्ष को निरंतर जारी रखेगा । ऐसा उद्घोष उसके मुंह से सुनकर उसके हिंदू साथियों ने उसका साथ देने का निर्णय लिया।शत्रु बने बैठे फर्रूखसियर ने इस अवसर का लाभ उठाने का प्रयास किया । उसने समझ लिया था कि बंदा बैरागी के साथ सिक्खों का ना होना उसकी शक्ति को बहुत दुर्बल कर गया है । यही कारण रहा कि फर्रूखसियर ने एक बड़ी सेना भेजकर बंदा बैरागी को गिरफ्तार करने की योजना बनाई । अब बादशाह को यह विश्वास था कि उसकी सेना जैसे ही बंदा बैरागी के पास जाएगी वैसे ही वह दुर्बल हो जाने के कारण आत्मसमर्पण कर देगा या बिना युद्ध के ही मेरी सेना उसे गिरफ्तार करने में सफल हो जाएगी। फर्रूखसियर की इस प्रकार की योजना पर उस समय पानी फिर गया जब हिंदुओं के सैन्य दल के साथ बंदा बैरागी उसकी सेना से युद्ध क्षेत्र में आ भिड़ा । नैनाकोट के पास आकर शाही सेना खड़ी हो गई । दोनों सेनाओं में जमकर युद्ध हुआ। युद्ध में सैनिकों के शवों के ढेर लग गए। हिंदू योद्धाओं ने पूर्ण निष्ठा और देशभक्ति का प्रदर्शन करते हुए अपने नेता का साथ दिया । वे यह जान रहे थे कि बंदा बैरागी का यदि इस समय साथ नहीं दिया तो इस महानायक का अंत हो जाएगा जो कि किसी भी दृष्टिकोण से भारत और भारतीयता के हित में नहीं होगा । जबकि तत्तखालसा उसका साथ छोड़ कर अलग हो गया । इसके उपरांत भी युद्ध में कुछ समय पश्चात ही शाही सेना के पैर उखड़ गए । उसे ऐसी अपेक्षा नहीं थी कि बंदा बैरागी इतना निर्बल होकर भी उसके सैनिकों के शवों के इस प्रकार ढेर लगा देगा। बटाला के समीप बंदा बैरागी ने शाही सेना को परास्त किया । जब बादशाह को यह सूचना मिली कि उसकी सेना इस बार भी परास्त हो गई है तो उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा । वह तो यह सोचे बैठा था कि इस बार तो निश्चय ही बंदा बैरागी को जीवित या मृत रूप में उसके सामने शाही सेना ला ही पटकेगी। हां , वह अपनी योजना में इतना अवश्य सफल हुआ कि सिक्खों ने हिंदुओं से कुछ दूरी बनानी आरंभ कर दी ।भारत के लोगों की आपस की कलह , कटुता , ईर्ष्याभाव और फूट के लक्षणों पर विचार करते हुए इकबाल ने कहा था :–सच कह दूं ऐ बिरहमन ! गर तू बुरा ना माने,अपनों से बैर रखना तूने बुतों से सीखा ।जब कोई घर का व्यक्ति विरोधियों से जाकर घर के भेद देने लगता है या अपने नेता की आलोचना व निंदा में लगा रहता है या निज भाइयों से वैर रखकर दूसरों से जाकर उसकी आलोचना करता है , तब समझना चाहिए कि उस घर का पतन होना अब निश्चित है । यही स्थिति किसी देश या राष्ट्र की उस समय होती है ।जब अपने ही लोग दूसरों से जाकर मिलने लगें और अपने महानायक का साथ न देकर राक्षस प्रवृत्ति के शत्रु का पक्ष देने लगें । ऐसी स्थिति आते ही समझ लो कि अंधकार निकट है । इकबाल की बात का अर्थ यही है कि बुतों ने या बुतपरस्ती ने हमारे भीतर विभिन्नताएं उत्पन्न कीं । अनेकेश्वरवाद के अवैज्ञानिक विचार ने ‘ एक देव एक देश ‘ की भावना को चोटिल किया । इस मर्म को समझकर ही हमारे ऋषियों ने ” एक देव और एक देश ” की धारणा एक राष्ट्र के लिए अनिवार्य घोषित की थी । हिंदुओं ने अनेकों चोटें खाने के उपरांत भी अनेकेश्वरवाद की अपनी मूर्खतापूर्ण धारणा को छोड़ने का साहस नहीं किया । हमारे देश के मठाधीश आज भी हिंदू समाज के लोगों की आंखों पर अज्ञान की पट्टी बांधे हुए हैं । जिससे वह बेचारे आज भी ” एक देव और एक देश ” के मर्म को समझ नहीं पा रहे हैं।तत्तखालसा के इस प्रकार के नेताद्रोही आचरण ने न केवल बंदा बैरागी को निर्बल किया अपितु इससे गुरुओं की उस साधना को भी भारी ठेस पहुंची जिसके अंतर्गत वह हिंदू समाज को संगठित कर भारत में प्रविष्ट हुए विदेशियों को भगाने के लिए कार्य कर रहे थे । जो शत्रु अपने विशाल साम्राज्य को गंवाकर अत्यंत दुर्बल हो चुका था , उस समय वह अपने षड़यंत्र में यदि सफल हो रहा था तो उसके पीछे हमारे लोगों के निहित स्वार्थ और गुरु परंपरा से अलग हटकर अपने ही नेता को संदेह की दृष्टि से देखने की उनकी घृणास्पद सोच उत्तरदायी थी।जब विनाश सिर पर आकर बैठेतब मति भंग हो जाती है ।जब अपने ही धोखा देतेतब नीति भंग हो जाती है ।।जब दुर्दिन आकर दस्तक देते ,तब नींद भंग हो जाती है ।जब अच्छी बात बुरी लगतीतब गति भंग हो जाती है ।।फर्रूखसियर ने अपनी पराजय को देखकर अब एक नई चाल चलने का निर्णय लिया । उसने तत्तखालसा को यह संदेश भेजा कि ‘ बाबर ‘ और ‘बाबा ‘ दोनों एक ही हैं । हमारे बीच विवाद की जड़ यदि कोई है तो वह बंदा बैरागी है । जिसके विनाश में यदि आप लोग मेरी सहायता करें तो इस विषबेल का विनाश निश्चित रूप से हो सकता है । उसने माता की सहानुभूति लेने के लिए तत्तखालसा के लोगों को यह संदेश भी भेजा कि बंदा बैरागी ने माता का अपमान किया है । आप लोग चाहें तो मुझसे दस हजार अमृतसर बैठे-बैठे ले लो , परंतु इस समय मेरे साथ संधि कर लो । इस प्रकार के संदेश को सुनकर तत्तखालसा के लोगों ने फर्रूखसियर के साथ उठ खड़े होने का निर्णय लिया।दोनों के मध्य हुई संधि में यह निर्णय लिया गया कि शाही राज्य में सिक्ख अब कभी लूटमार नहीं करेंगे , कोई सिक्ख बैरागी का साथ भविष्य में नहीं देगा , यदि कोई शत्रु लाहौर पर चढ़ाई करेगा तो सिखों द्वारा लाहौर के अधिकारी की सहायता की जाएगी । जबकि बादशाह ने अपनी ओर से यह स्पष्ट किया कि भविष्य में कोई बादशाह सिक्खों की जागीर नहीं छीन सकेगा । किसी हिंदू को बलात मुसलमान नहीं बनाया जाएगा , कोई मुसलमान किसी हिंदू के सामने गोवध नहीं करेगा ।इस प्रकार की संधि ने बंदा बैरागी के हिंदूराष्ट्र निर्माण के सपने को चूर – चूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । इसके कुपरिणामों पर हम आगे चर्चा करेंगे। कुछ भी हो वर्तमान का सच यही था कि बादशाह अपनी चाल में सफल हो गया था , उसने मीठा विष मिला दूध सिक्खों को पिलाने में सफलता प्राप्त कर ली । उसने सिक्खों के प्रति अपनी उदारता का मिथ्या नाटक करते हुए उन्हें अपनी सेना में उच्च पद देने आरंभ कर दिए और कई ऐसे सरदारों को आम माफी भी दे दी जो अबसे पूर्व बंदा बैरागी का साथ देते आ रहे थे ।अब परिस्थितियां बड़ी विकट हो चुकी थीं । बादशाह और सिक्ख मिलकर वैरागी के विरुद्ध कार्य करने पर सहमत हो गए थे । भारत के दुर्दिनों के जिस दौर को बंदा बैरागी और पंजाब के महान गुरु समाप्त करने में जिस प्रकार बड़ी सीमा तक सफल हो गए थे , उसके फिर से लौट आने की भूमिका फर्रूखसियर और सिक्खों ने मिलकर बना ली । अपने ही लोग अपने ही नेता के विरुद्ध गद्दारी पर उतर आए ।भारत जिस उत्साह और उमंग के साथ अपने एक नायक के नेतृत्व में कार्य कर रहा था उस पर ग्रहण लग गया। वास्तव में सिक्खों के इस आचरण ने देश के लिए बहुत बड़ा संकट खड़ा कर दिया था । बंदा बैरागी यह सब देखकर आश्चर्यचकित और दुखी था । वह समझ नहीं पा रहा था कि इतने देशभक्त रहे सिक्ख लोग इस प्रकार उसका साथ छोड़ सकते हैं । यद्यपि वह अभी भी एक सच्चे सेनापति की भांति युद्ध क्षेत्र में डटा रहा। उसे साहस और वीरता के साथ काम लेना था और उसने अपने साहस और वीरता का अपने अंतिम क्षणों तक परिचय भी दिया । इसके उपरांत भी यह सच है कि बैरागी उस समय बहुत ही अधिक विषम परिस्थितियों में फंस चुका था । जिन परिस्थितियों की उसने कल्पना भी नहीं की थी , वह उसके सामने एक विषैले नाग की भांति उसका रास्ता रोके खड़ी थीं ।अब बैरागी लाहौर की ओर बढ़ा और बागबानपुर के स्थान पर उसने आकर अपना डेरा जमा दिया ।खालसा दल के मीरसिंह नामक सरदार ने लाहौर के सूबा असलम खान के बुलावे पर उसका साथ देने का निर्णय लिया । असलम खान के पास उस समय 10000 की सेना थी । बंदा बैरागी और असलम खान के मध्य युद्ध आरंभ हो गया । बंदा बैरागी ने हर बार की भांति इस बार भी शाही सेना के सैनिकों के शवों के ढेर लगाने आरंभ कर दिए । चारों ओर शाही सेना के सैनिक धरती पर गिरते जा रहे थे । इसे देखकर असलम खान के पांव उखड़ गए । उसने इस समय एक नई चाल चली । उसने तत्तखालसा के लोगों को अपनी सेना के सामने कर दिया । इस प्रकार शाही सेना ने तत्तखालसा के सैनिकों को आगे कर उन्हें अपना सुरक्षा कवच बना लिया । असलम खान जानता था कि अपने ही सैनिकों को आगे खड़ा देखकर बंदा बैरागी भावुकता में आ सकता है । जिसका परिणाम उसके लिए शुभ फलदायी हो सकता है । यही हुआ । अपने ही सिक्ख सैनिकों को शाही सेना के सुरक्षा कवच के रूप में आगे खड़ा देखकर बैरागी भावुक हो गया । उसका ह्रदय पसीज गया । वह अपने ही लोगों पर तलवार चलाने में अपने आप को असहाय अनुभव करने लगा । बैरागी की सेना युद्ध क्षेत्र से पीछे हट कर गुरदासपुर लौट आई । इस युद्ध में भारी प्राणहानि बंदा बैरागी की सेना को भी उठानी पड़ी । यह सन 1718 की घटना है। इस युद्ध के परिणामों ने भारत को भीतर तक हिला दिया। यद्यपि कुटिल बादशाह को इस युद्ध के परिणामों को देखकर असीम प्रसन्नता हुई । उसने खालसा के साहस और वीरता की प्रशंसा की और स्वार्थी बनी बैठी माता को बहुत सा धन देकर फिर प्रसन्न करने का प्रयास किया।बैरागी ने युद्ध के परिणामों पर गंभीरता से विचार किया । अब उसने निर्णय लिया कि खालसा के साथ समझौता करने का प्रयास किया जाए । उसे यह समझाया जाए कि वह शत्रु पक्ष के षड्यंत्र में फंस गई है । यदि वह नहीं संभली तो गुरुओं के बनाए गए विशाल साम्राज्य का अंत हो जाएगा । अपने इस निष्कर्ष पर पहुंचकर बंदा बैरागी ने खालसा के लिए एक पत्र भी लिखा । जिसमें उसने अपने हृदय की पीड़ा को व्यक्त करते हुए उससे स्पष्ट किया कि वह गुरुओं के द्वारा दिखाए गए रास्ते का परित्याग न करे । देश , धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए सब एक साथ होकर विदेशी तुर्कों के विरुद्ध लड़ें तो अच्छा रहेगा । बैरागी ने खालसा से यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह स्वयं तो साधु है । उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा । परंतु यह तुर्क लोग अंत में गुरु के सिक्खों और हिंदुओं का ही विनाश करेंगे । अतः इनके विरुद्ध हम सब को एक साथ एक शक्ति बनकर उठ खड़ा होना चाहिए । इसी में देश का और खालसा पंथ का भला है। बैरागी के पत्र को खालसा पंथ के लोगों ने जब सुना व पढ़ा तो कहते हैं कि दरबार में सन्नाटा छा गया। उनमें से कई लोगों को ऐसा लगा कि बंदा बैरागी जो कुछ भी कह रहा है , वह सच है । परंतु निहंग सिक्खों ने एक बार फिर अपनी मूर्खता का परिचय दिया और यह स्पष्ट कर दिया कि बंदा बैरागी ने गुरु का वचन टाल दिया है । अतः इसके साथ किसी भी प्रकार का कोई मेल संभव नहीं है । यदि वह मेल चाहता है तो कलगी उतार दे और अमृत चख ले । बैरागी के लिए यह सब कुछ संभव नहीं था । उसने भी अपनी ओर से यह स्पष्ट कर दिया कि मैंने राजपूतानी के पेट से जन्म लिया है , यदि संकट में आप लोग साथ नहीं देंगे तो मैं अपनी माता के दूध का अपमान नहीं होने दूंगा और शत्रु से अकेले ही लडूंगा ।जिस मां का मैं पूत हूं , दूध की रक्खूँ लाज ।शीश झुका सकता नहीं , रखूंगा ऊंचा ताज।।इसके पश्चात बंदा बैरागी ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब वह खालसा के चक्कर में नहीं पड़ेगा । अब वह शत्रु से स्वयं ही लोहा लेगा । उसको यह भी विश्वास हो गया था कि खालसा अब पूर्णतया देशद्रोही हो चुका है और उसके आचरण पर अब किसी भी प्रकार का विश्वास नहीं किया सकता । उसने दु:खी मन से तत्तखालसा से अपना संपर्क समाप्त कर लिया। इसके पश्चात बंदा बैरागी ने कलानौर पर चढ़ाई की । वहां का नवाब फतेहदीन बहुत सा धन और घोड़े आदि लेकर बैरागी से आ मिला और उसने बंदा बैरागी की अधीनता भी स्वीकार कर ली । तत्पश्चात बैरागी सियालकोट गया । वहां भी उसका किसी ने विरोध नहीं किया । इसके पश्चात गुजरात और अड़प , धन , पोठोहर जैसे क्षेत्रों में भी उसने लूटमार की । वहाँ से बहुत सा धन आदि लेकर वह लौट आया । कतिपय इतिहासकारों का यह मानना है कि उसकी इस समय की गई इस विजय यात्रा का कोई विशेष लाभ नहीं हुआ , क्योंकि इससे उसके पास धन तो आया परंतु उसकी शक्ति में कोई वृद्धि नहीं हुई । इससे बैरागी को केवल इतना ही लाभ हुआ कि कुछ समय के लिए उसके शत्रु पक्ष को या खालसा पंथ के लोगों को यह भ्रान्ति हो गई कि संभवत: बंदा बैरागी का जादू अभी भी चल रहा है । बंदा बैरागी स्वयं भी इस भ्रांति का शिकार हुआ होगा कि लोग अभी भी उसकी अधीनता स्वीकार करने के लिए उतावले हैं। अतः उसे यदि खालसा का साथ नहीं मिलता है तो भी वह अकेले ही शत्रु से भिड़कर उसका विनाश कर सकता है।डॉ राकेश कुमार आर्यसंपादक उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत