ओ३म्
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अपनी रक्षा करना प्रत्येक मनुष्य का धर्म व कर्तव्य है। यह रक्षा न केवल शत्रुओं से अपितु आदि-व्याधि वा रोगों से भी की जाती है। अपने चरित्र की रक्षा भी सद्नियमों के पालन से की जाती है। वेद व धर्म को खतरा किससे है? इसका उत्तर है कि जो वेद को नहीं मानते, वेद विरुद्ध ग्रन्थों को मानते हैं, जो हिंसा में विश्वास रखते हैं और जिनके लिये किसी ग्रन्थ व संस्था के भवन को जलाना व नष्ट करना अनुचित नहीं है, ऐसे अनेक प्रकार के लोगों व संस्थाओं से वेदों को व वैदिक धर्म को खतरा है व हो सकता है। कुछ राजनीतिक दल अपने सत्ता से जुड़े स्वार्थों की पूर्ति के लिये भी वेद और धर्म को हानि पहुंचाते हैं, उनसे भी खतरा है। इतिहास की घटनाओं पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि वेदों को विलुप्त करने का दोष हमारे अपने ही पूर्वजों पर है। उनके आलस्य-प्रमाद के कारण वेदों का पठन-पाठन व अध्ययन-अध्यापन बन्द हो गया था जिससे वेद विलुप्त हो गये थे और इसके परिणामस्वरूप देश-देशान्तर सहित समाज में अविद्यान्धकार व्याप्त हो गया था। सभी प्रकार के अन्धविश्वास एवं पाखण्डों का कारण वेदों का अध्ययन-अध्यापन न होना तथा उसके स्थान पर मनुष्यों द्वारा अविद्यायुक्त ग्रन्थों की रचना कर उनको प्रचलित करना था। इसी कारण से पूर्ण अहिंसक वैदिक यज्ञों में हिंसा की जाने लगी थी जिसके कारण सृष्टिकर्ता ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास न रखने वाले बौद्ध व जैन मतों का आविर्भाव हुआ। इसके बाद से संसार में अनेक अवैदिक मतों का आविर्भाव हुआ। भारत में इतने अधिक मत-मतान्तर हैं कि उनकी गणना करना भी सम्भव नहीं है। प्रतिदिन एक व अधिक धर्म प्रचारक वा गुरु समाज में आ रहे हैं और लोगों को अविद्या में फंसा रहे हैं। इन सभी धर्मगुरुओं का ईश्वरीय ज्ञान एवं धर्म के आदि स्रोत ‘‘चार वेदों” का ज्ञान प्रायः शून्य वा अधूरा है। इन अवैदिक मतों के धर्मगुरुओं की विद्या व योग्यता की परीक्षा आर्यसमाज के वैदिक संस्कृत, व्याकरण एवं वैदिक साहित्य के अध्येता व निपुण विद्वान ही कर सकते हैं। यह केवल अज्ञान से ग्रस्त भोलीभाली धर्मप्रेमी जनता के मनोविज्ञान को जानकर उन्हें कहानी किस्से व भजन सुनाकर अपना अनुयायी बना कर उनसे प्रचुर धन प्राप्त करते हैं और योगियों व तपस्वियों का जीवन व्यतीत न कर सुख-सुविधाओं से युक्त जीवन व्यतीत करते हैं। अतः मूल सद्धर्म कहीं वेद एवं वेदानुकूल दर्शन एवं उपनिषद आदि शास्त्रों में दब कर रह गया है, वह हमारे आधुनिक धर्म-गुरुओं के जीवन व आचरण में देखने को नहीं मिलता।
यहां वेद और धर्म की चर्चा करना भी उचित है। वेद ईश्वरीय ज्ञान को कहते हैं जो ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों के प्रतिनिधि रूप चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा को दिया था। इन ऋषियों ने उन्हें मिला एक-एक वेद का ज्ञान ब्रह्मा जी नाम के पांचवे ऋषि को दिया और इन सभी ऋषियों ने वेदों का प्रचार जन-जन में किया। वेद ज्ञान को ईश्वर ने ऋषियों की आत्मा में प्रकट किया था। इन ऋषियों ने ईश्वर की प्रेरणा से उन मन्त्रों का उच्चारण किया। मन्त्रों के अर्थ व भाव भी परमात्मा ने ही ऋषियों को बताये थे। इन ऋषियों से आरम्भ वेद अध्ययन-अध्यापन की परम्परा महाभारत काल तक अबाध रूप से चली। इन 1.96 अरब वर्षों में एक वैदिक धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई मत उत्पन्न नहीं हुआ। इसका कारण वेदों का पूर्ण सत्य से युक्त होना तथा देश में ऋषि परम्परा का विद्यमान होना रहा। इसके बाद महाभारत युद्ध से हुई हानि के कारण भारत के लोगों में आलस्य-प्रमाद उत्पन्न होकर सर्वत्र अविद्या का प्रसार हुआ जो समय के साथ बढ़ता रहा। इसी का परिणाम आजकल के मत-मतान्तर हैं। वर्तमान में उपलब्ध वेद सत्य धर्म, सत्य मान्तयाओं वा सत्य सिद्धान्तों का पुस्तक है जिसमें वही ज्ञान व वेद मन्त्र हैं जो सृष्टि के आरम्भ में ऋषियों को परमात्मा से प्राप्त हुए थे। सौभाग्य से हमें ऋषि दयानन्द सहित अनेक आर्य विद्वानों के सत्यार्थ से युक्त वेदभाष्य व टीकायें उपलब्ध हैं।
वेदों से ही संसार में ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति सहित सभी पदार्थों के सत्यस्वरूप का प्रकाश हुआ। यदि परमात्मा से वेद और वेदों की भाषा प्राप्त न हुई होती तो आज मनुष्य ज्ञानी तो क्या, कोई भी भाषा तक बोल नहीं सकता था क्योंकि भाषा में विकारों से भाषायें बनती हैं। इसके लिये किसी मूल एक व अनेक भाषाओं का पहले से होना आवश्यक होता है। वेदों की संस्कृत भाषा ही परमात्मा प्रदत्त मूल भाषा है जिसमें समय-समय पर विकार होकर अन्य सभी भाषायें अस्तित्व में आयी हैं। यदि ऐसा नहीं है तो यह प्रश्न होता है कि किसी भी भाषा के निर्माताओं का नाम किसी भी भाषा के साहित्य में उपलब्ध क्यों नहीं होता? इसका कारण यही है कि किसी भी मनुष्य ने किसी भाषा को नहीं बनाया है अपितु वह पूर्व प्रचलित भाषाओं में विकार होकर भौगोलिक कारणों सहित उस भाषा का प्रयोग करने वाले मनुष्यों के अल्प-ज्ञान व मनुष्यों के उच्चारण दोष आदि कारणों से बनी हैं। यह भी बता दें कि ऋषि दयानन्द ने अपने अतुल वैदुष्य व अनुभव से बताया है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना व पढ़ाना वेदानुयायी आर्यों व प्रत्येक मनुष्य का परम धर्म है। इस लिये वेदों की रक्षा अति आवश्यक है क्योंकि यह सृष्टि के आदि पुरुषों से लेकर महाभारत काल व उसके बाद सैकड़ों वर्षों तक विश्व की भाषा रही है। देश विदेश में वेदों व भाषाओं की उत्पत्ति आदि पर अनुसंधान चल रहे हैं और हमारा अनुमान है कि सत्य यही है कि केवल वेदों की भाषा संस्कृत ही मूल व आदि भाषा है और इसी में विकार होकर अन्य सभी भाषायें बनी हैं।
धर्म की चर्चा करते हैं तो धर्म शब्द के अर्थ पर ध्यान जाता है। यह शब्द ही बता रहा है कि मनुष्यों के लिये जो धारण करने योग्य श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव हैं, उनको धारण करने से ही उन्हें धर्म कहा जाता है। सत्य को धारण करना सभी मनुष्यों का धर्म है। ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानना और उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये प्रतिदिन प्रातः व सायं उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना भी सभी मनुष्यों का धर्म है। सभी श्रेष्ठ गुणों व कर्तव्यों को सभी मनुष्यों को समान रूप से धारण करना चाहिये। इसलिये सभी मनुष्यों का धर्म एक ही होता है। वर्तमान में जो मत-मतान्तर प्रचलित हैं व धर्म न होकर मत, पन्थ, सम्प्रदाय, रिलीजन, मजहब आदि हैं। धर्म केवल वेद है और वह इसलिये कि उसमें मनुष्यों के लिए आवश्यक सब सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का वर्णन है। वेदों में अविद्या व अज्ञान सहित अन्धविश्वास जैसी कोई बात नहीं है। यदि इस विषयक में किसी को शंका है तो वह महर्षि दयानन्द और आर्य विद्वानों के वेदभाष्य एवं अन्य ग्रन्थों को पढ़कर अपना सन्देह निवारण एवं सत्य का निश्चय कर सकता है। सृष्टि के आरम्भ में ही राजर्षि मनु हुए हैं। उन्होंने मनुस्मृति का प्रणयन किया हैै। उनके इस प्रसिद्ध ग्रन्थ में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं जो धैर्य, क्षमा, इच्छाओं का दमन, अस्तेय अथवा चोरी न करना, शौच वा शरीर के बाहर व भीतर की स्वच्छता, सभी इन्द्रियों को नियंत्रण में रखना, सद्बुद्धि का सेवन, विद्या व विवेक, सत्य का धारण एवं क्रोध है। इन्हें ही धर्म के दस लक्षण बताया है। वस्तुतः इन गुणों को धारण करना व सभी श्रेष्ठ कार्यों को करना, ईश्वर की उपासना, वायु शुद्धि हेतु यज्ञ करना, माता-पिता, विद्वानों व वृद्धों की सेवा आदि कार्य करना आदि कार्य धर्म हैं। इसके लिये पृथक से किसी को गुरु बनाने की आवश्यकता नहीं है। यदि बनाना ही है तो ऋषि दयानन्द को बनाना चाहिये जिन्होंने धर्म का ज्ञान कराने के साथ मनुष्य के जीवन का निर्माण करने के लिये उसे सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु, आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि ग्रन्थों सहित वेदों का हिन्दी-संस्कृत भाष्य भी दिया है। हमें नहीं लगता कि संसार में इन ग्रन्थों में निहित सद्ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण अन्य कोई ग्रन्थ व ग्रन्थराशि है। इसका ज्ञान इनके अध्ययन से ही हो सकता है। लोग किसी ग्रन्थ को बिना पढ़े व समझे आलोचना कर देते हैं, यह कार्य उचित नहीं है। अतः वेद सभी मनुष्यों का परमधर्म है। इसकी रक्षा हर कीमत पर होनी चाहिये।
कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति यदि वेद और धर्म का अध्ययन करेगा तो निश्चित रूप से स्वीकार करेगा कि वेद और सत्य धर्म की रक्षा होनी ही चाहिये। विगत एक हजार से अधिक समय में वेद एवं धर्म की रक्षा का कार्य नहीं हुआ है। वेद और वैदिक सद्धर्म को नष्ट कर इसके अनुयायी लोगों के धर्मान्तरण का खेल कुछ मत पन्थ व सम्प्रदाय के लोग खेलते रहे जो किसी से छिपा नहीं है। वह हिन्दुओं का धर्मान्तरण करते रहे जिससे हिन्दुओं की जनसंख्या कम होती गई और उनके सम्प्रदायों की बढ़ती रही। आज भी उनकी मानसिकता वही की वही है। उसमें न तो परिवर्तन हुआ है। देश के कानून भी धर्मान्तरण रोकने में अपर्याप्त हैं। यह धर्मान्तरण छल, बल, भय व प्रलोभन आदि के द्वारा किया जाता है। ऐसा नहीं है कि गुणों की दृष्टि से वैदिक धर्म हीन है व दूसरों का मत इससे अच्छा है। वेद से इतर सभी मतों में अनेक अन्धविश्वास, अवैज्ञानिक मान्यतायेंएवं आधे अधूरे सिद्धान्तों सहित अविद्या युक्त बातें भरी हुई हैं जिसका दिग्दर्शन ऋषि दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में कराया है। यह भी तथ्य है कि भारत में जितने भी हिन्दुओं से इतर मत-पन्थ-सम्प्रदायों के अनुयायी हैं उनके पूर्वज हिन्दू वा आर्य थे जो छल, बल, भय व प्रलोभन से धर्मान्तरित किये गये थे। उन्हीं की सन्तानें हमारे विधर्मी बन्धु हैं। अतः भविष्य में धर्मान्तरण की रोकथाम के लिये सभी आर्य व हिन्दुओं को एक पुस्तक वेद तथा एक ओ३म् ध्वज के अन्तर्गत संगठित होना होगा और राम, कृष्ण, अर्जुन, भीष्म, भीम, चाणक्य एवं ऋषि दयानन्द के जीवनों से प्रेरणा लेकर अपने धर्म व संस्कृति की रक्षा करनी होगी, नहीं तो जो प्रवाह विगत एक हजार से अधिक वर्षों से चल रहा है, वह रुकेगा नहीं, अपितु चलता रहेगा।
हम सबको वैदिक धर्म का पालन करना है और अपने जीवन को शुद्ध व पवित्र रखना है। वास्तविक सत्य व अहिंसा को धारण करना है परन्तु यदि हिंसक से सामना हो तो हमें यथायोग्य व्यवहार करना आना चाहिये। हमें अपने धर्मान्तरित भाईयों को अपने साथ मिलाने के लिये भी प्रयत्न करने चाहिये और उनके साथ आदर्श व्यवहार जैसा वेदों में निर्देशित है, करना है। वैदिक धर्म में किसी अपने व पराये मनुष्य से किसी प्रकार के छुआछूत, भेदभाव व अन्याय का व्यवहार करने का विधान व प्रेरणा नहीं है। संसार के सब मनुष्य ईश्वर की सन्तानें हैं। अतः हमें वेदों का अध्ययन कर उसमें निहित ईश्वर के आदेश को जानकर उसी के अनुसार व्यवहार करना है। अशुद्ध को शुद्ध करने का काम तो हर जगह होता है। शिक्षक ज्ञान देकर ज्ञानहीन विद्यार्थी को शुद्ध करते हैं। हमसे गलती हो जाये तो हम प्रायश्चित करते हैं। वेदधर्म सत्य सिद्वान्तों व विद्यायुक्त विचारों व मान्यताओं पर आधारित है। अतः हमें अपने सभी बन्धुओं को विद्या व सत्य-सिद्धान्तों का दान कर उन्हें अपना अभिन्न मित्र, पारिवारिक सदस्य व सहयोगी बनाना चाहिये और सबसे सद्व्यवहार करना चाहिये। ऐसा करने पर ही हम हम संगठित हो सकते हैं। इसी से हम शुद्ध रहकर दूसरों को भी शुद्ध जीवन की प्रेरणा कर अपने साथ मिलाने का कार्य करेंगे तो निश्चय ही हम पूर्ण सुरक्षित रह सकते हैं। संगठित होने पर हमें कोई किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचा सकता। हमें हानि तभी होती है जब हम निर्बल होते हैं। हमें शताब्दियों से हानि इसी लिये पहुंचाई जा रही है क्योंकि हम संगठित न होने के कारण निर्बल हैं। इजराइल व चीन आदि देशों के संगठित व शक्तिशाली होने का उदाहरण हमारे सामने है। ईश्वर हमारे सभी बन्धुओं को सत्य को अपनाने और असत्य को छुड़वानें की प्रेरणा करें। हम ईश्वर के ज्ञान वेद को अपनायें और पूरे विश्व के निवासियों को श्रेष्ठ विचारों व कर्तव्यों का पालन करने वाला आर्य बनायें तभी हम ईश्वर तथा ऋषि दयानन्द के आदेश का पालन करने वाले बन सकेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत