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भारतीय संस्कृति

हम असंगठित रहेंगे तो सुरक्षित नहीं रह सकते

ओ३म्

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जिस समाज व देश में अनेक विचारधारायें, मत- मतान्तर आदि हों वहां एक विचारधारा व सिद्धान्तों के लोगों को संगठित रहना चाहिये अन्यथा वह सुरक्षित नहीं रह सकते। इतिहास में उदाहरण देखे जा सकते हैं कि हमारी जाति का महाभारत युद्ध से लेकर आज तक क्या हश्र हुआ है। महाभारत के समय पूरे विश्व में एक आर्यजाति हुआ करती थी और आज आर्य जाति जिसका परवर्ती नाम हिन्दू हो गया, उसकी जो स्थिति है, वह हमारे समाने है। आज हिन्दुओं का न तो एक धर्म ग्रन्थ है, न एक विचारधारा, न एक पूजा पद्धति, न संगठन और न परस्पर सुख व दुःख में सहयोग। इसके साथ ही हिन्दू समाज अनेकानेक अन्धविश्वासों में फंसा हुआ है। समय समय पर देश में अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने समय के हिन्दू समाज में विद्यमान अन्धविश्वासों, पाखण्डों तथा मिथ्या परम्पराओं की ओर संकेत कर उसकी निरर्थकता पर प्रकाश डाला और उसे छोड़ कर सत्य सनातन मान्यताओं को प्रचलित करने का आह्वान किया। हम देखते हैं कि उन समाज सुधारकों की बातों पर हमारे पूर्वजों व वर्तमान के लोगों ने उचित ध्यान नहीं दिया। उन सुधारकों ने अपने कर्तव्य का पालन किया और समय आने पर वह या तो बलिदान को प्राप्त हुए अथवा मृत्यु ने उनके कार्यों पर विराम लगा दिया। देश की जनता ने उन सुधारकों के विचारों व भावनाओं का आदर नहीं किया और समाज में कुछ अज्ञानी व स्वार्थी लोग उन अन्धविश्वासों व पाखण्डों सहित अनुचित व मिथ्या सामाजिक परम्पराओं को जारी रखे रहे। समाज दिन प्रतिदिन कमजोर होता रहा और स्वार्थी वर्ग ने अपना सुधार नहीं किया जिसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दू समाज पहले से भी अधिक कमजोर हुआ है।

ईश्वर की कृपा और आर्य-हिन्दू जाति के सौभाग्य से इसे ऋषि दयानन्द सरस्वती जैसा एक क्रान्तिकारी युगपुरुष मिला जिसने आर्य-हिन्दू जाति व समाज के लोगों को जाना, पहचाना और इनके उपचार को भी जानकर जातीय रोग की चिकित्सा हेतु वेदज्ञान की ओषधि लेने व अपनाने का सत्य परामर्श लोगों को दिया। इस परामर्श का विशेष लाभ नहीं हुआ। जैसा पहले होता आ रहा था वैसा ही आज हो रहा है। ऐसा ही उनके समय में उनके साथ भी हुआ। लोगों ने उनके परामर्श को नही अपनाया। कुछ नाम मात्र लोगों ने उनकी बातें मानी और अधिकांश लोग अपनी पुरानी परम्परा व पद्धति पर चलते रहे जिससे समाज कमजोर होता रहा और इसके परिणामस्वरूप समय-समय पर हम पीटते रहे। दुर्भाग्य से कुछ ऐसे नेता भी हुए जिन्होंने आर्य-हिन्दू जाति को संगठित व सबल बनाने के स्थान पर लोक-लुभावन निर्णय लेकर इसे दुर्बल किया। ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने आर्य-हिन्दू जाति को वेदों की ओर लौटने का आह्वान किया था। उन्होंने 21 वर्ष की आयु में गृहत्याग कर व अपने सर्वसुखों का त्याग कर विलुप्त आर्ष ज्ञान जो वेद ज्ञान का पर्याय है, उसकी खोज की थी तथा उसे प्राप्त किया था। उन्होंने बताया था कि सारा संसार एक ही ईश्वर की सन्तान है। यह बात उनके त्रैतवाद के सिद्धान्त से सिद्ध होती है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की मान्यता में भी यही भाव है।

महाभारत के बाद अज्ञान के कारण ईश्वर की सन्तानों आर्य-हिन्दुओं में मत, सम्प्रदाय एवं अनेक अवैदिक धर्म आदि बन गये थे जिसका कारण उन्होंने वेदज्ञान से अनभिज्ञता को बताया था। इसके लिये उन्होंने वेदों की खोज कर मूल वेदों को प्राप्त किया था और उनकी परीक्षा व समीक्षा कर उसे ईश्वरीय ज्ञान व मनुष्य का हितकारक पाया था। वह वेदों के मर्मज्ञ विद्वान, योगी व ऋषि थे। ऐसे योग्य वेदभक्त व वेद-मर्मज्ञ महापुरुष थे जो महाभारत युद्ध के बाद पहली बार आर्यावत्र्त भारत भूमि में जन्मे थे। उन्होंने अपने वैदुष्य की पराकाष्ठा से वेदों का भाष्य किया और वैदिक मान्यताओं पर सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु जैसे अनेकानेक ग्रन्थों को लिखकर व प्रकाशित करा प्रचार किया। वह देश भर में घूमे थे। उन्होंने देश की जनता की स्थिति को प्रत्यक्ष देखा व अनुभव किया था। इन सबकी समस्याओं व दुःखों का निदान उन्हें वेदों के प्रचार व प्रसार में दिखाई दिया था। अतः वेदों को देश व विश्व के सभी लोगों से स्वीकार कराने के लिये उन्होंने एक अपूर्व आन्दोलन चलाया था जिसके लिये उन्होंने आर्यसमाज संगठन बनाकर उसको वेद प्रचार के कार्य में प्रेरित किया था। उन्होंने जो कार्य किया उसे समग्र क्रान्ति कहा जा सकता है। मनुष्य के जीवन, समाज व देश का कोई ऐसा पक्ष नही था जिसके सुधार व उन्नति को उन्होंने अपने चिन्तन का विषय न बनाया हो और उसका समाधान प्रस्तुत न किया हो। इस पर भी देश के सभी लोगों ने उस सर्वकल्याणकारी वैदिक विचारधारा व मत को अपनाया नहीं।

हम इस विषय में जब विचार करते हैं तो हमें यह प्रतीत होता है कि देश की जनता पर जो जन्म के आरम्भ से संस्कार थे, उनकी जो शिक्षा व परम्परायें थीं, यह सब सत्य वेद मत को स्वीकार न करने के प्रमुख कारण थे। देश के लोग जिन धर्माचार्यों से प्रेरणा लेते थे उन्होंने भी जनता का भली प्रकार से मार्गदर्शन नहीं किया। अतः आर्य-हिन्दुओं सहित मानवमात्र की धर्म पुस्तक वेद, ईश्वर के मुख्य एवं निज नाम ओ३म् के ध्वज अर्थात् ओ३म् ध्वज तथा निराकार ईश्वर की योग विधि से वैदिक उपासना पद्धति सहित वैदिक सामाजिक परम्पराओं को आर्य-हिन्दू जाति ग्रहण व धारण कर संगठित नहीं हुई। ऐसा न करने के कारण जाति पर समय-समय पर अनेक समस्यायें एवं संकट आते रहे। आज जब देश व समाज की स्थिति सहित आर्यसमाज और हिन्दू समाज की अन्दरुनी स्थिति पर विचार करते हैं तो हमें आर्य-हिन्दू जाति का भविष्य अनेक संशयों से युक्त भयावह दृष्टिगोचर होता है। ऐसी स्थिति में हमें मनुस्मृति का एक श्लोक स्मरण आता है। यह श्लोक है ‘धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोवधीत्।।’ (मनुस्मृति 8.15) इस श्लोक का अर्थ है कि मारा हुआ धर्म निश्चय से मारने वाले का नाश करता है और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है। इसलिये धर्म का हनन कभी न करना चाहिये, यह विचार कर कि मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले। ऋषि दयानन्द ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है ‘‘जो पुरुष धर्म का नाश करता है, उसी का नाश धर्म कर देता है और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है। इस लिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म का हनन अर्थात् त्याग कभी न करना चाहिए।’’ (संदर्भः संस्कार विधि गृहस्थाश्रम प्रकरण एवं सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 6)

धर्म के पयार्यवाची शब्द सत्य, कर्तव्य व गुण आदि हैं। जिस प्रकार अग्नि का मुख्य धर्म गर्मी और प्रकाश देना, जल का द्रव व शीतल होना तथा वायु का धर्म स्पर्श है उसी प्रकार से मनुष्य का धर्म ईश्वर की आज्ञा का पालन करना है जो उसने वेदों में हमें की है। यदि हम वेदों की आज्ञाओं का पालन करते हैं तो वही धर्म पालन है। यदि नहीं करते तो वह धर्म नहीं अधर्म होता है। हमें दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हमारा प्रिय हिन्दू समाज अनेक वेद विरुद्ध मान्यताओं का आचरण करता आ रहा है। इसी के कारण हम असंगठित हैं और यही हमारे पतन का कारण है। इसी के विरुद्ध श्रषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धान्द एवं अन्य जातीय नेताओं ने हमें चेताया था। इसी कारण आर्यसमाज बना और बाद में सनातनी परम्परा के कुछ बन्धुओं ने आर.एस.एस. की स्थापना की थी। इनका प्रथम उद्देश्य देश की आर्य-हिन्दू जाति को संगठित कर इसकी रक्षा करना था। इसी कारण ऋषि ने सभी वैदिक सिद्धान्तों तथा वेद विरुद्ध व्यवहारों व परम्पराओें को प्रस्तुत कर उनकी यथार्थ स्थिति का प्रकाश सत्यार्थप्रकाश एवं अपने लेखों में किया था। हम आर्यसमाज एवं सनातन धर्म के अपने बन्धुओं से यही निवेदन और प्रार्थना करते हैं कि वह एक बार पुनः गहन विचार कर धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं विषयक सत्य के ग्रहण और असत्य का त्याग करने का निर्णय लें। इसके साथ ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में जो परामर्श दिये हैं, वह सत्य हैं अतः उसे अपनाने का कष्ट करें जिससे हमारी जाति व समाज सुरक्षित रह सकें। हमारी यह भी प्रार्थना है कि देश की वर्तमान में जो स्थिति है उसका भी सभी आर्य एवं हिन्दू नेताओं व आचार्यों को गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करना चाहिये और हिन्दू समाज की रक्षा के हित में उचित निर्णय लेना चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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