हिंदू राष्ट्र स्वपन द्रष्टा ; बंदा वीर बैरागी
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अध्याय 16
अवसर चूक गया बैरागी
भाई परमानंद जी ने बंदा वीर बैरागी पर लिखते हुए कहा है : –” बंदा बैरागी यद्यपि साधु था फिर भी ऐसा जंगी नेता भारतवर्ष में कभी पहले न उत्पन्न हुआ था। उस दौर में कई वर्षों तक जहां कहीं भी युद्ध होता तो उसमें विजय प्राय: बंदा बैरागी की व्यक्तिगत वीरता के कारण होती थी । ज्यों ही थोड़ी देर के लिए वह अनुपस्थित होता मुसलमान फिर उठ खड़े होते और सिख उनके आगे मारे मारे फिरते । वह लौटता तो अवस्था तुरंत बदल जाती। यह काल मूर्खता का था। मुसलमानों की शक्ति अंधविश्वास था। बैरागी की उपस्थिति में यह धार्मिक विश्वास जिससे मुसलमान समझते थे कि संसार में उन्हें राज्य और परलोक में स्वर्ग मिलेगा , हिल जाता था ।- – – – इस सबसे बढ़कर जो बात इसे मनुष्यों से उच्च बनाती है , वह यह है कि इतनी विजय प्राप्त करते हुए भी इसने अपना साधु वेश नहीं छोड़ा । युद्ध में भी यह पृथक बैठा हुआ ध्यान और भक्ति में लीन रहता था। केवल आवश्यकता पड़ने पर युद्ध में उपस्थित हो जाता । जब राज करने का समय आया तो इसने समस्त राज्य अपने सरदारों में बांट दिया और खुद संत का संत ही रहा। इस काल में भी जनक महाराज का कथन ठीक बैठता था , वह इस संसार में रहता हुआ भी इससे ऐसा पृथक था । जैसे कमल पत्र जल में रहकर भी सूखा रहता है । पंजाब के हिंदुओं के लिए वह एक अवतार था । ”
हर हिंदू सैनिक बने लक्ष्य लिया यह साध ।
स्वराज्य तभी मिल पाएगा मिटेंगे सब अपराध ।।
बंदा वीर बैरागी अपने समय में हिंदुओं का सैनिकीकरण कर रहा था । स्वराज्य की प्राप्ति के लिए और हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए उसने हिंदुओं का सैनिकीकरण करना समय की आवश्यकता माना था । इसी बात को आगे चलकर सावरकर जी ने अनिवार्य रूप से हिंदुओं के लिए घोषित किया।
वीर सावरकर जी अपनी सभाओं में अक्सर कहा करते थे :– ” 1857 में जब प्रथम स्वाधीनता संग्राम हुआ था तब से ब्रिटिश सरकार की नीति रही है कि सेना को राजनीति से दूर रखा जाए। हमारी नीति यह होनी चाहिए कि येन केन प्रकारेण भारतीय सेना में राजनीति का प्रवेश कराया जाए । एक बार यदि आप इस कार्य में सफल हो जाते हैं तो समझ लीजिए कि आपने स्वराज्य का युद्ध जीत लिया । अपरिहार्य कारणों से विवश होकर ब्रिटिश सरकार को आप पर भरोसा करके आपको हथियार और गोला-बारूद सौंपने पड़ रहे हैं । पहले पिस्तौल रखने पर युवकों को जेल की एकांत कोठरियों में सड़ना पड़ता था , किंतु आज अंग्रेज आपके हाथ में राइफल , बंदूक , तोप , मशीन गन दे रहे हैं । पूर्ण प्रशिक्षित सैनिक और सेनानायक बने हजारों लोगों को प्राविधिक विशेषज्ञ बनाओ । जो कारखाने में पानी के जहाज वायुयान आग्नेयास्त्र और गोला-बारूद बना सकें । आबंध और संविदा की चिंता मत करो ।उन कागजों के टुकड़ों का पृष्ठ भाग तो रिक्त है । समय आने पर आप उस पर नये आबंध और नई संविदा लिख सकते हैं। ध्यान रहे स्वरराज्य आपके हाथ नहीं लगेगा , भले ही आप समूची धरती पर कागजी प्रस्ताव बिछा दें। परंतु यदि आपके कंधों पर राइफल होगी और उसी से आप प्रस्ताव पारित करेंगे तो निश्चय ही आप स्वराज्य प्राप्त कर लेंगे । ( सन्दर्भ : धनंजय कौर , वीर सावरकर ,पृष्ठ- 257 )
बंदा वीर बैरागी को हिंदुओं के सैनिकीकरण करने की अपनी नीति के अंतर्गत आत्म बलिदानी युवाओं का एक बड़ा जत्था मिल गया था । यही उसकी सेना थी । खफी खां जैसे निष्पक्ष मुस्लिम इतिहासकार ने भी उसके पास 40000 की सेना के होने का तथ्य स्वीकार किया है । इस सेना के बलिदानी जत्थे के युवा नि:स्वार्थ भाव से राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए पंक्तिबद्ध होकर बंदा वीर बैरागी के समक्ष आ खड़े हुए थे । उनके लिए देश भक्ति पहले थी पेट भक्ति बाद में थी।
मिलते गए जत्थे उसे बलिदानियों के देश में ,
सहर्ष युवा आते गए मिटने को युद्ध वेश में ।
इच्छा सभी की एक थी मातृभूमि की स्वतंत्रता।
सब लुटा करके भी नहीं मन किसी के क्लेश में।।
जब मुगल बादशाह बहादुरशाह की मृत्यु हुई तो हर बार की भांति मुगल दरबार में सत्ता संघर्ष आरंभ हो गया । अमीरों ने सत्ता पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए अपने कई दल बना लिए । कई महत्वपूर्ण सरदार और राज्य सिंहासन के उत्तराधिकारी एक वर्ष के काल में ही समाप्त कर दिए गए । उसी समय सैयद बंधुओं की शक्ति बढ़ने का क्रम भी आरंभ हुआ । इन बंधुओं ने मुगल दरबार को अपनी मुट्ठी में रखने के लिए अपनी शक्ति में पर्याप्त वृद्धि की । इन्हीं सैयद बंधुओं के कारण फर्रूखसियर मुगल बादशाह बनने में सफल हुआ । यह अलग बात है कि वह भी अधिक देर तक शासन नहीं कर पाया। वह बहुत ही विलासी प्रवृत्ति का शासक था , यद्यपि यह अवगुण सभी मुगल बादशाहों में पर्याप्त मात्रा में था , परंतु फर्रूखसियर न केवल भोगी विलासी था अपितु अपने पूर्ववर्ती मुगल बादशाहों की अपेक्षा दुर्बल शासक भी था । उसकी दुर्बल मानसिकता ने और सैयद बंधु के उस पर कसे हुए शिकंजे ने उसे कोई भी ऐसा कार्य नहीं करने दिया जो मुगल वंश के लिए गौरवमयी हो सकता था । वैसे भी सैयद बंधु अपनी मुट्ठी के किसी भी बादशाह को इतनी छूट देने को उद्यत नहीं थे कि वह मजबूती के साथ शासन करने में सफल हो जाए । उनकी सोच थी कि किसी भी स्थिति में कोई भी मुगल बादशाह न तो लोकप्रिय हो पाए , न ही कोई मजबूत निर्णय ले पाए । इसलिए सैयद बंधुओं के नियंत्रण में रहने का अभिप्राय था कि अपनी आजादी , अपना विवेक , अपनी बुद्धि और अपनी सोच को गुलाम बना देना और फर्रूखसियर ने ऐसा ही किया भी ।
इसी बादशाह के शासनकाल में बंदा वीर बैरागी को गिरफ्तार किया गया था और इसी के शासनकाल में बैरागी का वध भी किया गया था । बैरागी के जीवन काल में इसका या किसी भी मुगल सरदार या बादशाह का साहस सिक्खों पर अत्याचार करने का नहीं हुआ था , परंतु जब बैरागी का वध कर दिया गया तो सिखों पर अमानवीय अत्याचारों की बाढ़ आ गई। सिख इतिहास में उन सभी अत्याचारों और अमानवीय पापकर्मों के लिए फर्रूखसियर को भी उत्तरदायी माना गया है।
कई इतिहास लेखकों और विद्वानों ने बंदा वीर बैरागी की इस बात के लिए आलोचना की है कि जिस समय मुगल दरबार में सत्ता संघर्ष चल रहा था और वहां पर सरदारों और राजकुमारों का चुन-चुन कर वध किया जा रहा था, उस काल में बंदा बैरागी को अपनी शक्ति में वृद्धि करनी चाहिए थी। वह भक्ति छोड़ कर क्षात्र बल की वृद्धि पर ध्यान देता तो उसका वह सपना साकार हो सकता था जो उसने हिंदू राज्य स्थापित करने का बुना था , परंतु वह ऐसा कुछ भी नहीं कर पाया। हमारा मानना है कि वास्तव में बंदा बैरागी का यह प्रमाद ही था और इस प्रमाद में उसकी भक्ति का प्रमुख योगदान था । उसे राष्ट्ररक्षा के सत्संकल्प को पूर्ण करने के लिए अपनी आध्यात्मिक शक्तियों का राष्ट्र शक्ति के साथ समन्वय करना चाहिए था। उसे यह ध्यान रखना चाहिए था कि वह मानवता के हित में जितना बड़ा कार्य कर रहा था , वह उसका शुभ कर्म ही था और प्रत्येक शुभ कर्म ही यज्ञ है । प्रत्येक यज्ञीय कर्म ही भक्ति की श्रेणी में आ जाता है । मानवता की रक्षा करना उसकी सबसे बड़ी भक्ति थी। जिसे वह स्वीकार भी कर चुका था । इतना ही नहीं उसमें बहुत आगे बढ़ भी चुका था , परंतु इसके उपरांत भी वह एक सीमा पर जाकर रुक सा गया ,जो उचित नहीं कहा जा सकता। मुगल दरबार में चल रहे इस सत्ता युद्ध का लाभ बंदा वीर बैरागी को उठाना चाहिए था , परंतु वह अवसर चूक गया । जिसका परिणाम न केवल उसके लिए अपितु देश के लिए भी घातक रहा ।
उसके जीवन में अपने राज्य विस्तार के प्रति आए ठहराव के कारण और दूसरे दिल्ली दरबार में चल रहे सत्ता संघर्ष का एक कूटनीतिज्ञ शासक की भांति लाभ न उठाने के चलते फर्रूखसियर जैसा दुर्बल , भोगी , विलासी और कामी शासक उसे गिरफ्तार कराने में सफल हो गया । जिसका परिणाम यह आया कि भारत में हिंदू राज्य की संकल्पना को साकार करने के लिए भारत के तत्कालीन राजनीतिक गगन मंडल पर चमका एक दिव्य सितारा आभाविहीन हो विलुप्त हो गया।
जब शत्रु संकट में फंसे अवरूद्ध कर दो मार्ग सब । असफल हो चाल सारी अपनाओ ऐसे तर्क सब ।। कूटनीति युद्ध नीति और रणनीति भी कहती यही । लाभ उठाओ फुट का शत्रु असहज हो जब कभी ।।
महाभारत के बारे में कुछ लोगों का मानना है कि यह युद्ध इसलिए लड़ा गया कि द्रौपदी ने अपनी वाणी पर नियंत्रण न रखते हुए दुर्योधन को अंधे का अंधा कहा था । यह कथन सत्य नहीं है । क्योंकि ऐसी कोई घटना वहां पर हुई ही नहीं थी कि जब दुर्योधन को द्रौपदी ने अंधे का अंधा कहा हो । दूसरे लोग कुछ अन्य ऐसे कारण गिनाते हैं जिनसे महाभारत का युद्ध होना अवश्यंभावी हो गया था । इस पर हमारा मानना है कि यदि भीष्म पितामह समय पर माता सत्यवती के आदेश को शिरोधार्य कर लेते और जिस समय कोई भी उत्तराधिकारी हस्तिनापुर के राज्य के लिए नहीं रहा था , उस समय वह चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य में से किसी एक की पत्नी से विवाह कर लेते तो बहुत अच्छा रहता । उस समय माता सत्यवती से वह यह कह सकते थे कि इन परिस्थितियों में मैं किसी एक रानी से केवल संतानोत्पत्ति के लिए संबंध बनाऊँगा और उससे जो संतान उत्पन्न होगी , वही इस राज्य की स्वामी वही होगी । मैं उस संतान का पालन – पोषण करते हुए संरक्षक का दायित्व निर्वाह करूंगा और हस्तिनापुर राज्य की सत्ता से दूर रहकर ही सेवा करता रहूंगा । यदि वह ऐसा करते तो उसके पश्चात संकर संतान उत्पन्न होने का खतरा समाप्त हो जाता । इसे भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि भीष्म पितामह ने उस समय अपने भीतर के द्वंद्वभाव को प्रकट कर दिया । उस द्वंदभाव ने उन्हें उस समय विवाह न करने की जिद पर अड़ा दिया । भीष्म पितामह से उस समय अपेक्षा की जाती थी कि वह अपने महान उद्देश्य के दृष्टिगत अर्थात आर्य संस्कृति की रक्षा के लिए , आर्यावर्त की रक्षा के लिए और वैदिक मूल्यों की रक्षा के लिए अपने आपको समर्पित करते । उस समय राष्ट्र को उनकी आवश्यकता थी। व्यक्ति कभी भी राष्ट्र से बड़ा नहीं हो सकता , राष्ट्र के लिए व्यक्ति को समर्पित होना ही पड़ता है । यदि व्यक्ति के भीतर द्वन्दभाव चल रहा है तो वह उससे प्रमादपूर्ण निर्णय दिलवा सकता है । उसका निर्णय दिखने में राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत हो सकता है , परंतु यह आवश्यक नहीं कि वह निर्णय सर्वांशत: शुद्ध हो , या राष्ट्र के प्रति समर्पित कहा जाने वाला निर्णय ही हो ।यदि द्वन्द्वभाव को त्यागकर और हस्तिनापुर के प्रति अपने संकल्प को ध्यान में रखकर भीष्म पितामह उस समय माता सत्यवती के आदेश को शिरोधार्य कर विवाह कर लेते तो आगे की सारी घटनाएं दूसरा मोड़ ले जातीं , तब आज के भारत वर्ष का ही नहीं ,अपितु समस्त संसार का इतिहास कुछ दूसरा ही होता।
बस , ऐसा ही कुछ उस समय बंदा वीर बैरागी के साथ हो रहा था । यह एक सर्वमान्य सत्य है कि राजसत्ता भोगने की अपेक्षा भक्ति में विषयभोग कहीं अधिक विघ्न उत्पन्न करते हैं । यदि वह संत रहते हुए अर्थात बैरागी का वेश धारण करके विवाह कर सकता था तो उसे राजसत्ता का वरण भी करना चाहिए था । यद्यपि वह अपने स्वभाव , हाव – भाव व कार्यशैली से राजा ‘जनक ‘ बन चुका था , परंतु जनक की भांति वह राजसत्ता को पाने के लिए कदापि तैयार नहीं था । इतिहासकारों ने उसके इस प्रकार के निर्णय को उसके स्वयं के लिए और हिंदू धर्म के लिए प्राणनाशक कहा है ।
बंदा वीर बैरागी तत्कालीन क्रूर सत्ता के विरुद्ध बने परिवेश को अपने पक्ष में करने में पूर्णतया सफल हो गया था । इसके उपरांत भी उस समय के समाज को एक सक्षम तेजस्वी नेतृत्व की आवश्यकता थी , जो उन्हें उचित दिशा दे सके , जो उनकी समस्याओं को स्वयं सुन सके और एक लोकतंत्रात्मक शासन स्थापित कर जनाधिकारों का पूर्ण सम्मान कर सके । बंदा वीर बैरागी नि:संदेह एक महान क्रान्ति करने में सफल हुआ , जब उसने एक विशाल क्षेत्र पर हिंदू राज्य स्थापित कर लिया । उसके द्वारा स्थापित किए गए इस राज्य में उसकी प्रजा सर्व सुखों का आभास भी कर रही थी , परंतु उसके लिए यह भी अपेक्षित था कि अपने द्वारा स्थापित किए गए उस हिंदू राज्य को वह स्वयं ही संभालता।
ऋग्वेद ( 6 / 20 / 3 ) में राजा के गुणों की चर्चा की गई है । वहां पर कहा गया है कि राजा के भीतर शत्रुनाशक का गुण होना अनिवार्य है । इसके साथ ही वेद यह भी कहता है कि राजा प्रजा को प्रसन्न रखने वाला हो । प्रजा तभी प्रसन्न रह सकती है जब अंतरंग और बहिरंग शत्रुओं के उपद्रवों से सारा राज्य सुरक्षित हो । वेद का ऋषि राजा के भीतर दूसरे गुण की चर्चा करते हुए कहता है कि वह दूसरों से अधिक ओजस्वी हो । उसकी राज्यव्यवस्था तभी स्थिर रह सकती है जब वह ओजस्विता उसके साथ रहेगी । तीसरे , राजा के लिए कहा गया है कि वह बलवान से भी अधिक बलवान हो । स्वाभाविक बात है कि ओजस्विता की रक्षा के लिए बल की आवश्यकता है । चौथे , राजा धन ,अन्न , ज्ञान का संचय करने वाला भी हो । पांचवें , राजा वृद्धों की पूजा करने वाला हो । छठे , राजा के लिए अपेक्षित किया गया है कि वह समस्त शत्रु नगरों को नष्ट करने वाली सेना का रक्षक हो, अर्थात विजयिनी सेना का अधिपति हो ।
शत्रु का संहार करे ऐसा होय नरेश।
प्रजा सारी खुश रहे शांतिमय हो देश ।।
ओजस्वी बलवान हो संचय करता ज्ञान।
वृद्धों का पूजन करें ,अस्त्र-शस्त्र की खान ।।
हमारे चरितनायक बंदा वीर बैरागी के भीतर राजा के यह सभी गुण थे। उसके भीतर कमी केवल यह थी कि राजा के समस्त गुणों का अधिपति होते हुए भी वह राजा नहीं था , या राजा बनना नहीं चाहता था। बड़े दुर्लभ संयोग से ही किसी व्यक्ति के भीतर यह सारे गुण एक साथ मिलते हैं । परंतु हम देखते हैं कि इन गुणों का उस समय कोई मूल्य नहीं रह जाता है जब कोई व्यक्ति इन गुणों से सुभूषित होते हुए भी राजपद को छोड़ रहा हो । भारत में राजा के दार्शनिक होने की कल्पना की गई है । राजा का दार्शनिक होना अनिवार्य माना गया है । चाणक्य ,ने ‘ राजा दार्शनिक और दार्शनिक राजा होना चाहिए ‘- ऐसी व्यवस्था भी दी है । हमारा चरितनायक बंदा वीर बैरागी दार्शनिक था , परंतु दार्शनिक होकर राजा नहीं बनना चाह रहा था। यही कारण रहा कि वह सारे भारतवर्ष की दृष्टि का एक बार केंद्र बनकर भी उस अवसर को चूक गया जब मुग़ल परस्पर लड़ – झगड़ रहे थे और सत्ता -संघर्ष में अपनी शक्ति का क्षरण कर रहे थे।
( प्रस्तुत लेखमाला प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली के द्वारा पुस्तक रूप में भी प्रकाशित की जा रही है। इच्छुक पाठक अपनी प्रति सुरक्षित करा सकते हैं )
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत
शत -शत नमन 🙏
अपने देश के गौरव शाली वीर बलिदानी शख्शियत एवं इतिहास को हर भारतीय बच्चे बच्चे को जानना ही चाहिए ! आपके इस सराहनीय योगदान को नमन ..🙏 😊