हमने ऋषि दयानंद के उपकारों को जाना नहीं और न उनसे उऋण होने का प्रयत्न किया है

ओ३म्

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महाभारत युद्ध के बाद देश का सर्वविध पतन व पराभव हुआ। इसका मूल कारण अविद्या था। महाभारत के बाद हमारे देश के पण्डित, ज्ञानी वा ब्राह्मण वर्ग ने वेद और विद्या के ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन प्रायः छोड़ दिया था जिस कारण से देश के सभी लोग अविद्यायुक्त होकर असंगठित हो गये और ईश्वर उपासना एवं सत्कर्मों को भूल कर मिथ्या पूजा व अवैदिक कर्मों को करके दुःख व पतन को प्राप्त हुए। यह स्थिति न्यूनाधिक 5 हजार वर्षों तक जारी रही। इसके बाद ईश्वर की महती कृपा तथा आर्यों वा हिन्दुओं के सौभाग्य से ऋषि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) का आविर्भाव हुआ। उन्हें बाल्यकाल में ही अवैदिक जड़ पूजा के विरुद्ध ईश्वर के द्वारा अन्तः प्रेरणा प्राप्त हुई और घर में उनकी छोटी बहिन और चाचा की मृत्यु की घटनाओं ने उन्हें विरक्त बना दिया। इसके कुछ वर्षों बाद वह सत्य ज्ञान वा विद्या की खोज में निकल पड़े और देश के अनेक भागों में जाकर धार्मिक व सामाजिक विद्वानों की संगति कर उनके उपदेश व ग्रन्थों के अध्ययन से विद्या प्राप्त करते रहे। उन्होंने योग्य योग-गुरुओं से योगाभ्यास भी सीखा और ईश्वर साक्षात्कार की सिद्धि को प्राप्त हुए। इस पर भी उनकी विद्या प्राप्ति की भूख शान्त नहीं हुई। स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती जी की प्रेरणा से वह सन् 1860 में उनके शिष्य प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से विद्या प्राप्ति हेतु मथुरा पहुंचे और लगभग 3 वर्ष उनके सान्निध्य में रहे। उनसे उन्होंने ईश्वरीय ज्ञान वेद के वैदिक व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति सहित अनेक शास्त्रीय ग्रन्थों को पढ़ा व उन पर उनका दृष्टिकोण जाना। विद्या पूरी होने पर गुरु की प्रेरणा से उन्होंने देश व संसार से अविद्या को दूर करने का व्रत लिया और वेद प्रचार के कार्य में संलग्न हो गये। सन् 1863 से जीवन के बलिदान दिवस 30-10-1883 तक उन्होंने अज्ञान व अविद्या को नष्ट कर विद्या के मूल स्रोत ईश्वरीय ज्ञान वेद के प्रचार व प्रसार का प्रशंसनीय कार्य किया। सत्य की रक्षार्थ उन्हें अविद्यायुक्त साम्प्रदायिक, अवैदिक, साम्प्रदायिक ग्रन्थों सहित अज्ञान, अन्धविश्वासों तथा मिथ्याचारों से युक्त मान्यताओं व परम्पराओं का खण्डन व समीक्षा आदि भी करनी पड़ी। सभी अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों के लोग व अंग्रेजी सरकार उनके देश व समाज हित के कार्यों से अप्रसन्न होकर ऋषि के विरोधी हो गये जो अक्टूबर, 1883 में उनका धर्म व ईश्वरीय ज्ञान वेदों के सत्य स्वरूप का प्रचार करने के लिये बलिदान का कारण बना।

ऋषि ने मनुष्य जाति मुख्यतः आर्य-हिन्दुओं पर जो उपकार किये हैं, उन पर विचार करते हैं तो उनका प्रमुख उपकार वेदों का उद्धार करना प्रतीत होता है। वेद के उद्धार से तात्पर्य यह है कि उनके समय में वेद वा वेद-संहितायें और उनके सत्यार्थ किसी को सुलभ नहीं थे। ऋषि दयानन्द ने अज्ञात स्रोतों से वेद संहिताओं को प्राप्त किया और अपने विपुल वेद-वैदुष्य से वेदों के व्यवहारिक सत्य अर्थ कर मनुष्य जाति को प्रदान किये। ऋषि ने वेदों का जो भाष्य किया है वह ऋग्वेद के सातवें मण्डल के इकसठवें सूक्त के दूसरे मन्त्र तक तथा सम्पूर्ण यजुर्वेद का है। इस वेदभाष्य में उन्होंने सभी मन्त्रों को प्रस्तुत कर उनका पदच्छेद कर अन्वय सहित प्रत्येक पद का संस्कृत व हिन्दी में पदार्थ एवं भावार्थ दिया है। ऋषि का किया हुआ वेदभाष्य ‘न भूतो न भविष्यति’ की उपमा के समान अद्वितीय है। ऋषि दयानन्द जैसी योग्यता का व्यक्ति महाभारत युद्ध के बाद देश-देशान्तर में कहीं उत्पन्न नहीं हुआ। इस बात का ज्ञान व समझ उन्हीं व्यक्तियों को ही हो सकती है जो मत-मतान्तरों की पक्षपातयुक्त दृष्टि से सर्वथा मुक्त व निष्पक्ष हैं, स्वस्थ बुद्धि वाले हैं और ऋषि दयानन्द के सम्पूर्ण साहित्य का एक सत्यान्वेषी के रूप में अध्ययन करते व कर चुके हैं। इस वेदभाष्य के अतिरिक्त ऋषि दयानन्द ने चारों वेदों की भूमिका भी लिखी है जिसे उन्होंने ‘‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका” नाम दिया है। यह ग्रन्थ भी सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का अपूर्व एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस भूमिका ग्रन्थ से ही सम्पूर्ण वेदों का सत्यस्वरूप, वेद विषयक अधिकांश विषयों की जानकारी व ऋषि दयानन्द की वेदार्थ प्रक्रिया आदि का ज्ञान होता है। हम समझते हैं कि यदि कोई मनुष्य केवल अक्षराभ्यास कर ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदिइ कुछ ग्रन्थों को ही पढ़ व समझ ले तो उसका जीवन अन्य मत-मतान्तरों के अनुयायियों व आचार्यों की तुलना में कहीं अधिक योग्य होने सहित कल्याण को प्राप्त होता है।

ऋषि दयानन्द का एक महत्वपूर्ण कार्य अविद्या का नाश करने के लिये वेदों का उद्धार व उनका भाष्य करने सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा संस्कार विधि आदि ग्रन्थों का लेखन व प्रकाशन है। असत्य, अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, मिथ्या-परम्पराओं का युक्ति व तर्क पूर्वक खण्डन व वैदिक मान्यताओं का मण्डन करना भी उनकी विशेषता है। सत्य मान्यताओं का मण्डन व असत्य तथा अन्धविश्वास पर आधारित मान्यताओं का खण्डन मनुष्य जाति की उन्नति के लिये अत्यावयक है। हम जब भी किसी विषय या वस्तु का अध्ययन करते हैं तो हम उसके सभी पक्षों पर विचार करते हैं। उससे ही हमें सत्य व असत्य का बोध होता है। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में इसी समीक्षात्मक व खण्डनात्मक शैली का प्रयोग कर अनेक धार्मिक एवं सामाजिक विषयों के सत्य व असत्य पक्ष को सामने रखकर उनका यथार्थ खण्डन-मण्डन किया है जिससे पाठकों का भ्रम व सभी शंकायें दूर हो जाती है। इसी आधार पर उन्होंने नाना प्रकार की जड़ मूर्तियों की पूजा, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, बाल विवाह, सामाजिक असमानता, जन्मना जातिवाद, भूतप्रेत विषयक भ्रान्तियों आदि का खण्डन भी किया है। ऋषि दयानन्द ईश्वर, जीव तथा प्रकृति को अनादि, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी व अमर बताते हैं। वह जीवात्माओं को संख्या को अनन्त तथा परमात्मा को केवल एक बताते हैं। इस जगत का उपादान कारण वह दर्शन की मान्यताओं के अनुसार त्रिगुणात्मक प्रकृति को स्वीकार करते हैं जिसका निमित्त कारण ईश्वर है। जीवात्मा ही वह चेतन सत्ता है जिसको पूर्वजन्मों के अवशिष्ट अभुक्त कर्मों का सुख व दुःख रूपी भोग कराने के लिये परमात्मा ने इस सम्पूर्ण सृष्टि को बनाया है। ऋषि दयानन्द के अनुसार परमात्मा इस सृष्टि का उत्पत्तिकत्र्ता, पालनकर्ता तथा प्रलयकर्ता है। वह अनादि काल से अनन्त बार सृष्टि बना चुका है और भविष्य में अनन्त काल तक सृष्टि की उत्पत्ति, रक्षण और प्रलय करता रहेगा। अविद्या दूर करने तथा सत्य व असत्य मान्यताओं से परिचित कराने के कारण भी सारी मनुष्य जाति ऋषि दयानन्द की ऋणी है।

ऋषि दयानन्द की एक देन यह भी है कि उन्होंने हमें महाभारतकाल व उससे पूर्व के अपने प्राचीन गौरव से भी परिचित कराया है। उनके अनुसार वैदिक काल का भारत अत्यन्त समुन्नत था। प्राचीन काल में हमारे देश में वायुयान, जलयान तथा भूमि पर तेज गति से चलने वाले रथ भी होते थे। हमारी सेनायें अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होती थीं और युद्धों में विजय प्राप्त करती थी। वैशेषिक दर्शन हमें प्रकृति व पदार्थ विज्ञान के अनेक सत्य सिद्धान्तों का परिचय कराता है। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन काल में प्राचीन इतिहास विषय पर देश के अनेक भागों में अनेक व्याख्यान दिये। पूना में सन् 1875 में दिये गये उनके 15 व्याख्यानों को एक आशुलिपिक ने नोट किया था जिसके मराठी भाषा में संस्करण प्रकाशित हुए। इसका हिन्दी अनुवाद भी वर्तमान में सुलभ हैं। इन 15 व्याख्यानों में से 6 व्याख्यान भारत के प्राचीन गौरवपूर्ण इतिहास पर हैं जिसमें अनेक लुप्त तथ्यों को प्रस्तुत किया गया है जिनसे लोग पहली बार परिचित होते हैं। यह भी बता दें कि ऋषि दयानन्द के अनेक शिष्यों यथा पं. भगवद्दत्त जी, रिसर्च-स्कालर तथा आचार्य रामदेव आदि ने भी प्राचीन इतिहास पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। बाल्मीक रामायण तथा महाभारत ग्रन्थ तो इतिहास के ग्रन्थ हैं ही जिसमें प्राचीन भारत का इतिहास सुरक्षित है।

ऋषि दयानन्द ने अनेक क्षेत्रों में अनेक कार्य किए जिसके लिये देश उनका ऋणी है। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज को दस स्वर्णिम नियम भी दिये हैं। यह सभी नियम सर्वोत्तम नियम हैं। इन नियमों से ईश्वर के सत्य स्वरूप का बोध होने सहित वेदों की महत्ता तथा मनुष्य जीवन की उन्नति के प्रमुख आधार सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करने की प्रेरणा भी है। सभी नियम अपूर्व होने सहित सभी संस्थाओं से सर्वोत्तम भी हैं। ऋषि दयानन्द ने अविद्या व अज्ञान का नाश कर विद्या व ज्ञान की वृद्धि करने की प्रेरणा व आज्ञा दी है। यही सब प्रकार की उन्नतियों की उन्नति है। इसी से प्रेरणा लेकर ऋषि दयानन्द के अनुयायियों ने उनके विचारों व मान्यताओं के अनुरूप वैदिक गुरुकुल एवं दयानन्द ऐंग्लो वैदिक स्कूल व कालेज स्थापित किये जो आज भी देश को अपने प्राचीन गौरव से परिचित कराने के साथ शिक्षा की अर्वाचीन आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहे हैं। इसके साथ ही आर्यसमाज के गुरुकुल वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा में भी महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। आर्यसमाज ने ही सन् 1883-1884 में देश को राजनैतिक स्वतन्त्रता का महत्व बताया और स्वराज्य की वकालत की थी। उन्होंने स्वदेशीय राज्य को सर्वोपरि उत्तम और विदेशी राज्य को कितना भी अच्छा क्यों न हो, उसे पूर्ण सुखदायक स्वीकार नहीं किया। ऋषि दयानन्द की इस विषयक पंक्तियां ही स्वराज्य आन्दोलन का आधार बनी और इन्हीं से प्रेरित होकर क्रान्तिकारियों और नरम पंथियों ने देश की आजादी के लिये आन्दोलन किये। ऋषि दयानन्द के अनुयायियों ने उनसे प्रेरणा लेकर समाज से जन्मना जातिवाद, सभी प्रकार के भेदभाव व छुआछूत को भी दूर करने का आन्दोलन किया जिसके अच्छे परिणाम सामने आये। ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज सभी प्रकार के बौद्धिक एवं शारीरिक श्रम का सम्मान करते हैं और किसी भी व्यक्ति को अछूत स्वीकार नहीं करते और न ही किसी प्रकार का भेदभाव ही करते हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में पौराणिकों द्वारा विरोध करने पर भी एक जन्मना दलित बन्धु नाई के घर की सूखी रोटी खाना स्वीकार किया था और दूसरे द्विज व्यक्तियों द्वारा उसके बाद लाया स्वादिष्ट भोजन अस्वीकार कर दिया था। बाल विवाह को समाप्त करने तथा कम आयु की विधवाओं के पुनर्विवाह का भी आर्यसमाज ने विशेष परिस्थितियों में समर्थन किया है। आर्यसमाज के अनुयायियों व नेताओं ने ही अन्तर्जातीय विवाहों को प्रचलित किया है। ऋषि दयानन्द ने ही नारी जाति को पुरुषों से अधिक सम्मान की वकालत की और इसके शास्त्रीय एवं ऐतिहासिक उदाहरण व शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत किये थे। ऋषि दयानन्द का उपदेश था कि माता, पिता और आचार्य को धार्मिक एवं विद्वान तथा सुचरितों से युक्त होना चाहिये। इसी से श्रेष्ठ सन्तान तथा श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण होता है। आर्यसमाज ने शिक्षा जगत में एक अनोखी क्रान्ति की। दलित परिवारों की सन्तानें गुरुकुलों में पढ़कर वेदों की विद्वान बनीं और उन्होंने वेदार्थ के प्रचार में महत्वपूर्ण योगदान किया। आर्यसमाज में एक ऐसे दलित संन्यासी भी हुए हैं जिन्होने आर्यसमाजों की स्थापनायें की और दलितों को प्रोत्साहित कर व धन आदि से उनकी सहायता कर उनको योग्य विद्वान व प्रतिष्ठित व्यक्ति बनाया। ऋषि दयानन्द की सबसे बड़ी देन यह भी है कि उन्होंने वेदों का महत्व बता कर और वेद प्रचार कर विधर्मियों द्वारा किये जाने वाले छल, बल व प्रलोभन पर आधारित धर्मान्तरण पर रोक लगाई थी। यदि वह न आते तो हम अपनी दुर्दशा की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। हम ऋषि दयानन्द के उपकारों के लिये उनको सादर नमन करते हैं।

हमने ऋषि दयानन्द के कुछ उपकारों की संक्षिप्त चर्चा की है। ऋषि दयानन्द के देश, संसार व मानव जाति पर अगणित उपकार हैं। हमें उनके उपकारों के अनुरूप कार्य करके उनके ऋण से उऋण होने का प्रयत्न करना चाहिये। तभी हम कृतघ्नता से बच सकते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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