डॉ राजेंद्र प्रसाद जब भारत के पहले राष्ट्रपति बने तो वह वास्तव में उस भारत के प्रतिनिधि थे जिस भारत को स्वतंत्र कराने के लिए देश ने लंबा संघर्ष किया था । वह संविधान सभा के अध्यक्ष भी थे। अपनी शानोशौकत के लिए प्रसिद्ध रहे देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की इच्छा नहीं थी कि डॉ राजेंद्र प्रसाद भारत के पहले राष्ट्रपति बनें । इसके उपरांत भी डॉ राजेंद्र प्रसाद 1950, 1952 और 1957 में निरन्तर तीन बार देश के राष्ट्रपति चुने गए । नेहरू राष्ट्रपति भवन में ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीने वाले किसी अपने जैसे व्यक्ति को ही देखना चाहते थे। भारत के प्रतिनिधि के रूप में अत्यंत सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद उनकी आंखों की किरकिरी थे।
पहली बार देश के राष्ट्रपति बनने में सफल रहे डॉ राजेंद्र बाबू को कांग्रेस के लोगों ने जब दोबारा राष्ट्रपति बनाने का अभियान चलाया तो नेहरू उस अभियान के भी समर्थक नहीं थे , वह अभी भी नहीं चाहते थे कि डॉ राजेंद्र बाबू को देश का राष्ट्रपति चुना जाए । नेहरू ने डॉक्टर राजेंद्र बाबू को राष्ट्रपति बनने से रोकने के लिए इस बार यह तर्क दिया कि एक बार राष्ट्रपति बनने के बाद किसी व्यक्ति को दोबारा यह अवसर नहीं मिलना चाहिए । यद्यपि वह इसी सिद्धांत को प्रधानमंत्री के पद पर लागू करने के समर्थक नहीं थे ।
डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को दूसरी बार राष्ट्रपति बनाने के लिए जब हस्ताक्षर अभियान चल रहा था, तब नेहरू उनसे मिलने पहुँचे। पंडित नेहरू ने डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को इस बार स्पष्ट शब्दों में कहा कि वह दोबारा राष्ट्रपति न बनें । डॉक्टर प्रसाद ने उन्हें किसी प्रकार का आश्वासन नहीं दिया। सारे वार्तालाप में डॉक्टर राजेंद्र बाबू चुप रहे। कांग्रेस की संसदीय समिति की बैठक हुई। इस बैठक में कांग्रेस की संसदीय समिति के 6 सदस्यों में से डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी होने का विरोध करने वाले केवल पंडित जवाहरलाल नेहरु ही थे । शेष सभी सदस्यों ने डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को दोबारा राष्ट्रपति बनाए जाने का समर्थन किया ।
यद्यपि मोरारजी देसाई भी नहीं चाहते थे कि डॉ राजेंद्र प्रसाद देश के दोबारा राष्ट्रपति बने परंतु बीमार होने के कारण वे उस बैठक में उपस्थित नहीं थे । आज तक देश के इतिहास में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के अतिरिक्त कोई व्यक्ति दूसरी बार राष्ट्रपति नहीं बन पाया। 1957 में जवाहरलाल नेहरू डॉ एस राधाकृष्णन को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे। इसी तरह वो 1952 में चक्रवर्ती राजगोपालचारी के पक्ष में थे। लेकिन उन्हें दोनों बार निराशा हाथ लगी। 1949 में जब देश के प्रथम राष्ट्रपति के लिए बातचीत आरम्भ हुई, तब नेहरू ने राजगोपालचारी के पक्ष में गोलबंदी शुरू की। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने एक वक्तव्य जारी कर जनता को प्रोपेगंडा से बचने की सलाह दी और कहा कि ‘राजाजी’ और उनके बीच राष्ट्रपति बनने के लिए कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं है
राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री के संकेत पर नचाने का संस्कार कांग्रेस ने नेहरू के समय में ही अपना लिया था । डॉ राजेंद्र प्रसाद नेहरू की इस इच्छा पर कभी खरे नहीं उतरने वाले थे । ऐसे में, नेहरू ने 1950 में देश के पहले राष्ट्रपति के चुनाव के समय प्रसाद को चिट्ठी लिखी कि वो इसके लिए राजाजी का नाम आगे करें। उन्होंने लिखा कि वल्लभभाई पटेल भी इसके लिए अपनी सहमति दे चुके हैं। डॉक्टर प्रसाद दुःखी हुए। वो इस बात से निराश हुए कि नेहरू उन्हें ‘आदेश’ दे रहे हैं। उनका मानना था कि वे तो इन सब में पड़ने के लिए तैयार ही नहीं थे , लेकिन जब उन्हें संविधान सभा का अध्यक्ष बनाया गया है तो उनकी विदाई भी सम्मानजनक ढंग से होनी चाहिए। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू और पटेल को एक लम्बा-चौड़ा पत्र भेजा।
लेकिन, यहाँ एक बात पता चलती है कि जवाहर लाल नेहरू ने झूठ बोला था। उन्होंने राजगोपालचारी को राष्ट्रपति बनाने के लिए सरदार पटेल की सहमति नहीं ली थी। नेहरू ने बिना पटेल की अनुमति के उनका नाम घसीट दिया था। डॉक्टर प्रसाद की चिट्ठी आने के बाद ये भेद खुला और पटेल इस बात से नाराज़ हुए कि नेहरू ने उनका नाम बिना पूछे प्रयोग किया। जब पोल खुल गई तो नेहरू ने डॉक्टर प्रसाद को फिर से पत्र लिख कर बताया कि उन्होंने उनसे जो कुछ भी कहा था, उसका पटेल से कुछ लेना-देना नहीं है। नेहरू ने लिखा कि उन्होंने पूरी तरह अपने बात सामने रखी थी। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि इसके लिए पटेल से उन्होंने कोई चर्चा नहीं की है।’
इस सन्दर्भ में भारत में हुए प्रथम चुनाव का किस्सा स्मरण हो रहा है, अर्थात नेहरू अपनी हठ पूरी करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार थे। रामपुर से नेहरू के प्रिय मौलाना अबुल कलाम आज़ाद मैदान में और आज़ाद के विरुद्ध थे, हिन्दू महासभा के विशन सेठ। विशन ने आज़ाद को 6000 वोटों से पराजित करना, नेहरू को रास नहीं आया। तुरंत, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लब पंत को फोन कर चुनाव परिणाम पलटने को कहा, परिणामस्वरूप पंत ने भी साम दाम दंड भेद अपनाकर विशन को उनके विजयी जलूस से अगवा करवाकर, मतगणना पर लाकर, उन्ही के सामने उनकी वोटें आज़ाद की वोटों में मिलवाकर लगभग 3000 वोटों से जितवा पार्लियामेंट पहुंचवा दिया। कहा जाए, नेहरू ने आने स्वार्थ के लिए लोकतन्त्र और मान-मर्यादा को तार-तार करने का कोई अवसर नहीं गंवाया।
नाराज़ डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को नेहरू ने माफ़ी माँगते हुए लिखा कि वे उनका पूरा सम्मान करते हैं और उनकी भावनाओं को चोट पहुँचाने का कोई इरादा नहीं था। नेहरू को यूके और अमेरिका के 6 दिनों के दौरे पर जाना था। वे चाहते थे कि उससे पहले राजाजी के पक्ष में निर्णय हो जाए, तो वह निश्चिंत होकर विदेश दौरे पर जा सकें। संविधान सभा की बैठक में जब उन्होंने ये बातें रखी, तो कई नेताओं ने इस पर आपत्ति जताई। कुछ ने तो इसका कड़ा विरोध किया। सभा का परिवेश इतना गर्म हो गया कि सरदार पटेल को मामला थामना पड़ा। उन्होंने शांति की अपील करते हुए कहा की कांग्रेस सदा की भांति इस बार भी मतभेदों से ऊपर उठ कर निर्णय लेगी।
सरदार पटेल ने तब तक डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को लेकर मन बना लिया था। डॉक्टर प्रसाद के राष्ट्रपति बनने से जुड़े एक सवाल के जवाब में पटेल ने कहा- “अगर दूल्हा पालकी छोड़ कर ना भागे तो शादी नक्की।” पटेल का इशारा था कि अगर डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ख़ुद से पीछे हट कर राजाजी के लिए रास्ता नहीं छोड़ते हैं तो उन्हें राष्ट्रपति बनने से कोई नहीं रोक सकता। वो इस तरह से डॉक्टर प्रसाद के सीधे-सादे व्यवहार का भी जिक्र कर रहे थे। चुनाव हुआ और डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को 5,07,400 वोट मिले। उनकी जीत पक्की जान कर कांग्रेस के 65 सांसदों और 479 विधायकों ने वोट देने की भी जहमत नहीं उठाई।
इसी तरह 1957 में नेहरू डॉ एस राधाकृष्णन के पक्ष में गोलबंदी कर रहे थे लेकिन कांग्रेस डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को लेकर एकमत थी। राधाकृष्णन ने उपराष्ट्रपति के रूप में त्यागपत्र देने का मन बना लिया था लेकिन उन्हें किसी तरह मनाया गया। नेहरू ने तब कहा था कि वे 1947 के बाद से अब तक इतने खिन्न नहीं थे, जितने अब हैं। नेहरू और डॉ प्रसाद के बीच हिन्दू कोड बिल को लेकर भी मतभेद थे। राजन बाबू हिन्दू कोड बिल के विरुद्ध थे। लेकिन संसद द्वारा तीन बार जब बिल को पारित कर दिया गया तो उन्हें संवैधानिक बाध्यता के चलते उस बिल पर हस्ताक्षर करने पड़े । पर राजन बाबू की बात आज चरितार्थ हो रही है , जब हिंदू समाज में भी विवाह को एक पवित्र संस्कार न मानकर एक संविदा मान लिया गया है और न्यायालयों में तलाकों के ढेर लग गए हैं। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने काशी में ब्राह्मणों के पाँव धोए थे। नेहरू ने इस पर आपत्ति जताई थी। नेहरू तो यह भी नहीं चाहते थे कि डॉक्टर प्रसाद सोमनाथ मंदिर का शिलान्यास करने जाएँ। परन्तु राजन बाबू नेहरू के विरोधों की चिंता ना कर सोमनाथ मन्दिर का शिलान्यास करने गए।
भारतीय संस्कृति प्रेमी डॉ राजेंद्र प्रसाद के जब अंतिम दिन आए तो नेहरू ने अपने कुटिलता का उस समय भी परिचय दिया । उन्होंने डॉ राजेंद्र प्रसाद को दिल्ली से निकालकर पटना एक छोटे से कमरे में ले जाकर डलवा दिया । वहीं पर सदाकत आश्रम के एक सीलन भरे कमरे में 28 फरवरी 1963 को हमारे देश के इस पहले राष्ट्रपति का जीवनान्त हुआ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत