जब था झंडे में ‘ वंदेमातरम ‘ , झंडा दिवस : 7 दिसंबर पर विशेष

भारत में ध्वजा शब्द झंडे का पर्यायवाची है, प्राचीन काल में राज्यकर्मियों द्वारा उठाकर ले जाने वाली ध्वजा को राजा या सेना के प्रतीक रूप में परिभाषित किया गया है। शुद्घ शाब्दिक रूप में ध्वजा से तीन चीजों का बोध होता है-

1. पताका (हवा में फहराने वाला कपड़े या किसी अन्य वस्तु का टुकड़ा)

2. केतु (पताका पर बना चिन्ह)

3. यष्टि (दंड या डंडा जिस पर पताका लगी होती है)
यष्टि से ही ‘ सोटी ‘ शब्द रूट हुआ है।

महाभारत में अर्जुन का ध्वज वानरकेतु, दुर्योधन का सर्पकेतु तथा कर्ण का हस्तिकाश्यामाहार-केतु इत्यादि। जिसे हम इन्द्रधनुष कहते हैं वह भी इंद्रध्वजा का पर्यायवाची है। रामायाण, महाभारत काल में हमें ध्वजा के बारे में स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं, रामायण अयोध्या काण्ड में स्पष्ट उल्लेख है कि राम और सीता के साथ अपने 14 वर्ष के वनवास के दौरान एक दिन लक्ष्मण ने देखा कि एक विशाल सेना अपने आगे कोविदार ध्वजा फहराती चली आ रही है, और उन्होंने तत्काल ही अनुमान लगा लिया कि भरत आ रहे हैं। लंका पर आक्रमण के समय राम ने अपने रघुवंश की ध्वजा के नीचे रावण से युद्घ किया था। कुरूक्षेत्र में युधिष्ठर की ध्वजा पर नंद और उपनंद नाम के दो मृदंगों के एक जोड़े का चित्र अंकित था। अर्जुन की कपि ध्वजा पर वानर राज चित्र अंकित था। भीम की सिंह ध्वजा थी, जबकि नकुल की ध्वजा पर सरभ (एक पशु जो दो सिरों वाला होता था) अंकित था और सहदेव हंस ध्वजा के साथ चलते थे। अभिमन्यु ने अपनी ध्वजा के लिए सारंग पक्षी का चुनाव किया था। पांडव सेनापति धृष्टद्युम्न ‘कोविदार’ ध्वजा फहराते थे। घटोत्कच की ध्वजा गृद्घ ध्वजा, कृष्ण की गरूड़ ध्वजा, बलराम की ताल ध्वजा, कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न की मकर ध्वजा, भीष्म की ताल ध्वजा थी, जबकि कृपाचार्य की बृषभ ध्वजा, जयद्रथ की बराह ध्वजा, शल्य की सीता (हल) ध्वजा थी।

इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत में प्राचीन काल से ध्वजा का प्रयोग होता आया है। इससे यह भी स्पष्टï है कि संसार के अन्य देशों के लिए ध्वजा का प्रयोग भारत से निर्यात होकर गया है। मध्यकाल में भी हमारे देश के राजाओं की अलग अलग ध्वजाएं रहीं, जब हमारे देश पर विदेशियों के आक्रमण हुए तो उन्होंने भी यहां पर अपनी अपनी ध्वजाओं का अपने अपने शासन में प्रयोग किया। राजपूत शासक अपनी ध्वजा को अपनी आन बान शान का प्रतीक मानते थे। चित्तौड़ के राणा अपने आपको सूर्यवंशी मानते आये हैं। इसलिए उनकी ध्वजा पर सुनहरे सूर्य की आकृति अंकित थी। हल्दी घाटी का प्रसिद्घ महाराणा प्रताप ने इसी ध्वजा के नीचे लड़ा था। जब सरदार झाला ने अपने महाराणा पर प्राण संकट देखा तो उन्होंने महाराणा की ध्वजा को अपने सिर पर ले लिया और उन्हें युद्घ से निकल भागने के लिए प्रेरित किया। इसी प्रकार नागपुर के भौंसले शासकों के दो झंडे थे-जरी पताका और भगवा झंडा शिवाजी के पिता शाह जी भगवा झंडे के साथ चलते थे। शिवाजी ने भी इस झंडे को सम्मान दिया। कदाचित यही कारण रहा कि उनके अंतिम हिंदू शासक होने के कारण आज तक हिंदूवादी संगठन और राजनीतिक दल भगवा को अपने लिए सम्मान का प्रतीक मानते हैं। मुस्लिम काल में शिवाजी का भगवा झंडा मुसलमानों के लिए काफी आलोचना का पात्र रहा इसलिए उसी मानसिकता के शासकों के लिए यह अब भी आलोचना का पात्र बन जाता है। मराठों ने अपने इस झंडे के फ्लागनीचे कई युद्घ लड़े।

यूनियन जैक का भारत आगमन

भारत में 1599 में ईष्ट इण्डिया कंपनी के 24 व्यापारी आए, जिन्होंने 125 शेयरधारकों के साथ इस कंपनी की स्थापना की। तब ये अपने साथ अपना झंडा लेकर आए। बंगाल, मद्रास और बंबई की प्रेसीडेंसियों के अलग अलग झंडे थे, जब कंपनी शासन की जगह 1858 में सम्राट का शासन शुरू हुआ तो झंडे में भी बदलाव आया। वायसराय के झंडे में यूनियन जैक के साथ ज्वैल ऑफ इंडिया अंकित था। ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने अपने घोषणा पत्र के समय 1858 में दिल्ली के लालकिले पर पहली बार यूनियन जैक अपने हाथों से चढ़ाया।

1858 की क्रांति के समय हमारे देश की 565 देशीय रियासतें थीं जिनके अपने अपने झंडे थे, यह दुख की बात थी कि कोई भी ऐसा झंडा नही था जो पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर सकता हो। बहादुर शाह जफर ने इस समय कमल के फूल और रोटी को विद्रोह का प्रतीक बनाकर विद्रोहियों के लिए हरे और सुनहरे रंग के झंडे का चुनाव किया था। कहीं तक किस झंडे के नीचे हम बड़ी संख्या में एकत्र भी हुए लेकिन फिर भी झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का अपना झंडा अलग था जिसका नाम हनुमान झंडा था।

राष्ट्रीय झंडे का विकास:

ऐसी परिस्थितियों में देश में एक राष्ट्रीय झंडे की आवश्यकता अनुभव हो रही थी। इस दिशा में सबसे पहला कार्य आयरलैंड वासी स्वामी विवेकानंद की शिष्या सिस्टर निवेदिता ने किया। सन 1905 में उन्होंने एक राष्ट्रीय झंडे की परिकल्पना की और उन्होंने जो झंडा बनाया उस पर इंद्र देवता का शस्त्र बज्र अंकित किया। उन्होंने 1906 में अपने शिष्यों से एक दूसरा झंडा बनवाया जिस पर लाल पर पीला रंग अंकित था। इसे 1906 में संपन्न कांग्रेस के अधिवेशन में प्रदर्शित किया गया। सिस्टर निवेदिता का झंडा वर्गाकार था इसकी सतह लाल थी इसके चारों किनारों पर 108 ज्योतियां अंकित थीं। जिसके बाईं ओर बंगला अक्षरों में बंदे और दायीं ओर मातरम् अंकित था। इससे स्पष्ट होता है कि इस झंडे के निर्माण में सिस्टर ने पूरी हिंदू वादी संस्कृति का अनुगमन किया था और उसे हिंदुत्व का प्रतीक बनाकर पेश किया था। हिंदुत्व के अच्छे प्रस्तोता स्वामी विवेकानंद जी की शिष्या से ऐसी अपेक्षा किया जाना गलत भी नही था। इसके अलावा 1905 में लार्ड कर्जन द्वारा जब बंगाल का विभाजन किया गया तो उस समय ‘बंदे मातरम्’ हमारे लिए राष्ट्रीय नारा बन चुका था। इस विभाजन के विरोध में 7 अगस्त 1906 को कलकत्ता में पारसी बागान में एक रैली आयोजित की गयी, जिसमें पहली बार एक तिरंगा झंडा फहराया गया था। इस झंडे के निर्माण में शचीन्द्रनाथ बोस का विशेष दिमाग काम कर रहा था। उन्होंने यह कार्य अपने एक मित्र की सलाह से किया था। जिसने उनसे एक राष्ट्रीय झंडा बनाने की बात कही थी। इस झंडे में हरी, पीली और लाल तीन धारियां बनाई थीं। ऊपर की हरी धारी में आठ अर्ध पुष्पित कमल, बीच में पीली धारी में नीले रंग से बंदे मातरम तथा नीचे की लाल धारी में एक सूर्य और एक चंद्रमा (अद्र्घ चंद्र) की आकृति बनी थी। उन्होंने यह झंडा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को दिखाया जिन्होंने इसे कलकत्ता के इंडियन एसोसिएशन हॉल में कुछ आवश्यक संधोधनों के साथ पारित करा दिया। तब यह झंडा पहली बार राष्ट्रीय झंडे के रूप में 7 अगस्त 1906 को पारसी बागान में फहराया गया था। इस झंडे का पवित्रीकरण नरेन्द्रनाथ सेन ने किया और स्वामी विवेकानंद के छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त ने इसे सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को पेश किया। जिन्होंने 101 पटाखों की सलामी के बीच झंडा रोहण किया।

इसके बाद मैडम भीकाजी रूस्तम के. आर. कामा ने एक नया झंडा बनाने की बात सोची। इन्होंने 22 अगस्त 1907 को हरे, सुनहरे और लाल रंगों वाला एक तिरंगा झंडा फहरा दिया और कहा कि भारत की आजादी का झंडा है, इसने जन्म ले लिया है। शहीद युवाओं के रक्त ने इसे पवित्र किया है। मैं आप सभी महानुभावों से भारत की आजादी के इस झंडे का अभिवादन का करने का अनुरोध करती हूं। मैडम कॉमा ने यह झंडा जर्मनी के स्टुटगार्ट नगर में लहराया था। किसी अनतर्राष्ट्रीय संगठन में भारत का झंडा फहराने वाली वह पहली महिला/व्यक्ति थीं। इस झंडे का उन्होंने निर्माण साम्प्रदायिक आधार पर किया था। वास्तव में यहीं से हमारे झंडे की तस्वीर बदलनी शुरू हुई। हरे रंग को उन्होंने मुसलमानों के लिए तथा लाल रंग को हिंदुओं के लिए माना था। जबकि ब्रिटिश इंडिया के आठ प्रांतों का प्रतिनिधित्व करने के लिए झंडे में एक कतार में आठ कमल दिखाये गये थे। लेकिन फिर भी बीच में देवनागरी लिपि में बंदे मातरम छपा था। झंडे के मूल में कमल के फूल बनाये गये थे। नीचे की लाल पट्टी में एक तरफ सूर्य और ध्वज दंड के पास आधा चांद अंकित था।

यह झंडा देश में कुछ समय तक लहराया जाता रहा इसी समय सिखों का एक झंडा सतश्री अकाल के शब्दों के साथ अलग से प्रचलित था। गदर पार्टी ने भी तिरंगे को अमरीका में अपने राष्ट्रीय झंडे के रूप में मान्यता दी। लेकिन उसके झंडे में ऊपर से नीचे हरी, पीली और लाल धारियां थीं, बीच में आड़ी तिरछी दो तलवारें बनी थीं।

दिल्ली दरबार (1912) के समय जार्ज पंचम ने बंगाल के विभाजन का निर्णय निरस्त कर दिया। फलस्वरूप झंडे का अस्तित्व लोग भूलने लगे थे तब कांग्रेस ने फिर एक राष्ट्रीय झंडे की बात सोची। होमरूल आंदोलन के समय बाल गंगाधर तिलक और डा. एनीबीसेंट ने एक नया झंडा पेश किया, इसमें पांच लाल और चार हरी समतल पट्टिया थीं, जिसमें सात ऋषियों का प्रतिनिधित्व करने के लिए सात तारे बने थे, इसके बांयी ओर के चौथाई हिस्से में यूनियन जैक भी बना हुआ था। 1917 में डॉ. एनीबीसेंट की अध्यक्षता में संपन्न कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह झंडा फहराया गया था। इससे पहले अप्रैल 1912 में कांग्रेस ने अपनी ओर से एक अन्य झंडे को बनाने का प्रयास विजयवाड़ा सम्मेलन में किया था। इसमें लालरंग हिंदुओं का प्रतीक और हरा मुसलमानों का प्रतीक बनाकर एक चरखा अंकित करने की बात रखी गयी थी। यह झंडा गांधी जी के सामने प्रस्तुत किया गया उन्होंने अनुभव किया कि राष्ट्रीय झंडे में हिंदू और मुसलमानों में तथा अन्य धर्मावलंबियों को स्थान देने के लिए तीन रंग होने चाहिए। जिससे राष्ट्रीय एकता प्रकट हो। तब सफेद, हरा और लाल तीन रंग चुने गये। झंडे के निर्माता वैंकय्या को बुलाया गया और उनसे कहा कि एक झंडा बनाओ जिसमें सबसे ऊपर सफेद पट्टी बीच में हरी पट्टी और नीचे लाल पट्टी हो। बीच में चक्र हो जो सभी पट्टियों को ढकें। यह झंडा तैयार कर दिया गया, जो कांग्रेस का पहला झंडा बना। गांधी जी की सोच साम्प्रदायिक आधार पर झंडे का निर्माण कराने में सहायक हुई और बाद में जाकर यह हमारी एकता का नही बल्कि विखंडन का कारण बनी।

बाद में जब कांग्रेस को अपनी गलती का अहसास हुआ तो उसने 2 अप्रैल 1931 को अपनी करांची बैठक में एक झंडा समिति बनाई जिसमें डा. पट्टाभि सीतारमैया पं. जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभ पटेल, मौलाना आजाद, मा. तारा सिंह, डा. हार्डिकर और डीवी कालेलकर को रखा गया। इस समिति से 31 जुलाई 1931 तक अपनी रिपोर्ट देने को कहा गया था। तब नेहरू ने झंडे की साम्प्रदायिक व्याख्या को खत्म कराने का प्रयास किया और उन्होंने इसका दूसरा रूप कर दिया। इस समिति के द्वारा ही ऊपर सफेद की जगह केसरिया, बीच में सफेद और नीचे हरा रंग किया गया। 6 अगस्त 1931 को बंबई कांग्रेस में इस झंडे को मान्यता दी गयी। इसके बीच में चरखा रखा गया, इसमें कहा गया कि रंगों का कोई साम्प्रदायिक महत्व नही होगा भगवा साहस एवं त्याग का, सफेद और शांति और सत्य का, हरा आस्था व शौर्य का तथा चरखा जनता की आशा का प्रतिनिधित्व करेगा। ध्वज दंड से झंडे की दूसरी छोर का अनुपात 3 और 2 का होगा।

देश की आजादी के एकदम पहले हमारे तिरंगे में फिर परिवर्तन करना आवश्यक समझा गया। 14 जुलाई 1947 को वर्तमान झंडे का स्वरूप निश्चित किया गया। इसमें अशोक के सारनाथ स्तंभ की हू-ब-हू प्रतिकृति ली गयी। जिसे गहरे नीले रंग में बनाये जाने की संस्तुति 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा के समक्ष की गयी। जिसे संविधान सभा ने यथावत स्वीकार्य किया। लेकिन बहुत गहरा छल हमारे साथ हो गया कि राष्ट्रीय एकता और गौरव का प्रतीक बन चुका हमारा राष्ट्रीय उद्घोष बंदे मातरम् इस झंडे में कहीं नही था, जिसे विदेशी महिला भीकाजी कॉमा और उससे पहले सिस्टर निवेदिता ने तो स्थान दिया लेकिन हमारे नेताओं ने उसे गायब कर दिया…

अपनों के ही एहसां क्या कम हैं

गैरों से शिकायत क्या होगी?

तब से हम अपने इसी झंडे को लहराते आ रहे हैं। भारत के स्वाधीन होने के उपरांत दिल्ली के लालकिले पर भारत का तिरंगा पहली बार 16 अगस्त 1947 को (15 अगस्त 1947 को नहीं) पं. नेहरू के द्वारा फहराया गया था। उसके बाद दक्षिणी ध्रुव , अंटार्कटिका, चंद्रमा और हिमालय की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट सहित कितने ही स्थानों पर यह तिरंगा हमारे गौरव को अपने साथ लेकर पहुंचा है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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