हम ईश्वर की आज्ञा के अनुसार पर्यावरण रक्षा हेतु यज्ञ करते हैं
ओ३म्
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वेदों के मर्मज्ञ व विख्यात विद्वानों में अपूर्व ऋषि दयानन्द सरस्वती ने वेदों पर आधारित आर्य-हिन्दुओं के पांच कर्तव्यों वा यज्ञों पर प्रकाश डाला है और इन यज्ञों को करने की पद्धति भी लिखी है। आर्य-हिन्दुओं के धर्म और संस्कृति का आधार किसी अल्पज्ञ मनुष्य की अविद्या से युक्त मान्यतायें नहीं है अपितु आर्यों के धर्म के सभी सिद्धान्तों व मान्यताओं का आधार ईश्वर का सृष्टि के आरम्भ में दिया गया चार वेदों का ज्ञान है। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद हैं। परमात्मा की अपनी भाषा वैदिक संस्कृत है। इसी भाषा ने परमात्मा ने सृष्टि की आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को वेदों का ज्ञान दिया था। वेदों का यह ज्ञान ईश्वर की अपनी भाषा वैदिक संस्कृत में है। संस्कृत भाषा ही संसार की सब भाषाओं का आधार वा मूल है। इसी भाषा में विकृतियों के होने से संसार की सभी भाषायें अस्तित्व में आयी हैं। वेदों के विषय में ऋषि दयानन्द की मान्यता है कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वह यह भी बतातें हैं कि वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब मनुष्यों यथा आर्य, हिन्दुओं व अन्य सब का परम धर्म है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि जो मनुष्य वेदों को न पढ़ता है और न पढ़ाता है, वह ईश्वर की आज्ञा का पालन न करने से ईश्वर के प्रति कृतघ्नता के दोष से युक्त होता है और ऐसे सभी व्यक्ति उन लाभों से वंचित रहते हैं जो वेदों को पढ़कर व उनके अनुसार आचरण करने पर जन्म व जन्मान्तर में प्राप्त होते हैं। यह लाभ धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष कहलातें हैं जो वेदों का अनुसरण करने से प्राप्त होते हैं।
वेदों के आधार पर ऋषियों ने आर्यों, हिन्दुओं व इतर सभी मनुष्यों के लिए जिन पांच कर्तव्यों वा यज्ञों का विधान किया है, यह पांच कर्तव्य सन्ध्या, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेव-यज्ञ हैं। पांच यज्ञों के क्रम में देवयज्ञ दूसरा यज्ञ है। इसी को अग्निहोत्र, हवन, होम आदि नामों से भी जाना जाता है। इस अग्निहोत्र देवयज्ञ को हम ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ करते हैं। अग्निहोत्र यज्ञ में तीन मन्त्र आते हैं जिनमें प्रथम दो मन्त्रों से एक समिधा तथा तीसरे मन्त्र से एक समिधा की आहुति देने का विधान है। यह मन्त्र हैं ‘ओ३म् समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्। आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा। इदमग्नये-इदन्न मम।।’ (1) दूसरा मन्त्र- ‘ओ३म् सुसमिधाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन। अग्नये जातवेदसे स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे-इदन्न मम।।’ (2) तीसरा मन्त्र- ‘ओ३म् तन्त्वा समिद्भिरगिंरो घृतेन वर्द्धयामसि। बृहच्छोचा यविष्ठ्य स्वाहा।। इदमग्नयेऽगिंरसे-इदन्न मम।।’ (3) इन तीन मन्त्रों के अर्थ इस प्रकार हैं: प्रथम मन्त्र- जिस प्रकार से मनुष्य प्रेम और श्रद्धा से अतिथि की सेवा करते हैं, वैसे ही उन्हें समिधाओं तथा घृतादि से व्यापनशील अग्नि का सेवन, उपयोग व अग्निहोत्र यज्ञ करना चाहिये। इनमें हवन करने योग्य अच्छे द्रव्यों की यथाविधि आहुति देनी चाहिये। ऋषि मन्त्र के साथ यह यह विधान भी करते हैं कि मेरी यह समिधा व घृतादि यज्ञीय पदार्थों की आहुति सर्वव्यापक परमेश्वर के लिए है, यह मेरे लिये व मेरी नहीं है। दूसरे मन्त्र का अर्थ है- यज्ञकर्ता अग्नि में तपाये हुए शुद्ध घी की यज्ञ में आहुति देंवे जिससे संसार का कल्याण हो। यह आहुति वा आहुतियां सम्पूर्ण पदार्थों में विद्यमान ज्ञानस्वरूप परमेश्वर के लिए हैं, यह आहुति वा समिधा एवं घृतादि मेरा व मेरे लिये नहीं है।
तीसरे मन्त्र का अर्थ है कि व्यापनशील एवं गतिशील यज्ञाग्नि को समिधाओं से और घृत से बढ़ाओ। यह यज्ञाग्नि बहुत प्रज्वलित हो। यह सुन्दर समिधा वेदों के प्रकाश करनेहारे सर्वप्रसिद्ध परमेश्वर के लिए है, यह मेरी व मेरे लिये नहीं है। इन मन्त्रों में अग्नि का सेवन व उसे घृत आदि सुगन्धित व पुष्टि कारक पदार्थों से युक्त हव्य से सिंचित करने का विधान है। विचार करने पर ज्ञात होता है अग्निहोत्र का उद्देश्य प्राण-वायु व जल आदि के प्रदुषण सम्बन्धी दोषों को दूर करना है जिससे मनुष्य स्वस्थ, रोग रहित व बलवान रहे। इससे यह भी ज्ञात होता है कि अग्निहोत्र का अनुष्ठान मनुष्य के अपने हित व कल्याण के लिये है। इससे स्वयं व अन्यों को भी लाभ पहुंचता है। अग्नि में जो गोघृत व ओषधियों से युक्त सामग्री डाली जाती है वह अग्नि में जलकर सूक्ष्म होकर वायु के साथ दूर दूर तक जाती है जिसके सम्पर्क में आकर वायु की शुद्धि आदि अनेक लाभ होते हैं। यज्ञ का अर्थ ही देव पूजा, संगतिकरण एवं दान है। यज्ञ में अग्नि, वायु, जल आदि जड़ देवताओं सहित ईश्वर व चेतन विद्वान देवताओं सहित ईश्वर की पूजा व उपासना भी होती है। इसके साथ ही यज्ञ में परिवार व समाज के उपस्थित लोगों के साथ संगतिकरण कर यज्ञकर्ता व उसके परिवार को विद्वान वृद्ध जनों से ज्ञान की प्राप्ति होती है। यज्ञ में हम जिन हव्य द्रव्यों का दान करते अर्थात् आहुति देते हैं उससे पूरे वायुमण्डल व वर्षा जल की शुद्धि होती है, वायु सुगन्धित होती है, वायु का दुर्गन्ध दूर होता है, जिससे प्राणी मात्र को सुख पहुंचता है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम ईश्वर की यज्ञ करने की आज्ञा का पालन करें और अपने पर्यावरण को न केवल स्वच्छ वा शुद्ध रखें अपितु वायु एवं जल के विकारों को दूर करने के लिये अग्निहोत्र वा हवन का भी नित्य प्रति प्रातः व सायं सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय वा दिन में अनुष्ठान करें।
विचार करने पर यह भी स्पष्ट होता है कि परमात्मा का इस सृष्टि को बनाने व संचालन करने का प्रयोजन जीवात्माओं का हित व कल्याण करना है। जीवों का कल्याण जीवों को जन्म देकर व उन्हें उनके भोग वा सुख की वस्तुयें प्रदान करने पर ही सम्पादित होता है। ईश्वर ने यह कार्य बखूबी किया है। उसने इस विशाल, सीमातीत व अनन्त सृष्टि को बनाया है जिसमें हमारे जैसे अनन्त सौर मण्डल हैं जो हमारे सौर मण्डल की तरह ही अनन्त सूर्य व पृथिवी आदि ग्रह व उपग्रहों से युक्त हैं। ब्रह्माण्ड के सभी पृथिवी सदृश ग्रहों पर ही परमात्मा ने मनुष्य आदि सृष्टि की है जहां मनुष्य के सुख भोग व कल्याण के कामों को करने के लिये पर्याप्त सामग्री को उपलब्ध कराया है। परमात्मा ने वेद में यह भी कहा है कि सभी मनुष्य सृष्टि में उपलब्ध भोग सामग्री का उपभोग त्याग पूर्वक करें। यह सामग्री इस सृष्टि में उत्पन्न व जीवन व्यतीत कर रहे सभी चेतन जीवों वा मनुष्य, पशु, पक्षी आदि प्राणियों के लिये है। यदि कोई सृष्टि की सामग्री के सुख देने वाले पदार्थों का आवश्यकता से अधिक मात्रा में संग्रह करता है तो वह ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करने का दोषी वा पापी होता है जिसका उसे फल व दण्ड भोगना पड़ता है। अतः सभी गृहस्थियों को प्रतिदिन अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिये और सृष्टि को शुद्ध रखने के साथ सृष्टि के पदार्थों का त्यागपूर्वक भोग करना चाहिये। इसके साथ ही सभी को ईश्वर की वेदों में की गई शिक्षाओं व आज्ञाओं का भी पालन करना चाहिये अन्यथा इसका पालन न करने पर मनुष्य ईश्वर के दण्ड के भागी होते हैं।
वर्तमान समय में समस्त संसार पर्यावरण प्रदुषण की समस्या से ग्रस्त है। भारत शायद विश्व में सबसे अधिक पर्यावरण की समस्या से पीड़ित है। इस समस्या का प्रमुख कारण लोगों द्वारा नाना प्रकार से वायु, जल व पृथिवी का प्रदुषित करना और उसके निवारण के उपाय न करना है। आधुनिकता के नाम पर हमने बड़े बड़े उद्योग स्थापित किये हैं जिनसे बड़ी मात्रा में प्रदुषण होता है। भारी संख्या में वाहन भी देश में प्रदुषण में वृद्धि कर रहे हैं। हमारी जीवन शैली से भी हमारे घरों में वायु एवं जल का प्रदुषण होता है। हम जो श्वास छोड़ते व लेते हैं तथा मल मूत्र का त्याग करने सहित वस्त्रों को धोने, घरों के निर्माण, उनके रखरखाव आदि के कारण भी प्रदुषण होता है। आज देश में कैंसर, हृदय, मधुमेह, मोटापा, एलर्जी आदि अनेक प्रकार के भयावह रोगों से देशवासी ग्रसित हैं। शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा हो जो पूर्ण स्वस्थ रहकर सुख भोग रहा हो। ऐसे लोग बहुत कम होंगे जो किसी रोग से ग्रस्त न हो तथा उनका शरीर पूर्णतः स्वस्थ व निरोग हो। इसके लिये हमें अपनी आदतों में सुधार करना होगा और जनसंख्या नियंत्रण पर भी ध्यान देना होगा। अग्निहोत्र यज्ञ को भी हमें व सभी देशवासियों को मत-मतान्तरों की संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर अपनाना होगा। प्राचीन काल में लोग नैतिक व चारित्रिक दृष्टि से आज की तुलना में अधिक सुसभ्य, समझदार व ज्ञानवान थे। उन दिनों देश की जनंसख्या काफी कम होती थी जिससे प्रदुषण भी कम व नहीं होता था। कुछ सम्प्रदाय जनसंख्या वृद्धि का समर्थन करते हैं और उनकी जनसंख्या वृद्धि अधिक गति से हो रही है। इस पर नियंत्रण किया जाना चाहिये। सरकार को समय रहते पर्यावरण, देश तथा मनुष्यों की रक्षा के लिये कठोर निर्णय लेने होंगे जिससे देश के लोग वर्तमान व भविष्य में स्वस्थ एवं सुखी हों। अग्निहोत्र यज्ञ भी इसमें सहायक है। इसको बड़े स्तर पर करने से अधिक लाभ हो सकता है। अग्निहोत्र करने से वायु व जल आदि की शुद्धि सहित मनुष्य स्वस्थ एवं निरोग रहेंगे जिससे देश की उन्नति होगी। ईश्वर की आज्ञा का पालन भी होगा और मनुष्य इस जन्म व पुनर्जन्म लेकर भी ईश्वर की विशेष कृपा प्राप्त कर सुखी होंगे। सब यज्ञ करें और ईश्वर की आज्ञा का पालन कर अपने व दूसरों के सुखों में वृद्धि करें। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत