देश भर में सावरकर को ‘भारत रत्न’ देने की मांग के बीच यह बहस तेज हो गई है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान को उतना महत्व नहीं दिया गया जिसके वे हकदार हैं। हालांकि सावरकर का एक वीर योद्धा और इतिहास लेखक के रूप में सम्मान इंदिरा गांधी भी करती थीं। मई 1970 में इंदिरा गांधी ने सावरकर पर डाक टिकट जारी करते हुए कहा था, ‘हम सावरकर के खिलाफ नहीं हैं। वे जीवन भर जिस हिंदुत्ववादी विचार का समर्थन करते रहे, हम उसके जरूर खिलाफ हैं।’
सावरकर ने ही दिया था प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का दिया नाम
हमें यह समझना होगा कि वह सावरकर ही थे, जिन्होंने 1857 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का नाम दिया। सावरकर ने ही लंदन में पहली बार सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन संगठित कर सक्रिय किया। बाल गंगाधर तिलक और श्याम कृष्ण वर्मा ने उन्हें बैरिस्टर की शिक्षा लेने के बहाने 1906 में क्रांतिकारी आंदोलन को हवा देने की दृष्टि से लंदन भेजा था। तिलक उनसे इसलिए प्रभावित थे, क्योंकि सावरकर 1904 में ही ‘अभिनव भारत’ नाम से एक संगठन अस्तित्व में ले आए थे। लंदन जाने से पहले इसका दायित्व उन्होंने अपने बड़े भाई गणोश सावरकर को सौंप दिया था।
राष्ट्रवाद का अलख जगाया
लंदन में सावरकर ने भारतीय छात्रों को एकत्रित किया और उनमें राष्ट्रवाद का अलख जगाया। 1906 में सावरकर ने 1857 का स्वतंत्रता समर पुस्तक लिखने का संकल्प लिया। 10 मई 1907 को इस संग्राम की लंदन के इंडिया हाउस में 50वीं वर्षगांठ मनाने का निश्चय किया। इस हेतु सावरकर ने ‘फ्री इंडिया सोसायटी’ के नेतृत्व में एक भव्य आयोजन की रूपरेखा बनाई। फिरंगी हुकूमत को जब इसकी भनक लगी तो उसने इस आयोजन पर अंकुश लगाने का हर संभव प्रयास किया, किंतु सावरकर के वाक्चातुर्य के चलते अंग्रेज प्रशासन रोक नहीं पाया। इसी दिन सावरकर ने इसे तार्किक रूप में सैन्य विद्रोह अथवा गदर के रूप में खारिज किया और अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का पहला सशस्त्र युद्ध घोषित किया। इस पहली लड़ाई को ‘संग्राम’ का दर्जा देने वाले वे पहले भारतीय थे।
1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम
इसी बीच सावरकर ने मराठी व अंग्रेजी में ‘1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ शीर्षक से इतिहास-पुस्तक लिखी। भारतीय दृष्टिकोण और ऐतिहासिक सच्चाइयों को तथ्य, साक्ष्य व घटनाओं के साथ किसी भारतीय इतिहास लेखक द्वारा लिखी यह पहली इतिहास-पुस्तक थी। इसी कालखंड में सावरकर और मैडम कामा ने मिलकर ‘राष्ट्रीय-ध्वज’ बनाया। दरअसल जर्मनी के स्टूटगार्ट में समाजवादियों का वैश्विक सम्मेलन आयोजित था। सावरकर की इच्छा थी कि इसमें कामा द्वारा भारत के ध्वज का ध्वजारोहण किया जाए। सावरकर इस उद्देश्य की पूर्ति में सफल हुए। इस समय तक सावरकर तिलक के बाद सबसे ज्यादा ख्यातिलब्ध क्रांतिकारी हो गए थे।
वीरों की फांसी से विचलित हुए सावरकर
उसी कालखंड में खुदीराम बोस समेत तीन अन्य क्रांतिकारियों को दी गई फांसी से सावरकर बहुत विचलित हुए और उन्होंने इन फांसियों के लिए जिम्मेदार अधिकारी एडीसी कर्जन वायली से बदला लेने की ठान ली। मदनलाल ढींगरा ने उनकी इस योजना में जान हथेली पर रखकर शिरकत की। सावरकर ने उन्हें रिवॉल्वर हासिल कराई। एक कार्यक्रम में मौका मिलते ही ढींगरा ने कर्जन के मुंह में पांच गालियां उतार दीं और आत्मसमर्पण कर दिया। इस जानलेवा क्रांतिकारी गतिविधि से अंग्रेज हुकूमत की बुनियाद हिल गई। इस घटना के फलस्वरूप समूचे भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध माहौल बनने लगा।
जब सभा में गूंजी सावरकर की आवाज
इस बीच कुछ अंग्रेज भक्त भारतीयों ने इस घटना की निंदा के लिए लंदन में आगा खां के नेतृत्व में एक सभा आयोजित की। इसमें आगा खां ने कहा कि ‘यह सभा आम सहमति से एक स्वर में मदनलाल ढींगरा के कृत्य की निंदा करती है।’ किंतु इसी बीच एक हुंकार गूंजी, ‘नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। मैं इस प्रस्ताव का विरोध करता हूं।’ यह हुंकार थी वीर सावरकर की। इस समय तक आगा खां सावरकर को पहचानते नहीं थे। तब उन्होंने परिचय देने को कहा। सावरकर बोले, ‘जी मेरा नाम विनायक दामोदर सावरकर है और मैं इस प्रस्ताव का समर्थन नहीं करता हूं।’ अंग्रेजों की धरती पर उन्हीं के विरुद्ध हुंकार भरने वाले वे पहले भारतीय थे।
सावरकर को आजीवन कारावास की सजा
देश की आजादी के लिए संघर्षरत सावरकर को 24 सितंबर 1910 को दोहरे आजीवन कारावास की सजा दी गई और उन्हें अंडमान-निकोबार की कालापानी जेल भेज दिया गया। यहां की काल-कोठरी में अमानवीय अत्याचार भोगते हुए उन्होंने करीब एक दशक यातनापूर्ण जीवन गुजारा। तत्पश्चात माफीनामा लिखकर उन्होंने जेल से मुक्ति पाई। इस कोठरी पर भी कालजयी साहित्य की वे रोजाना नई पंक्तियां लिखते थे और उन्हें कंठस्थ करने के बाद मिटाकर फिर नई पंक्तियां लिखते थे। यह माफीनामा उन्होंने केवल अपने जीवन की सुरक्षा के लिए ना लिखकर, जेल से बाहर आने का बहाना ढूंढने के लिए लिखा था।
द्वितीय विश्व युद्ध
चूंकि द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया था और सावरकर इसमें भागीदारी करके आजादी का रास्ता तलाशने के इच्छुक थे। शायद इसीलिए महात्मा गांधी ने आठ मई 2021 को ‘यंग इंडिया’ में लिखा था, ‘यदि भारत इसी तरह सोया रहा तो मुङो डर है कि उसके दो निष्ठावान पुत्र विनायक दामोदर सावरकर और उनके बड़े भाई गणोश हाथ से चले जाएंगे। लंदन में मुङो सावरकर से भेंट करने का सौभाग्य मिला था। वे बहादुर हैं, चतुर हैं और देशभक्त क्रांतिकारी हैं। ब्रिटिश प्रणाली की बुराइयों को उन्होंने बहुत पहले ही ठीक से समझ लिया था।’
जब सावरकर ने दी थी बोस को ये सलाह
याद रहे नजरबंद सुभाषचंद्र बोस को भारत से बाहर जाकर ब्रिटेन के शत्रु देशों से सैनिक सहयोग लेने की सलाह सावरकर ने ही दी थी। बोस का देश से पलायन और फिर आजाद हिंद फौज के सेनापति के रूप में सामने आना भी, ऐसा एक बड़ा कारण था, जिसने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश किया था। ऐसे समर्थ राष्ट्रभक्त पर तथाकथित वामपंथी क्षमा-पत्र का सहारा लेकर उनके कद को बौना करने की कोशिशों में लगे रहते हैं, जबकि ज्यादातर वामपंथी स्वतंत्रता आंदोलन से ही दूर रहे थे। सावरकर ने वर्ष 1906 से 1910 तक ब्रिटेन में रहकर स्वतंत्रता के लिए जो अलख जगायी और वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर जो किताब लिखी, उनके इस राष्ट्रीय योगदान के लिए ही उन्हें याद किया जाना चाहिए और आज इन कार्यो का पुनमरूल्यांकन करने की आवश्यकता है।
इतिहास में नहीं मिला वीरों को सम्मान
इसे देश और देश के नायकों का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि वर्ष 1947 में स्वतंत्र राष्ट्र के अस्तित्व में आने के बावजूद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास अंग्रेज शासकों की मानसिकता से लिखा गया। इतना ही नहीं, वामपंथी इतिहासकारों ने आक्रांताओं को महिमामंडित किया और भारत के मूल निवासी आर्यो को हमलावर बताया। इस दृष्टि से हमें विनायक दामोदर सावरकर पर न केवल तथ्यपरक दृष्टि अपनाने की आवश्यकता है, बल्कि समूचे भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की भी दरकार है, ताकि भारतीय राष्ट्रीय दृष्टिकोण को कायम किया जा सके। ( साभार