बात 10 मई 1957 की है। सारा देश 1857 की क्रांति की शताब्दी मना रहा था। दिल्ली में रामलीला मैदान में तब एक भव्य कार्यक्रम हुआ था। हिंदू महासभा के नेता वीर सावरकर यद्यपि उस समय कुछ अस्वस्थ थे, परंतु उसके उपरांत भी वह इस ऐतिहासिक समारोह में उपस्थित हुए थे। वह देश के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 1857 के संघर्ष को गदर या विद्रोह न कहकर ‘भारतीयों का प्रथम स्वतंत्रता समर’ कहा था। इसलिए उनका उस समय दिल्ली के लोगों ने उनका अभूतपूर्व स्वागत किया था।
रामलीला मैदान में उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा था-”हमारे सम्मुख दो आदर्श हैं। एक आदर्श है बुद्घ का, दूसरा है युद्घ का। हमें बुद्घ या युद्घ में से एक को अपनाना होगा। यह हमारी दूरदर्शिता पर निर्भर है कि हम बुद्घ की आत्मघाती नीति को अपनायें या युद्घ की विजयप्रदायिनी वीर नीति को।”
1957 तक हमारे तत्कालीन नेतृत्व के चीन के साथ संबंधों की परछाई दिखने लगी थी और क्रांतिवीर सावरकर को स्पष्ट होने लगा था कि चीन के इरादे नेक नही हैं। उसके प्रति हमारी सरकार और हमारा नेता नेहरू जिस नीति का अनुकरण कर रहे हैं, वह विस्तारवादी और साम्राज्यवादी चीन के साथ भारत के राष्ट्रीय हितों के दृष्टिगत उचित नही कही जा सकती। इसलिए 1947 में जब स्वतंत्रता मिल चुकी थी तो भी 1957 में सावरकर बुद्घ (छदम अहिंसावाद, जिससे राष्ट्र का अहित होता है) और युद्घ (अपने राष्ट्रीय हितों के लिए मजबूती से उठ खड़े होने में से) किसी एक को चुनने की बात कह रहे थे।
11 मई 1957 को वीर सावरकर ने दिल्ली में हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था-”आप लोग धन्यवाद के पात्र हैं कि आज की विषम और विपरीत परिस्थितियों में भी हिंदू ध्वज के नीचे डटे खड़े हैं। गत बीस वर्षों में जिन्होंने मुझको नेता मानकर अपमान और दरिद्रता को सहकर भी हिंदू समाज को बलवान बनाने के हेतु कष्ट उठाये, उन्हें मैं कुछ नही दे सका। अपना सब कुछ बलिदान करके भी आप मेरे साथ हैं। आपकी दृढ़ता, अडिगता और सिद्घांत निष्ठा देखकर मैं प्रसन्न हूं। इस हिंदू ध्वज को कंधे पर रखकर आगे बढिय़े। मैं जानता हूं कि यह संघर्ष आसान नही है। लेकिन मैं पूर्ण आशावादी हूं, निराशावादी नही। आप लोग पूर्ण आशा और विश्वास के साथ आगे बढिय़ेगा। अंतिम विजय हमारी है।”
आज जब देश को तोडऩे के लिए तथा देश में साम्प्रदायिक विष फेेलाकर हिंदुत्व के विनाश की योजनाएं बनाकर ‘लव जेहाद’ या मुस्लिम आतंकवाद फेेलाकर देश को संकटों में डाला जा रहा है, तब स्वातंत्र्य वीर सावरकर का उपरोक्त उदबोधन आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना उस समय था।