राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की गरीबों की आमदानी से जुड़े जो आकंड़े आए हैं,उनसे गरीबी रेखा तो नहीं,लेकिन भुखमरी की रेखा जरूर तय की जा सकती है। क्योंकि जो हकीकत सामने आई है,उससे साफ हुआ है कि भारत की ग्राम व कृषि आश्रित बड़ी आबादी की परवाह किए बिना भूमण्डीलय अर्थव्यवस्था का जो कुच्रक बीते दो दशकों से जारी है,उसने आबादी के एक हिस्से की आत्मनिर्भरता को खतरे में डाल दिया है। अब गरीबी को विभाजित कर दो हिस्सों में बांटा जाना चाहिए। पहली गणना ऐसे लोगों की होनी चाहिए जो पेट भर रोटी भी नहीं जुटा पा रहे,मसलन भूखमरी के हाल में जीने को मजबूर परिवार और दूसरी गिनती उन परिवारों की होनी चाहिए,जो किसी तरह मेहनत-मजदूरी करके पेट भरने में तो सक्षम है,लेकिन अन्य बुनियादी जरूरतों से महरूम हैं। क्योंकि सर्वे के अनुसार जिस न्यूनतम आय से लोग अपने जीवन की गाड़ी खींच रहे है,उस आमदनी से न तो गांव में सुकून से रहा जा सकता है और न ही शहरी क्षेत्र में।
हमारे देश में कई सालों से ग्रामीण और शहरी व्यक्ति की प्रतिदिन की आमदनी तय करने की कवायद चल रही है,जिससे गरीबी-रेखा सुनिशिचत की जा सकने के साथ, उनकी खाद्य सुरक्षा भी की जा सके। लेकिन बार-बार जिस तरह से संदेहास्पद व विरोधाभासी आंकड़े परोसे जाते हैं, उससे लगता है गरीबी का स्पष्ट खुलासा करने की बजाय,उसे छिपाने की कवायद बड़े स्तर पर हो रही है। ताजा आंकड़ो के अनुसार देश के ग्रामीण इलाकों में गरीब 17 रूपय रोजाना और शहरों में 23 रूपय रोज में जैसे-तैसे गुजर-बसर कर रहे हैं। ये आंकड़े एनएसएसओ के 68 वें सर्वे में जुटाए हैं, जो जुलाई 2011 से जून 2012 के दौरान 7496 गांवों और 6263 शहरी विकास खण्डों से लिए गए। यह आमदनी और भी कम आती यदि ये आंकड़े दूरांचल और दुर्गम ग्रामों से लिए गए होते। हालांकि रिपोर्ट में ही खुलासा कर दिया है कि सर्वे आसान पहुंच वाले क्षेत्रों में किया गया है। ये आंकड़े देश के लोगों के जीवन स्तर को नापने के लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण हैं। योजना आयोग देश में गरीबी का आंकलन इन्हीं आंकड़ों के आधार पर करता है और इन्हें गरीबी से उबारने की दृष्टि से पंचवर्षीय जनकल्याणकारी योजनाएं अमल में लाई जाती हैं।
करीब 58 साल पहले दांडेकर और रथ नाम के दो अर्थशास्त्रियों ने गरीबी रेखा को परिभाषित किया था। इसे ही भारत सरकार ने गरीबी का आधार माना। इस परिभाषा के अनुसार जो व्यक्ति प्रतिदिन औसत 2400 कैलोरी से कम भोजन करता है,उसे गरीबी रेखा से नीचे माना जाने लगा। बांकी को इस रेखा के उपर माना गया। कालांतर में कैलोरी को औसत खपत को मानने के अनेक तरीके सुझाए गए। इनमें अनेक चित्र व हास्यपाद थे। लेकिन अंतिम रूप से आहार की उपलब्धता को ही प्रमुख आधार माना गया,जो पिछली सदी तक मान्य रहा। किंतु इक्कीसवीं सदी में जागरूकता बढ़ने,जन-संगठनों में उभार आने और राजनीति में क्षेत्रीय व जातीयता के वर्चस्व ने गरीबी-मापक पैमाने में बदलाव की अहम पहल की। नतीजतन इस सर्वे में अब भोजन के आलावा दूध,सब्जी,ईधन, प्रकाश, कपड़े, जूते, दवाइंया, शिक्षा, परिवहन, उपभोक्ता वस्तुंए भी जोड़ दी गईं। ये वस्तुएं जोड़ना जरूरी थीं, क्योंकि पहले गरीब, स्वास्थ, परिवहन और उपभोक्ता वस्तुओं से लगभग वंचित था। ईंधन, सब्जी और आहार का एक बड़ा सा हिस्सा वह प्रकृति से प्राकृतिक उपलब्धि के रूप में जुटा लेता था,लेकिन जंगलों के विनाश और जंगलों से बेदखली के कारण उसे प्राकृतिक नेमत से वंचित होना पड़ा। लिहाजा अब उसे जीवन-यापन की ये जरूरी सामग्रियां बाजार से खरीदनी पड़ती हैं। इस खरीद के लिए जरूरी है कि या तो उसकी जेब में पर्याप्त धनराशि हो अथवा जनकल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से सरकार उपलब्ध कराए। हालांकि अन्य राज्य सरकारों ने भुखमरी की रेखा पर जीवन यापन कर रहे इन लोगों को एक रूपये किलो गेहूं व मोटा अनाज, दो रुपये किलो चावल उपलब्ध कराकर इनकी खाद्य सुरक्षा की पहल की है। मध्य प्रदेश सरकार ने एक किलो आयोडीनयुक्त नमक भी गेहूं-चावल के साथ उपलब्ध कराया है। यहां गौरतलब है कि जब दलों की राजनीति सस्ती दर पर भूख मिटाने के संसाधन उपलब्ध कराने पर केंद्रित हो जाए तो यह कैसे माना जा सकता है कि राष्ट्र-राज्य के खुशहाली और आर्थिक समृद्धि के दावे सही हैं ? इस तथ्य की तसदीक, गांवो की चैपालों पर आज भी गाए जाने वाले इस गीत से होती है, ‘सौ में सत्तर आदमी जब नाशाद हैं, तब दिल पर रखकर हाथ कहो कि हम आजाद हैं ?’
इस रिपोर्ट का सकारात्मक पहलु है कि ग्रामीण और शहरी नागरिकों का गैर खाद्य वस्तुओं और उपभोक्ता सेवाओं पर भी खर्च बढ़ा है। इनमें शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन और मोबाइल फोन सेवाएं भी दर्ज हो गई हैं। लेकिन इसी सर्वे में विवादास्पद आंकड़े भी सामने आए हैं। रोजगार की उम्र हासिल कर लेने वाले लोगों में 2009-10 की तुलना में 2011-12 में रोजगार प्राप्त कर लेने में एक फीसदी से भी ज्यादा की कमी आई है। जब व्यक्ति को रोजगार ही नहीं मिला तो आय कैसे बढ़ी ? इसी तरह रिपोर्ट में बताया है कि कृषि श्रमिकों की संख्या घटकर 49 फीसदी रह गई है। मसलन क्या ये लोग मनरेगा और जनकल्याणकारी योजनाओं पर निर्भर हो गए हैं ? या कृषि का यांत्रिकीकरण हो जाने के कारण इन्हें कृषि कार्यों में मजदूरी नहीं मिल रही ? इस कारण से शहरों की ओर पलायन कर गए ? इन तथ्यों को रिपोर्ट में या तो नजरअंदाज किया गया है या फिर जानबूझकर छिपाया गया है,जिससे गरीबी घटती दिखे। 2009-10 के सर्वे में गरीब कामकाजी महिलाओं का प्रतिषत 23.3 प्रतिशत था, जबकि 2011-12 में यह घटकर 22.5 प्रतिशत रह गया। गरीब या मजदूर परिवारों में महिलाओं का सकल घरेलू उत्पाद में बेहद महत्वपूर्ण योगदान रहता है। बल्कि इनकी कमाई के बिना परिवार का गुजारा नामुमकिन है। इस परिप्रेक्ष्य में यदि कामकाजी महिलाओं में आई कमी का मूल्यांकन करें तो तय होता है कि परिवार की मासिक आमदनी घटनी चाहिए ? इसी दौरान ग्रामीण, उपभोक्ता वस्तुओं के उपभोग का भी आदी हुआ है, तब क्या यह माना जाए कि पुरुशों की आमदनी इतनी बढ़ गई कि परिवार की गाड़ी खींचने के लिए उन्हें महिलाओं की आमदनी की जरुरत ही नहीं रह गई और घर का बजट आर्थिक रुप से पुख्ता होता चला गया। ऐसा यदि बाकई में है तो यह स्थिति आशा व उत्साहजनक है, लेकिन आर्थिक समृद्धि और खाद्य सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में इन आंकड़ों को विष्वसनीय नहीं माना जा सकता ? ये आंकड़े गरीबी की उलझी और झूठी तस्वीर ही पेष कर रहे हैं।
यहां सवाल उठता है कि सरकार अपनी ही गरीब व लाचार जनता के साथ फरेब क्यों कर रही है, जिससे गरीबी की वास्तविकता को छिपाने अथवा टालने की जरुरत पड़े ? दरअसल अर्थशास्त्री दांडेकर व रथ और बगीचा सिंह व मिन्हास तक गरीबी का आकलन आहार में मौजूद पोषक तत्वों के आधार पर किया गया। मसलन शहरी व्यक्ति की आय इतनी हो कि वह 2100 कैलोरी और ग्रामीण व्यक्ति 2400 कैलोरी शरीर को उर्जा देने लायक पोषक तत्व खरीद सके। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद भी कहती है कि स्वस्थ्य व्यक्ति के लिए औसत 2800 कैलोरी उर्जा की जरुरत रहती है। इसे आधार बिंदु माना जाए तो प्रत्येक परिवार के लिए 50 से 65 किलोग्राम अनाज, 6 से 8 किलोग्राम दाल और 3 से 5 किलोग्राम तेल मिलना चाहिए। खाद्यान्न की यह उपलब्धता केवल उदरपूर्ति से जुड़ी है, जबकि मनुष्य की बुनियादी जरुरतें उदरपूर्ति के इतर भी हैं। लिहाजा गरीबी के मानदण्ड की इस प्रचलित कैलोरी आधारित अवधारणा को बदला गया और गरीबी मापने की नई पद्धति विकसित हुई, जिसमें पोषक खाद्यान्न के साथ, रसोई पकाने के लिए ईंधन, बिजली कपड़े और जूते, चप्पल शामिल किए गए। 2005 में सुरेश तेंदुलकर द्वारा किए गए गरीबी के आकलन का यही आधार था। तेंदुलकर रिपोर्ट के अनुसार 41 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो जीने के अधिकार से वंचित रहते हुए भुखमरी के दायरे में जीने को अभिशप्त हैं। ये आंकड़े इस हकीकत के निकट हैं कि देश में 40 फीसदी लोग भूखे सोते हैं। इस समिति ने तय किया था कि 41.8 प्रतिशत आबादी मसलन 45 करोड़ लोग प्रतिमाह, प्रति व्यक्ति 447 रुपए में बमुश्किल गुजारा कर रहे हैं। सात साल बाद इस आय वर्ग के लोगों की आमदनी में महज 74.44 रुपए की बढ़ोत्तरी हैरान करने वाली है। 17 और 23 रुपए में आदमी क्या खाये और क्या निचोड़े ? हमारा अब तक गरीबी मापने का पैमाना 14 रुपए से ज्यादा और 25 रुपए कम आय वाले व्यक्ति को गरीब मानने का रहा है। यहां सवाल उठता है कि भारत सरकार जब अधोसंरचना पुख्ता करने की दृष्टि से यातायात, शिक्षा, चिकित्सा और पर्यटन के क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय मानक अपनाने की होड़ में लगी है तो फिर गरीबी को क्यों नहीं अंतर्राष्ट्रीय आय के पैमाने से आंका जाता ? यह पैमाना सवा डॉलर मसलन 80 रुपए प्रतिव्यक्ति, प्रतिदिन की आय से जुड़ा है, जबकि हम हैं कि इसे 17 से 23 रुपए के बीच ही अटकाए हुए हैं। जाहिर है, हम गरीबी की बजाय गरीबों की जिंदगी ही मिटाने का पैमाना निर्धारित करने के गुणा-भाग में लगे हैं।
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