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अध्याय 17
मुगलिया शासन व्यवस्था और बंदा बैरागी
धरती के फैले आंगन में
पल दो पल है रात का डेरा,
जुल्म का सीना चीर के देखो ,
झांक रहा है नया सवेरा ,
ढलता दिन मजबूर सही ,
चढ़ता सूरज मजबूर सही ,
रात के राही रुक मत जाना ,
सुबह की मंजिल दूर नहीं ।।
जिस समय बंदा वीर बैरागी को गुरु गोविंदसिंह हिंदुत्व की रक्षा के लिए गोदावरी के तट से उठाकर लाए थे , उस समय देश की शासन – व्यवस्था जनसाधारण पर कितने अत्याचार कर रही थी ? – इसका चित्रण करते हुए खफी खान नाम के इतिहासकार ने लिखा है :— “अब सब समझदार और तजुर्बेकार लोगों को यह साफ तौर से मालूम हो गया है कि कार्यक्रम के अनुसार राजकाज में विचार शून्यता आ गई है और किसानों की रक्षा करने , देश की समृद्धि को बढ़ाने और पैदावार को आगे ले जाने के काम बंद हो गए हैं । लालच और दुर्व्यवहार से सारा देश बर्बाद हो गया है । कमबख्त अमीनों की लूट खसोट से किसान पीसे जा रहे हैं । दरिद्र किसानों की औरतों के बच्चों की आहों का कर जागीरदारों के सिर है । भगवान को भूले हुए सरकारी अफसरों की सख्ती , जुल्मो सितम और बेइंसाफी उस दर्जे तक बढ़ गई है कि अगर कोई इसके सौवें हिस्से का भी वर्णन करना चाहे तो उसकी बयान करने की ताकत विफल हो जाएगी । ”
भारतवर्ष में ऐसे बहुत से इतिहासकार और लेखक हैं जो मुगल वंश के शासकों की प्रजा उत्पीड़न की नीतियों को ही प्रजा हितचिंतक नीतियों के रूप में स्थापित करके दिखाने का घृणास्पद प्रयास करते हैं , उनकी दृष्टि में मुगल वंश के शासकों के समान प्रजा हितचिंतक कोई भी शासक भारतवर्ष में कभी नहीं हुआ । जो लोग मुगल वंश के शासकों की शासन – व्यवस्था की प्रशंसा करते नहीं थकते और जिन्होंने उनके शासन व्यवस्था की उत्कृष्टता के गुणगान करते हुए ग्रंथों के ग्रंथ लिख डाले हैं , उनके लिए ख़फ़ी खान का उपरोक्त वर्णन आंख खोलने वाला है ।
गुरु गोविंदसिंह इस शासन – व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह की स्थिति में इसीलिए आ गए थे कि उनकी दृष्टि में मुगलों का शासन भारत के लोगों के लिए कदापि कल्याणकारी नहीं था ।उन्होंने भारतीय लोगों के हितों के विरुद्ध कार्य कर रही मुगल शासन – व्यवस्था को जनहितकारी शासन व्यवस्था न मानकर जनसामान्य के हितों पर कुठाराघात करने वाली क्रूर और निर्मम शासन व्यवस्था माना । यही कारण था कि वह यवन और मुगलों के अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए उठ खड़े हुए। इसके लिए उन्होंने अनेकों कष्ट सहे , अनेकों यातनाएं सहीं , परंतु कभी भी किसी भी कष्ट या यातना के सामने झुकने का काम नहीं किया।
मां भारती के आंगन में
किलोलें भरता था उन्माद ।
उनकी मजहबपरस्ती
करती गुलशन को बर्बाद ।।
हमारेY नीति और न्याय,
थे शांति के उपाय ।
उपद्रव उनका था हथियार ,
हम मिटाते थे अन्याय ।।
भारत में राजनीति का धर्म प्राचीन काल से ही लोक कल्याण रहा है । संसार में राजनीति आज भी हो रही है , परंतु आज की राजनीति भी उतनी उत्कृष्ट नहीं है , जितनी प्राचीन भारत की राजनीति और राजनीतिक मूल्य उत्कृष्ट हुआ करते थे । जब से भारत विदेशी आक्रमणकारियों के संपर्क में आया , तब से भारत के राजनीतिक चिंतन में और राजनीतिक परिवेश में व्यापक परिवर्तन आए । लोगों का विदेशी आक्रमणकारियों को निकालने ,भगाने , मारने – काटने में समय ,धन व ऊर्जा का अपव्यय हुआ ।जिससे राजधर्म में भी पतन की स्थिति देखी गई। इसमें कोई दो मत नहीं कि पराभव और पतन के इस काल में भी भारतवर्ष में विदेशियों को भगाने का निरंतर सार्थक प्रयास होता रहा । इस काल के विषय में यह भी सत्य है कि राजधर्म और सामाजिक परिवेश विदेशी धर्म , विदेशी संप्रदाय , विदेशी लोगों , विदेशी शासकों और विदेशी शासन व्यवस्था के संपर्क में आकर विकृति को प्राप्त हुआ । जबकि कुछ लोगों ने इस संदर्भ में भी यह मत स्थापित करने का प्रयास किया है कि विदेशी शासकों के भारत में आने से ही भारत का राजधर्म और सामाजिक परिवेश उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों से सूभूषित हो पाया । धर्मनिरपेक्षता की भावना का सम्मान करते हुए हम मानसिक पक्षाघात के शिकार हो गए । यही कारण रहा कि हमने अपने ही विषय में कही गई ऐसी अतार्किक बातों को सहज रूप में अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी।
हम यह भूल गए कि जब – जब राजधर्म अपने पथसे भ्रष्ट हुआ या सामाजिक परिवेश विद्रूपित हुआ तो हमारे देश में समाज सुधारक महापुरुष भी जन्म लेते रहे। पंजाब की गुरु परंपरा उसी प्रकार के समाज सुधारकों की ही एक परंपरा थी । भारत के प्रत्येक समाज सुधारक के साथ यह भी एक सच जुड़ा हुआ है कि उसने समाज सुधारने के साथ-साथ राजनीति को भी सुधारने का प्रयास किया । यही कारण रहा कि यहां पर अधिकांश समाज सुधारक राजनीति को सुधारने की दिशा में भी आगे बढ़े। मुगल सत्ता उस समय मजहबपरस्ती को प्रोत्साहन दे रही थी । उसकी सांप्रदायिकता उसके प्रत्येक शासक और शासक वर्ग की नीति – रीति में झलकती रही । इसके विपरीत भारत धार्मिक देश था । जिसमें नैतिकता ,मानवता और आत्मिक पवित्रता पर बल दिया जाता था । भारत में मुगलों और यहां के हिंदुओं के बीच टकराव का एक कारण यह भी था कि उनकी सांप्रदायिकता नरसंहार कराने की अनुमति देती थी , जबकि भारत की मानवता नरसंहार को रोकने के लिए और नरसंहार करने वाले लोगों से पूर्ण प्रतिशोध लेने के लिए यहां के लोगों को प्रेरित कर रही थी। मुगल अपनी सांप्रदायिकता को ही मानवता समझते थे , जबकि भारत अपनी मानवता को अपना धर्म मानता था । वास्तव में भारत में मुगलों का आना और उनका यहां पर शासन करना यहां के मूल निवासियों के साथ उनका वैसे ही रहना था जैसे बेर – केर का संग होता है।
बेर केर का सा था संग ,
मानवता होती थी बदरंग ।
थी हवा बसंती लहरों की ,
मचलते युवाओं के अंग ।।
मिटा दे अपनी हस्ती को ,
अरमान दिलों में ऐसा था ।
स्वाधीन अपना देश हो ,
सपना नजर में ऐसा था ।।
प्राचीन काल से ही भारत की राजनीति धर्म प्रेरित रही है । आज संसार में कुछ लोग राजनीति और धर्म को अलग करने की बात करते हैं ।जो लोग इस प्रकार की आवाज उठाते हैं वह नहीं जानते कि वह राजनीति और सांप्रदायिकता को अलग करने की बात कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहिए कि उन्होंने सांप्रदायिकता को ही धार्मिकता मान लिया है , वास्तव में राजनीति और सांप्रदायिकता का कोई मेल नहीं है , जबकि राजनीति बिना धर्म के चल ही नहीं सकती।
भारत में मुगल लोग जिस राजनीति की बागडोर संभाले हुए थे , वह धर्मविहीन राजनीति थी । उसमें हृदयहीनता , संवेदनाशून्यता और भावशून्यता का ऐसा सम्मिश्रण और सम्मिलन था जिसे भरसक प्रयास करने के उपरांत भी अलग – अलग नहीं किया जा सकता था। भारत की धार्मिक राजनीति में विश्वास रखने वाला प्रत्येक समाज सुधारक इस प्रकार की अमानवीय राजनीति के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए प्रेरित होना ही था। यही कारण था कि पंजाब की गुरु परंपरा अध्यात्मवाद की बात करते – करते राजनीति में प्रवेश कर गई । क्योंकि उसने यह भली प्रकार अनुभव कर लिया था कि जब तक राजनीति की दिशा और सोच सही नहीं होंगे तब तक उसका मानव निर्माण से राष्ट्र निर्माण और राष्ट्र निर्माण से विश्व निर्माण का सपना साकार नहीं हो सकता ।
गुरु परंपरा और उसके उत्तराधिकारी बने बंदा वीर बैरागी ने यह भी पूर्ण गंभीरता से अनुभव किया कि राजनीति को धर्मानुकूल आचरण निष्पादित करने के लिए प्रेरित करके ही वह अपने शिवसंकल्प में सफल हो सकते हैं ,अर्थात मानव निर्माण से विश्व निर्माण के संकल्प को पूर्ण कर सकते हैं । भारत में चाहे मुगल रहे चाहे उससे पहले तुर्क रहे और चाहे मुगलों के पश्चात आने वाले अंग्रेज रहे , उनसे भारत के लोगों के भिड़ने का एकमात्र कारण यह था कि भारत के लोग धर्मानुकूल राजनीति के पक्षधर थे ,जबकि वे विदेशी शासक धर्मविहीन राजनीति के समर्थक थे।
मनु महाराज कहते हैं कि जो तर्क की सहायता से अन्वेषण करता है वही धर्म को जानता है।
लेखक ने अपनी पुस्तक — ” विश्व गुरु के रूप में भारत ” के पृष्ठ संख्या 132 पर लिखा है :– ” भारत की वैश्विक संस्कृति ने सबको गले लगाया । उसने गाली और गोली की अपसंस्कृति को न अपनाकर सबको गले लगाने की सर्वमंगलकारी संस्कृति को अपनाकर चलना ही उत्तम माना । भारत में सुरासुर संग्राम का बार-बार उल्लेख होता है। कथा कहानियों में यह संग्राम बड़ी सहजता से आपको सुनने को मिल जाएगा कि अमुक समय अमुक ऋषि हुए या राजा हुए या उस समय की बात है जब देवताओं और राक्षसों का युद्ध चल रहा था – – – । इस युद्ध को हमारे कुछ विद्वानों ने संसार के आतंकवादी किस्म के लोगों और देवता प्रवृत्ति के भद्रपुरुषों के मध्य हुआ संघर्ष माना है तो कुछ ने ऐसे लोगों के मध्य हुआ इसे प्रथम विश्व युद्ध माना है। जिसके अंत में भद्रपुरुषों की जीत हुई और यह धरती पुनः मानव जीवन के योग्य हो सकी। इसके अतिरिक्त कुछ अध्यात्मवादियों ने इसका अर्थ हमारे भीतर की दुष्प्रवृत्तियों और सदप्रवृतियों के मध्य चलने वाले शाश्वत संघर्ष का नाम ही देवासुर संग्राम रखा है या माना है। हमें इस संघर्ष की सच्चाई या होने न होने पर प्रकाश नहीं डालना है । हमारा कहना यह है कि भारत विकास ( भारत की सर्वसमन्वयी आर्य संस्कृति)और विनाश ( विदेशी आक्रमणकारियों की सांप्रदायिकता से परिपूर्ण विनाशकारी धर्मविहीन राजनीति ) की नीति और अनीति को भली प्रकार समझने वाला देश है ।”
बंदा वीर बैरागी भारत के हजार वर्षीय स्वाधीनता संग्राम की एक महत्वपूर्ण कड़ी है । सचमुच उस जैसे योद्धा युग – युग में ही किसी राष्ट्र के पास उपलब्ध होते हैं । उसने देश के लिए जो कुछ भी किया ,वह समकालीन इतिहास का एक महत्वपूर्ण अंग है और साथ ही एक महत्वपूर्ण उपलब्धि भी । वह जिस काल में हुआ उस काल में हिंदुत्व , हिंदू राष्ट्र और हिंदू समाज के लिए एक-एक इंच आगे सरकना कठिन हो रहा था । उस समय भी उसने अपने विचार को मीलों दूर तक दौड़ाया तो यह उसके विशाल व्यक्तित्व और दृढ़ संकल्प शक्ति को परिलक्षित करने वाला प्रमाण है।
कहते हैं कि एक बार नेपोलियन बोनापार्ट अपने विजय अभियान पर निकला हुआ था । उसके सामने आल्पस पर्वत छाती ताने खड़ा था । नेपोलियन बोनापार्ट ने उसके निकट जाकर एक वृद्ध महिला से पूछा कि -” क्या नाम है इस पर्वत का? ” वृद्धा ने उत्तर दिया -” आल्पस पर्वत ।”
नेपोलियन बोनापार्ट ने कहा कि -” मेरी सेना इस पर्वत को पार करना चाहती है , क्योंकि हमें इस पर्वत के पार जाकर एक महान विजय प्राप्त करनी है।”
इस पर वृद्ध महिला ने कहा – ” विजय तो तब मिलेगी जब उसके पार जा सकोगे । मुझे बचपन से बुढ़ापा आ गया है , परंतु मैं कभी इस पर्वत को पार नहीं कर पाई । न ही मैंने कोई व्यक्ति ऐसा देखा है जो कभी इस पर्वत के पार गया हो । यदि किसी ने ऐसा करने का प्रयास भी किया तो वह प्राण गंवा बैठा। ”
नेपोलियन ने गंभीरता से पूछा – “तब क्या करना होगा ? ”
उस वृद्ध महिला ने लंबा सांस लेते हुए नेपोलियन से कहा – ” तुम्हारे लिए उचित यही होगा कि तुम लौट जाओ। इस समय इस पर्वत से हाथ मिलाने का जोखिम मत उठाओ ।अपनी रक्षा करो और अन्यत्र जाकर अपने विजय अभियान को आगे बढ़ाओ। ” नेपोलियन बोनापार्ट अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति के लिए इतिहास में जाना जाता है । उसके लिए यह असंभव नहीं था कि वह किसी सीना ताने हुए व्यक्ति को या पर्वत को बिना विजय किये छोड़ दे । वह कहा करता था कि ‘असंभव ‘ शब्द मूर्खों की डायरी में मिलता है ।अभी तक उसने सीना ताने हुए अनेकों मनुष्यों के अहंकार को तोड़ा था , आज पहली बार उसके सामने एक बड़ी चुनौती थी , जब एक पर्वत ही सीना तान कर खड़ा हो गया था । उसने अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति को दिखाते हुए कहा – ” नहीं , मैं लौटूंगा नहीं । मेरी सेना इस कठिन , ऊंचे , दुर्गम पर्वत को पार करेगी और अपना विजय अभियान सफल कर ही लौटेगी । ”
नेपोलियन ने अपना दृढ़ संकल्प दिखाया और सेना को संकेत दिया । उसने बोला – ” मेरे पीछे-पीछे चले आओ । ” इसके पश्चात नेपोलियन बोनापार्ट ने उस पर्वत की छाती पर पैर रख दिये। कहते हैं कि उसकी सेना ने बड़े साहस और परिश्रम के साथ उस पर्वत को पार कर लिया । इतना ही नहीं , नेपोलियन बोनापार्ट जिस उद्देश्य के साथ उस पर्वत को पार करके उधर पहुंचा था उसमें भी वह सफल हुआ अर्थात विजयश्री प्राप्त की । ऐसे लोगों की दृढ़ संकल्प शक्ति को ही इतिहास नमन करता है ।
यह कितने सौभाग्य का विषय है कि भारत के पास अनेकों नेपोलियन बोनापार्ट हैं । यह अलग बात है कि हम अपने किसी ‘ नेपोलियन बोनापार्ट ‘ को इतिहास में उचित स्थान नहीं दे पाए । ऐसे ही संकल्प शक्ति के धनी बंदा वीर बैरागी के साथ भी हमने अन्याय किया है। माना कि उसके भीतर भक्ति भावना के कारण राजा बनने की इच्छा कभी बलवती नहीं हुई और इससे उसे क्षति भी उठानी पड़ी परंतु इसके उपरांत भी वह भारतीय इतिहास का नेपोलियन बोनापार्ट ही है । हमारा तो मानना है कि वह कई विषयों में नेपोलियन बोनापार्ट से भी आगे था।
बंदा वीर बैरागी के बारे में प्रोफेसर बलराज मधोक लिखते हैं :– ” बंदा बैरागी की महान सच्चरित्रता , उसका त्याग , उसकी आध्यात्मिक साधना और उसकी ब्रह्मचर्य साधना से गुरु गोविंदसिंह अवश्य प्रभावित थे । तभी तो पंजाब से बाहर और खालसा संप्रदाय अनुयायियों तथा अपने संबंधियों के होते हुए भी उन्होंने बंदा बैरागी को पंजाब का राजनीतिक नेता बनाकर मुसलमान शासन से भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए भेजा । अंग्रेज इतिहासकारों ने बंदा के कार्य को उपेक्षित रखकर इतिहास की दृष्टि से अपराध किया है । वास्तव में अंग्रेज पंजाब प्रांत में हिंदुस्तान से पृथक एक नई जाति की राजनीतिक इकाई के रूप में उठाना चाहते थे । जिससे भारत की राष्ट्रीयता में आध्यात्मिक और धार्मिक तत्व को समाप्त किया जा सके । भारत की संस्कृति में यही तत्व सर्वोपरि है। इतिहास का 90% भाग धार्मिक युद्ध की भूमिका है। ”
बंदा वीर बैरागी ने स्वयं को राजा घोषित क्यों नहीं किया ? इस पर अभी भी शोध करने की आवश्यकता है । हमारा मानना है कि इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वह गुरु गोविंदसिंह जी को सदा अपने आपसे बड़ा मानते रहे, इसलिए उनके शिष्य रूप में उस कार्य को करना तो उन्होंने स्वीकार किया जिससे देश के हिंदू समाज की रक्षा हो सके , परंतु राजा बनकर वह अपने आप को उनसे बड़ा दिखाने का साहस नहीं कर पाए। इस प्रकार के कार्य को वह उनके रहते अच्छा नहीं मानते थे । इसके अतिरिक्त यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि जब 1699 ई0 में सिक्खों के लिए गुरुग्रंथ साहिब को ही सर्वोपरि घोषित कर दिया गया तो उसके पश्चात भी बंदा बैरागी के भीतर यह भाव बना रहा कि मैं अपने वर्तमान स्वरूप में रहते हुए भी हिंदुत्व की और खालसा पंथ की सेवा कर सकता हूं तो मुझे राजा बनने की क्या आवश्यकता है ?
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सरहिंद के नवाब वजीर खान के भेजे हुए दो पठान हत्यारों ने गुरुजी पर एक बार खंजर से आक्रमण कर दिया था । तब बंदा बैरागी ने एक हत्यारे को तो स्वयं ही दबोच कर मार दिया था । जबकि दूसरे हत्यारे को उनके साथियों ने परलोक भेज दिया था । इसके पश्चात गुरु गोविंद सिंह जी की छाती में उस खंजर से गहरा घाव हो गया था । मुगल बादशाह बहादुरशाह ने उनके उपचार के लिए कई सर्जन भेजे थे । जिनमें एक अंग्रेज भी था। जिसका नाम कौल था । गुरुजी को अच्छा उपचार मिलने से उनके घाव भर भी गए थे । किंतु एक दिन जब वह एक कड़े धनुष को झुका रहे थे तो उनका वह घाव फिर से फट गया। इस बार उन्हें उपचार के उपरांत भी बचाया नहीं जा सका । 7 अक्टूबर 1708 ईस्वी को गुरुजी इस असार -संसार से सदा – सदा के लिए चले गए। सन 1708 की फरवरी में ही गुरु गोविंदसिंह माधोदास बैरागी से मिले थे । बैरागी को उस समय यह आभास नहीं था कि यह दिव्य विभूति उनसे इतनी शीघ्रता से बिछुड़ जाएगी । वह चाहते थे कि गुरुजी के रहते ही उनके संकल्प को पूर्ण किया जाएगा , परंतु समय ने ऐसा होने नहीं दिया।
श्री जगदीश चंद्र श्रीवास्तव और श्री एनपी शर्मा के अनुसार 4 मई 1710 ई0 को बंदा बहादुर की सेना ने जब सरहिंद की ईंट से ईंट बजाई तो उसने वजीर खान
के टुकड़े-टुकड़े कर गुरु पुत्रों के दीवार में चुने जाने का बदला लिया था । उसने सरहिंद पर अपना अधिकार कर लिया था । जिसके विषय में हम पूर्व में भी प्रकाश डाल चुके हैं । इस घटना के बारे में एक मुस्लिम इतिहासकार ने लिखा है किस सिक्ख सेना का डर शाही अधिकारियों पर चाहे वह हिंदू थे या मुसलमान इस प्रकार से छाया कि उन्होंने बंदा की अधीनता स्वीकार करने में ही अपनी सुरक्षा समझी। जेम्स ब्राउन के अनुसार भी हिंदू और मुसलमान दोनों ने ही बंदा के आधिपत्य को स्वीकार करने में ही अपना लाभ देखा।
पंजाब में अंग्रेजों ने बहुत देर पश्चात जाकर अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास किया। यदि इसका कारण खोजा जाए तो पता चलता है कि गुरु गोविंद सिंह के पश्चात बंदा बैरागी ने पंजाब में जिस परिवेश को निर्मित किया था उससे इस वीर प्रदेश में एक नई जागृति और चेतना का संचार हो चुका था । इसी नई जागृति और चेतना ने वहां पर महाराजा रणजीतसिंह का निर्माण किया था । जिसने एक बड़ा साम्राज्य स्थापित कर देश के इस क्षेत्र की विदेशी शक्तियों से रक्षा की थी । यदि बंदा बैरागी का पुरुषार्थ उस समय काम न कर रहा होता तो संभव है कि महाराजा रणजीतसिंह का भी निर्माण न् होता और तब पंजाब में अंग्रेज भी बहुत शीघ्रता से अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल हो जाते । इस दृष्टिकोण से भी हमें बंदा वीर बैरागी के महान शौर्य , पराक्रम और वीरता पूर्ण कृत्य का अभिनंदन करना चाहिए।
शौर्य और पराक्रम जिसका,
शत्रु देख भूलता चतुराई ।
अभिनंदन करें दिशाएं उसका ,
यौवन लेता मस्त अंगड़ाई ।।
बंदा गुरु का उसको कहते ,
बैरागी बन इतिहास बनाया ।
मातृभूमि का सम्मान बढा ,
यश धरती पर फैलाया ।।
बंदा वीर बैरागी ने पंजाब में गुरु गोविंदसिंह के सिक्ख आंदोलन को कभी भी किसी अलग संप्रदाय की स्थापना कर अलग राज्य , अलग सोच और अलग विचार के भाव से नहीं लिया । उन्होंने गुरु गोविंदसिंह जी और उनसे पूर्व के सभी सिक्ख गुरुओं को भारत की मूल चेतना अर्थात हिंदुत्व , आर्यत्व अथवा आर्य संस्कृति , वैदिक संस्कृति और उसके मूल्यों के प्रति समर्पण के भाव के रूप में देखा । जिन लोगों ने इतिहास के साथ छेड़छाड़ करते हुए गुरु गोविंदसिंह के दर्शन को अलग और बंदा वीर बैरागी के सोच और चिंतन को अलग दिखाने का प्रयास किया है ,उन्होंने इन दोनों ही महापुरुषों के साथ अन्याय किया है । ऐसी सोच को प्रकट करने वाले इतिहासकार या लेखक भारत के शत्रु हैं , क्योंकि उनकी ऐसी सोच और चिंतन से भारत में विखंडनवाद की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है । यही उनके लेखन का उद्देश्य भी होता है।
मूर्ख इतिहासकारों और लेखकों ने हमारे देश भारत में ” विविधता में एकता ” की बात कही है और इसी विविधता में एकता की बात का विस्तार करते – करते वह हमारे इतिहास पुरुषों के वैचारिक समन्वय में भी विभिन्नता खोज लेते हैं। अपने बौद्धिक चातुर्य का प्रदर्शन करते हुए इतिहासकारों और लेखकों ने अपनी कड़वी बात को भी वैसे ही हमारे गले में उतार दिया जैसे कोई अच्छा चिकित्सक कड़वी दवा को रोटी के सहारे या गुड़ के सहारे हमारे गले से नीचे उतार देता है । यद्यपि उपचारक या चिकित्सक का उद्देश्य हमारा उपचार कर हमारा कल्याण करना होता है , परंतु इन इतिहासकारों और लेखकों ने की कड़वी गोलियों ने तो हमारा स्वास्थ्य ही चौपट कर दिया है , अर्थात हमारा वैचारिक चिंतन ही दूषित – प्रदूषित कर दिया है। इनके छली बौद्धिक चातुर्य और भारत के प्रति छुपे हुए विद्वेष भाव की मीठी बातों को हम समझ नहीं पाते और इनके द्वारा स्थापित की गई भ्रांत धारणाओं का शिकार बनकर अपने बारे में अपनी ही सोच को परिवर्तित करते चले जाते हैं।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि तत्कालीन क्रूर , निर्मम और निर्दयी मुगलिया शासन व्यवस्था के विरुद्ध की गई बंदा वीर बैरागी की क्रांति इतिहास का एक मील का पत्थर है।
(प्रस्तुत लेखमाला मेरी आने वाली नई पुस्तक ‘ हिंदू राष्ट्र स्वप्नद्रष्टा : बंदा वीर बैरागी ‘ में एक साथ पढ़ने को मिल सकती है । यह पुस्तक भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हो रही है )
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत