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मनुष्यों की सन्तानें जन्म के समय व उसके बाद ज्ञान की दृष्टि से ज्ञानहीन होती हैं। उन बच्चों को उनके माता-पिता, कुटुम्बी जन तथा आचार्यगण ज्ञान देते हैं। यदि माता-पिता व आचार्य आदि बच्चों को ज्ञान न दें तो वह सद्ज्ञान व सद्गुणों का ग्रहण नहीं कर सकते। माता-पिता व आचार्यों का यही मुख्य कर्तव्य होता है कि वह मनुष्य सन्तानों को सद्ज्ञान से युक्त करें और उन्हें उसके अनुरूप सदाचरण की न केवल प्रेरणा करें अपितु उनके आचारण पर भी ध्यान दें जिससे वह कोई कुचेष्टा न करें। यदि करें भी तो उनकी ताड़ना की जाये व उन्हें दण्ड दिया जाना चाहिये। सृष्टि के आरम्भ से ही आर्यावत्र्त देश जिसका वर्तमान नाम भारत है, यही परम्परा चलती आ रही है। मध्यकाल में इस परम्परा में व्यवधान आया। वर्तमान में हम वेदज्ञान, जो समूचे सद्ज्ञान का पर्याय है, वह प्रचलित व व्यवहार में न होने के कारण और उसके स्थान पर अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों की शिक्षायें प्रचलित होने के कारण श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव सम्पन्न मनुष्यों का निर्माण नहीं हो पा रहा है। इसका प्रमुख कारण माता-पिता तथा आचार्यों की शिक्षाओं में न्यूनतायें तथा देश में पाश्चात्य विचारधारा व वैदिक संस्कारों के प्रतिकूल वातावरण का होना है। मत-मतान्तर भी अपनी कुछ अविद्यायुक्त बातों व मान्यताओं से मनुष्य को श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव से युक्त नहीं कर पा रहे हैं। वह दावें तो अपने मत व मतावलम्बियों के श्रेष्ठ होने का करते हैं परन्तु ऐसा देखने में नहीं आता। इसके लिये वर्तमान में प्रचलित सरकारी स्कूलों व पब्लिक स्कूलों की डार्विन समर्थित शिक्षा पद्धति साहित सामाजिक वातावरण में सुधार करने की आवश्यकता है। डार्विन शिक्षा पद्धति का विकल्प गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति में आधुनिक शिक्षा को सम्मिलित कर निकाला जा सकता है जहां बच्चे व विद्यार्थी वेद व वैदिक साहित्य की शिक्षा सहित ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ का पाठ पढ़े और साथ में आधुनिक विषयों का ज्ञान भी प्राप्त करें। ऐसा कर ही हम चरित्रवान नागरिकों के निर्माण सहित एक अपराध मुक्त समाज का निर्माण कर सकते हैं। इस अवसर पर ऋषि दयानन्द के कुछ महत्वपूर्ण शब्द भी प्रासंगिक हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि जब तक देश में एक भाव, एक भाषा एवं एक सुख दुख का व्यवहार नहीं होगा तब तक सबको सुख व आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता। जिस समाज में भाषा व भावों में एकता व समानता होती हैं, सब मनुष्य वेद ज्ञान से युक्त होते हैं, जो यह जानते व मानते हैं कि हम सब ईश्वर की सन्तानें हैं और वेदाचरण करने से ही हमें जन्म-जन्मान्तर में सुख, सद्गति, उन्नति व मोक्ष की प्राप्त होगी, उसी सामाजिक वातावरण में अपराध कम होते हैं व प्रजा सुखी व उन्नति को प्राप्त होती है।
हम मनुष्य हैं। मनुष्य किसे कहते हैं? मनुष्य एक अल्प परिमाण, चेतन व अल्पज्ञ जीवात्मा एवं उसके शरीर को कहते हैं जिसे परमात्मा ने बुद्धि दी है और जो अपने दो पैरों पर सीधा खड़ा हो सकता व चल-फिर व दौड़-भाग कर सकता है। अपना ज्ञान बढ़ा कर ईश्वरोपासना आदि साधनों से मोक्ष को प्राप्त करता है। प्रत्येक जीवात्मा का जन्म से पूर्व का एक अतीत होता है जिसमें उसकी अनश्वर आत्मा पूर्वजन्मों में नाना योनियों में जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त हुई होती है। यह जन्म व मृत्यु का चक्र अनादि काल से चल रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। संसार के अनेक प्रमुख मत ऐसे भी हैं जो जन्म व मृत्यु के चक्र व पुनर्जन्म और पूर्वजन्मों को न जानते और न ही मानते हैं। वह तर्क व युक्ति को भी स्वीकार नहीं करते। सुधीजन समझ सकते हैं कि यदि विज्ञान में तर्क व युक्ति को स्वीकार न किया जाता तो विज्ञान विज्ञान न होकर अज्ञान होता वा कहलाता। दर्शन ग्रन्थों में एक दर्शन न्याय दर्शन भी है। न्याय को निर्धारित करने के लिये सत्य और असत्य की परीक्षा की जाती है। इसके लिये तर्क, युक्ति सहित वेद, शास्त्रीय प्रमाण व आप्त प्रमाण मुख्य होते हैं। अतः जो बातें तर्क व युक्ति से सिद्ध हैं वह प्रायः सत्य होती हैं। शास्त्रार्थ व मुकदमों में भी सत्य व असत्य का निर्णय तर्क एवं युक्तियों सहित वेद व कानून की पुस्तक के आधार पर किया जाता है। यदि कोई व्यक्ति, विद्वान व आचार्य किसी विषय में तर्क एवं युक्तियों से सिद्ध बात को स्वीकार नहीं करता है तो उसे हठी व दुराग्रही कहा जाता है। हमें स्वयं को ऐसा व्यक्ति नहीं बनाना चाहिये। यह सन्तोष एवं प्रसन्नता की बात है कि वैदिक मत ही संसार का प्रमुख धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक विचारधारा को प्रस्तुत करने वाला ऐसा मत है जो प्रत्येक विचार, मान्यता व सिद्धान्त को तर्क की कसौटी पर कसकर ही स्वीकार करता है। उसके सिद्धान्तों के मूल में विश्वजनों सहित देश व समाज का हित, सत्य व न्याय की रक्षा आदि बातें निहित होती हैं। अतः सभी विज्ञ एवं सत्यप्रिय व्यक्तियों को सत्य को स्वीकार करना चाहिये। ऐसा करने पर ही मनुष्य के जीवन व व्यक्तित्व का पूर्ण विकास व उन्नति हो सकती है और उसे जन्म-जन्मान्तरों में सुख भी प्राप्त हो सकता है।
ऋषि दयानन्द ने सत्य विचारों व मान्यताओं के प्रचार के लिये ही सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की व उसका प्रचार किया। सत्यार्थप्रकाश में कोई भी बात पक्षपात के आधार पर नहीं लिखी गई है। सत्यार्थप्रकाश का उद्देश्य सत्य की रक्षा करना है। सत्य की रक्षा से ही मनुष्य मनुष्य बनता व सुख व उन्नति को प्राप्त होता है। सत्य सिद्धान्तों के प्रचार से ही अन्धविश्वास, आडम्बर व पाखण्ड दूर होते हैं। समाज में भेदभाव दूर होकर सबको न्याय प्राप्त होता है एवं उन्नति के समान अवसर मिलते हैं। हमने देखा है कि पाकिस्तान आदि कई पड़ोसी देशों में दूसरे मतों के लोगों का उत्पीड़न होता है और उन्हें सुरक्षित जीवन व उन्नति के समान अवसर नहीं मिलते। पाकिस्तान व कुछ अन्य पड़ोसी देशों में कोई हिन्दू, क्रिश्चियन, सिख, बौद्ध आदि मत को मानने वाला व्यक्ति बड़े पदों पर योग्यता होते हुए भी चयनित नहीं हो सकता जबकि भारत में सभी मतों के योग्य लोगों को सभी अधिकार प्राप्त हैं। इस भेदभाव का कारण असत्य व अज्ञान ही कहा जा सकता है। भारत के लोगों को इससे शिक्षा लेनी है और इसे इस प्रकार की मनोवृत्ति एवं राजनीतिक स्वार्थों के लिये भेदभाव करने वाले लोगों के मनोभावों को समझना है वहीं सत्य व न्याय जिनके पक्ष में अधिक हो, उन लोगों व समूहों का साथ देना है। तभी देश अपनी प्राचीन विश्व वरेण्य धर्म व संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए उन्नति कर सकता है। ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर व जीवात्मा सहित इस सृष्टि के सत्यस्वरूप पर विस्तार से सयुक्तिक प्रकाश डाला है। ईश्वर की उपासना और वायु-जल शुद्धि सहित स्वस्थ रहने के लिये जो अग्निहोत्र-यज्ञ-हवन किया जाता है उस पर भी उन्होंने तर्कपूर्ण प्रकाश डाला है। शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो सत्यार्थप्रकाश में सम्मिलित न किया गया हो और उन सभी विषयों पर सत्य व न्यायपूर्ण सामग्री सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत न की गई हो।
सत्यार्थप्रकाश की एक विशेषता यह भी है कि इसमें सभी मत-मतान्तरों की मान्यताओं को सत्य की कसौटी पर कसकर समीक्षा की गई है जिससे उनके अनुयायी व अन्य सभी सत्य प्रेमी लोग लाभान्वित हो सकते हैं और अपने असत्य को छोड़कर सत्य को स्वीकार कर सकते हैं। बहुत से सज्जन व विवेकी लोगों ने अतीत में ऐसा किया भी है परन्तु सत्य को स्वीकार करने पर भी कई बार मनुष्य के सम्मुख अनेक प्रकार के संकट उपस्थित हो जाया करते हैं जिनका समाज व देश की व्यवस्था में समाधान प्राप्त नहीं होता। सरकार ने कुछ समय पूर्व बहुपत्नी प्रथा के विरुद्ध कानून बनाकर उसे रोकने का प्रयास किया है जिसका अनेक दलों ने अपने राजनैतिक नजरिये से विरोध भी किया। वर्तमान में भी अनेक धार्मिक व सामाजिक प्रथायें हैं जिनके सुधार की आवश्यकता है परन्तु समाज इसके लिये तैयार नहीं है। अतः विद्वानों का यह मुख्य कर्तव्य है कि वह अपने जीवन को सत्य के प्रचार और असत्य के खण्डन में लगायें। यही ईश्वर की इच्छा भी है और इसी की प्रेरणा वेदों में की गई है। इस प्रेरणा से ही ऋषि दयानन्द ने वेद प्रचार, जो सत्य के प्रचार का पर्याय है, कार्य किया था। यदि सभी विद्वान इस कार्य को करेंगे तभी देश व समाज सत्य, न्याय व निष्पक्षता पर आधारित हो सकता है। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने सभी धार्मिक एवं सामाजिक परम्पराओं किंवा रीति-रिवाजों सहित अच्छी व बुरी परम्पराओं पर विचार करें और उन्हें सत्य ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में संशोधित कर उन्हें वर्तमान समय के अनुकूल बनायें। यह समय की आवश्यकता है जिस ओर हम ध्यान नहीं दे रहे हैं।
वेदों का अध्ययन व आचरण कर मनुष्य श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न होकर एक सच्चा मनुष्य बन सकता है। मनुष्य के जीवन से अवगुणों को दूर करने तथा उसमें सद्गुणों को स्थापित करने का अन्य कोई मार्ग व रास्ता नहीं है। विद्वानों को इस विषय में विचार कर वेद विहित सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार करना चाहिये। इसी का नाम वेद प्रचार है। वेद प्रचार मनुष्य को सच्चा विद्वान देशभक्त व परोपकारी मनुष्य बनाकर देश को सशक्त एवं आदर्श राष्ट्र का निर्माण करता है। महाभारत से पूर्व का भारत आदर्श राष्ट्र था। जहां प्रायः सभी मनुष्य सत्य धर्म का पालन करते हुए न्याय व निष्पक्षता के मार्ग पर चलते थे और सभी ज्ञान सम्पन्न हुआ करते थे। राम, कृष्ण व दयानन्द के समान आदर्श मनुष्य के निर्माण का कार्य हमें वेदों की प्रेरणा व सहायता से करना है। यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य एवं लक्ष्य होना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत