वैदिक कर्मफल सिद्धांत सत्य नियमों पर आधारित यथार्थ दर्शन है
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वैदिक धर्म सृष्टि का सबसे पुराना धर्म है। यह धर्म न केवल इस सृष्टि के आरम्भ से प्रचलित हुआ है अपितु इससे पूर्व जितनी बार भी प्रलय व सृष्टि हुई हैं, उन सब सृष्टि कालों में भी एकमात्र वैदिक धर्म ही पूरे विश्व में प्रवर्तित रहा है। इसका कारण यह है कि ईश्वर, जीव तथा प्रकृति तीन अनादि सत्तायें हैं। ईश्वर अनादि काल से है और अनन्त काल तक रहेगा। उसका कभी नाश व अभाव नहीं होगा। इस कारण से वह अनादि काल से असंख्य बार उत्पन्न अनन्त सृष्टियों में उपस्थित रहा है। वेद उसका अपना निज ज्ञान है जो पूर्ण परमात्मा का पूर्ण ज्ञान है तथा इसमें न्यूनधिक नहीं होता है। जो वेदज्ञान ईश्वर ने इस सृष्टि के आदि काल में दिया था वही ज्ञान अनािद काल से प्रत्येक सृष्टि की आदि में वह देता आ रहा है और भविष्य में भी देगा। इस वैदिक धर्म की एक विशेषता इसका कर्म-फल सिद्धान्त है। वस्तुतः इस सृष्टि की उत्पत्ति का कारण व प्रयोजन ही अनादि व नित्य अल्पज्ञ जीवों को उनके पूर्वजन्मों व सृष्टियों में किये हुए सुख व दुःखरूपी कर्मों के फल देना है। यदि ऐसा न हो तो फिर ईश्वर के द्वारा सृष्टि की रचना का कोई प्रयोजन व कारण नहीं रहता है। संसार में भी हम इसी तरह की व्यवस्था को देखते हैं। माता-पिता व आचार्य अपनी सन्तानों व शिष्यों को उनके कर्मानुसार पसन्द व नापसन्द करते हैं। वह सब अच्छे कार्यों के लिये प्रशंसा करते, उनको आशीर्वाद व भौतिक सम्पत्ति देते और अशुभ व पाप कर्म करने पर उनकी ताड़ना करते व दण्डित करते हैं। सरकारी व्यवस्था में दुष्कर्म करने वाले को अपराधी कहा जाता है और उसे कारावास आदि की यातनायें दी जाती हैं। यह कर्म-फल व्यवस्था सभी पर लागू होती है। सभी जीवात्मायें चाहें वह मनुष्य योनि में हों या इतर पशु, पक्षी व अन्य योनियों में, वह सब परमात्मा की सन्तानें हैं। परमात्मा भी इन योनियों में अच्छे कर्म करने वालों को सुख तथा अशुभ व दुष्कर्म करने वालों को दुःख देता है। जो जीवात्मा मनुष्य योनि में जन्म लेकर वेदज्ञान प्राप्त कर अपने ज्ञान में वृद्धि कर एवं वेदानुसार जीवन व्यतीत करता है, अशुभ, पाप वा दुष्कर्मों को नहीं करता, परमात्मा उसको दुःखों से छुड़ाकर मोक्ष व मुक्ति प्रदान करता है। इसी लिये सृष्टि के आरम्भ से सभी वेदज्ञानी, साधु, ऋषि-मुनि व विद्वान सत्कर्मों को करते आये हैं व सत्कर्मों को प्रवृत्त करने के लिये वेद प्रचार भी करते रहे हैं। ऋषि दयानन्द भी वैदिक परम्परा के ऋषि थे। उन्होंने भी अपने जीवन काल वर्ष 1825-1883 में वेद ज्ञान अर्जित कर वेदों के प्रचार-प्रसार में ही अपने जीवन को समर्पित किया था जिसके परिणामस्वरूप देश अज्ञान व अन्धविश्वासों से बाहर आया और देश की आजादी सहित शिक्षा जगत व अन्य सभी क्षेत्र में देश ने प्रगति की है। ईश्वर सर्वज्ञ वा पूर्ण ज्ञानी है। वह अनादि व नित्य होने सहित सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एवं न्यायकारी है। अतः परमात्मा जीवों को सुख देने के लिये उनको सद्कर्म करने की प्रेरणा उनकी आत्माओं के भीतर करता रहता है। जो मनुष्य ईश्वर की प्रेरणा के विपरीत आचरण करते हैं वह उसकी न्याय व्यवस्था से दण्डित होते वा दुःख प्राप्त करते हैं और जो उसकी व्यवस्था का पालन करते हैं वह सुख व उन्नति रूपी पुरस्कार से अलंकृत व पुरस्कृत होते हैं।
कर्म-फल व्यवस्था विषयक वैदिक मान्यताओं के अनुरूप एक विधान प्रसिद्ध है। यह है ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं’। इसका अर्थ है कि मनुष्य जो भी शुभ और अशुभ अर्थात् पुण्य व पाप कर्म करता है उस प्रत्येक कर्म का फल उस जीवात्मा को अवश्य ही भोगना पड़ता है। इसकी पुष्टि अनेक शास्त्रीय ग्रन्थों व वचनों से होती है। कर्म-फल सिद्धान्त के विषय में यह तथ्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि ईश्वर सर्वातिसूक्ष्म, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सभी जीवों के प्रत्येक कर्म का साक्षी वा द्रष्टा होता है। जीवात्मा का कोई कर्म ईश्वर की दृष्टि वा ज्ञान से छिपता व छूटता नहीं है। वह मनुष्य व सभी जीवात्माओं के मन के विचारों व भावनाओं को भी जानता है। ईश्वर का एक नाम व कार्य उसका न्यायकारी होना है। न्याय का अर्थ यही है कि प्रत्येक कर्म का उसके अनुरूप, न कम और न अधिक, सुख व दुःख रूपी फल समय पर, न देर व शीघ्र, प्राप्त हो। ईश्वर यह काम बखूबी व बहुत अच्छी तरह से करता है। संसार पर दृष्टि डालें तो ईश्वरीय कर्म-फल व्यवस्था के अनेक उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में एक वेदानुकूल एवं यथार्थ बात कही है। उनके अनुसार मनुष्य जब किसी विषय का विचार करता है तो उसकी आत्मा में शुभ व परोपकार आदि के काम करने के प्रति उत्साह एवं आनन्द की अनुभूति होती है और जब किसी के अहित व अपकार का विचार करता है, चोरी व जारी आदि कर्म की योजना बनाता है तो उसकी आत्मा में भय, शंका व लज्जा उत्पन्न होती है। यह प्रेरणा व सुख-दुःख आदि की अनुभूति आत्मा की अपनी ओर से न होकर परमात्मा की ओर से होती है। जो मनुष्य परमात्मा की प्रेरणा भय, शंका व लज्जा को अनुभव कर उन कार्यों को नहीं करते वह उनके फल व परिणाम दुःखों से बच जाते हैं। जो करते हैं उनको ईश्वरीय व्यवस्था से दण्ड मिलता है।
संसार में हम प्रतिदिन मनुष्य का जन्म होते देखते हैं। एक बच्चा समृद्ध व धनी परिवार में जन्म लेता है जहां उसको सुख-सुविधा की सभी वस्तुयें सुलभ होती हैं। ऐसे भी बच्चे होते हैं जहां माता-पिता व परिवार अभावों व भुखमरी से ग्रस्त होता है। बच्चे को मां का दुग्ध तक सुलभ नहीं होता। यह अन्तर व भेदभाव कुछ सीमा तक जन्म लेने वाले बच्चों के पूर्वजन्म के कर्मों के कारण होता है। बच्चा कन्या हो या बालक, विद्वान माता-पिता के यहां उत्पन्न हो या अज्ञानी माता-पिता के यहां, उसके भावी माता-पिता धनी हों या निर्धन, बच्चा स्वस्थ हो अथवा नहीं, इनमें से बहुत सी बातें जीवात्मा के पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार होती हैं। योगदर्शन में ऋषि पतंजलि द्वारा बताया गया है कि मृत्यु के समय जीवात्मा का जो प्रारब्ध होता है उसके अनुसार ही परमात्मा उस जीवात्मा की जाति, आयु तथा भोग का निर्धारण करता है। जाति मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि योनियों को कहते हैं। मनुष्यों में जो जाति प्रथा प्रचलित है वह यथार्थ में जाति प्रथा नहीं है। यहां जाति शब्द का अपप्रयोग है। वस्तुतः सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक जाति है। क्या भारत, अमेरिका, इंग्लैण्ड और चीन, सभी देशों के व्यक्ति व बच्चे परमात्मा के द्वारा उत्पन्न हैं, उन सबमें एक एक जीवात्मा है और सभी की जाति एक मनुष्य जाति ही है। भौगोलिक कारणों से लोगों की मुखाकृति व वर्ण आदि में कुछ भेद हो सकता है। प्रारब्ध को मनुष्य के पूर्वजन्मों के कर्मों का बहीखाता कह सकते हैं जिसका ज्ञान केवल परमात्मा को होता है। जीवात्मा के प्रारब्ध के अनुसार ही उसकी भावी परजन्म में आयु निर्धारित होती है। जन्म लेने के बाद हम शुभ व अशुभ कर्मों को करके आयु को कम भी कर सकते हैं। इसका कारण जीव का कर्म करने में स्वतन्त्र होना है। इस स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करने से आयु कम तथा इसका सदुपयोग करने से आयु प्रारब्ध के अनुरूप व उससे कुछ अधिक भी हो सकती है।
परमात्मा हमारे प्रत्येक कर्म का फल हमें इस जन्म व परजन्मों में देता है। यदि हम परजन्मों में दुःख नहीं चाहते, इस जन्म के समान व इससे भी अधिक सुखी व समृद्ध मनुष्य का जन्म चाहते हैं तो हमें वेद निषिद्ध असद् कर्मों का त्याग करना होगा। हमें वेदाध्ययन व वैदिक साहित्य का अध्ययन कर अपना ज्ञान बढ़ाना होगा, पंचमहायज्ञ सन्ध्या, अग्निहोत्र, पितृ, अतिथि तथा बलिवैश्वदेव यज्ञों को करना होगा और इसके साथ ही यौगिक जीवन व्यतीत करते हुए तथा सत्पथ पर चलते हुए योग व सन्ध्या के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करना होगा। ऐसा होने पर ही हमारे दुःखों की पूर्णतः निवृत्ति हो सकती है। सबको अपने भोजन पर भी ध्यान देना चाहिये। हमें पुरुषार्थ से प्राप्त शुद्ध व पवित्र भोजन ही करना है। किसी प्राणी को अनावश्यक कष्ट नहीं देना है। यदि हमारे निमित्त से किसी अन्य द्वारा प्राणियों को कष्ट दिया जाता है तो उसमें हम भी पाप के भागीदार होते हैं और हमें भी अपनी भूमिका के अनुसार फल भोगना होता है। अतः सभी मनुष्यों को मांसाहार, अण्डों का सेवन तथा तामसिक भोजन का त्याग कर देना चाहिये। ऐसा न हो कि हमें जीवन के आरम्भ या मध्य में रोग, दुर्घटनाओं तथा आपदाओं आदि कष्टों को झेलना पड़े। जो सद्कर्म हमारे वश में है, उन्हें शास्त्र की आज्ञा के अनुसार करने का हमें प्रयत्न करना है। इसी से हमारा वर्तमान व भावी जीवन सुखद होगा। हमने इस लेख में वैदिक कर्म-फल व्यवस्था की संक्षेप में चर्चा की है। इस चर्चा को यहीं विराम देते हैं। इसके साथ ही हम आध्यात्मिक विषयों के ज्ञान की वृद्धि के लिये ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के अध्ययन की प्रेरणा भी करते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत
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