ईश्वर सदा सर्वदा सबको प्राप्त है किंतु सदोष अंतः करण में उसकी प्रतीति नहीं होती
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
वैदिक सिद्धान्त है कि संसार में ईश्वर, जीव और प्रकृति तीन अनादि व नित्य सत्तायें हैं। यह तीनों सत्तायें सदा से हैं और सदा रहेंगी। इनका अभाव कभी नहीं होगा। वेद ईश्वरीय ज्ञान होने से स्वतः प्रमाण ग्रन्थ है। वेदों में ईश्वर को सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वातिसूक्ष्म, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, न्यायकारी, सबके कर्मों का फल प्रदाता, जीवात्माओं के जन्म व मरण की व्यवस्था करने वाला तथा वेदानुसार जीवन जीने वालों तथा योगाभ्यास से ईश्वर का साक्षात्कार करने वालों को मोक्ष दाता बताया गया है। ईश्वर के सभी गुणों व कार्यों का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में ही ईश्वर द्वारा ही वेदज्ञान देकर कराया गया है। वेद में वर्णित ज्ञान तर्क व युक्तिसंगत होने सहित सृष्टिक्रम के भी अनुकूल होने से सर्वथा है। वैदिक सिद्धान्तों से यह स्पष्ट होता है कि ईश्वर के सर्वातिसूक्ष्म, सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी होने से वह जीवात्मा और प्रकृति के भीतर भी विद्यमान व व्यापक है। ईश्वर व जीवात्मा का यह व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध काल से बाधित नहीं होता अर्थात् यह सदा-सर्वदा बना रहता है। ईश्वर जीवात्मा का यह व्याप्य-व्यापक संबंध अनादि से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। इसमें कभी व्यवधान नहीं होगा। इस सम्बन्ध के कारण ही ईश्वर हमारे रात्रि व दिन में किये सभी कर्मों व विचारों को भी यथावत् रूप में जानता है। इसका सरल भाषा में यदि अर्थ किया जाये तो ईश्वर सभी जीवों को, चाहें वह मनुष्यों व अन्य पशु, पक्षी आदि योनियों के जीव हैं, उनकी आत्मा के भीतर विद्यमान होने से सदा-सर्वदा प्राप्त रहता है। इस व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध में कभी भी पृथकता व दूरी नहीं होती।
हम सब मनुष्यों को यह जानना व समझना है कि ईश्वर हमारे प्रत्येक विचार व कर्म पर दृष्टि रखे हुए हैं। हम यदि कोई अच्छा या बुरा काम करेंगे तो इसका ज्ञान उसको तत्काल अवश्य होगा और उतना ही होगा जितना की कर्ता को होता है। ईश्वर का ज्ञान कत्र्ता के ज्ञान से न कम होगा न अधिक। हम यदि शुभ कर्म करेंगे तो हमें उसका सुख रूपी फल मिलेगा और यदि हम कोई अशुभ वा पाप कर्म करेंगे तो हमें उसका दुःख रूपी फल भी अवश्य मिलेगा। हम अपने किसी भी शुभ व अशुभ कर्म का फल भोगने से बच नहीं सकते। कोई महात्मा, धर्मगुरु, धर्माचार्य, किसी मत-पन्थ-सम्प्रदाय-रिलीजन-धर्म का आचार्य व अनुयायी हमें हमारे पापों के फल को क्षमा नहीं करा सकता। यदि कोई ऐसा कहता है कि वह ईश्वर से हमारे पाप कर्मों को क्षमा दिला देगा तो उसका ऐसा कहना असत्य एवं मिथ्या है। ऐसे लोगों के छल में नहीं फंसना चाहिये। ऐसा न कभी हुआ है और न कभी होगा। ईश्वर किसी मत के आचार्य से पूछ कर न्याय नहीं करता। वह अपने प्रत्यक्ष ज्ञान व अनुभव के अनुसार जीवों के कर्मों का यथावत् फल देता है। इसलिए समझदारी इसी बात में है कि हम कोई भी अशुभ कर्म न करें जिससे हमें किसी प्रकार का दुःख हो। यह भी स्पष्ट कर दें कि दूसरे प्राणियों को कष्ट देने से उन्हें दुःख होता है। यदि कोई किसी पशु की हत्या करता है या पशु का मांस खाता है तो यह अशुभ व घोर पाप कर्म है। ऐसे मनुष्य व कर्म के कत्र्ता को परजन्म में वैसे ही दुःखों से गुजरना पड़ता है जैसा दुःख उसके मांसाहार के कर्म के कारण किसी गाय, बकरी, भेड़, भैंस, बैल, मुर्गी, मुर्गा आदि पशु-पक्षियों को हुआ होता है। हम बहुत से बच्चों को जन्म से ही रोगी व अपंग शरीर वाला देखते हैं। इसका अनेक कारणों में प्रमुख कारण उनका पूर्वजन्म में दूसरे पशु-पक्षियों आदि जीवों को अकारण अपने भोजन के लिये दुःख देना व ऐसे ही अन्य कुछ कारण हुआ करते हैं।
सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर सभी जीवों वा मनुष्य आदि सभी प्राणियों को सदा-सर्वदा प्राप्त रहता है। इस कारण किसी को कभी भी भयभीत नहीं होना चाहिये। मनुष्य को नित्य-प्रति ईश्वर के निज व मुख्य नाम ‘ओ३म्’ अथवा गायत्री मन्त्र आदि का अर्थ सहित जप करना चाहिये। इससे हम ईश्वर की निकटता का अनुभव कर अभय हो सकते हैं। मनुष्य को भय तभी लगता है कि जब उसे किसी अन्य ज्ञात व अज्ञात प्राणी से अपने प्राणों व शरीर के किसी भाग की हानि होने का खतरा होता है। यदि हमें यह विश्वास हो जाये कि एक सर्वशक्तिमान सत्ता हमारे भीतर है जो हर क्षण व हर पल हमारी रक्षा कर रही है तो हम निर्भय हो सकते हैं। महापुरुषों के जीवनों में ईश्वर के प्रति उनका ऐसा विश्वास देखा जाता है। इसी कारण वह न केवल जीवन काल में अपितु अपनी मृत्यु के क्षणों में भी भयभीत नहीं होते। वह जानते हैं कि परमात्मा हमारे इस रोगयुक्त दुर्बल शरीर को बदल कर हमें नया शरीर व जीवन प्रदान करेंगे। इस तथ्य व रहस्य को जानकर वह अपनी मृत्यु की वेला में भी शान्त, निश्चिन्त व स्थिर रहा करते थे। यदि हम वेद व वैदिक साहित्य जिसमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय एवं आर्य विद्वानों के अनेक आध्यात्मिक ग्रन्थ सम्मिलित हैं, उनका नियमित अध्ययन करें और प्रतिदिन प्रातः व सायं ईश्वर का चिन्तन करते हुए उसका लम्बे समय तक ध्यान करें तो हम भी ईश्वर को प्राप्त होकर पूर्ण निर्भयता सहित स्वस्थ व सुदीर्घ जीवन व्यतीत कर सकते हैं।
ईश्वर हमें दिन के 24 घंटे एवं वर्ष के 365 दिन हर समय प्राप्त व उपलब्ध है परन्तु हमें उसकी प्रतीती नहीं होती है। ईश्वर की प्रतीती वा अनुभूति न होने का कारण क्या है? इसका उत्तर लेख के शीर्षक में ही दिया गया है कि सदोष वा दूषित अन्तःकरण में उसकी प्रतीती नहीं होती। सदोष का अर्थ दोषों से युक्त होना होता है। अन्तःकरण में मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार आते हैं। इन चारों को अन्तःकरण चतुष्टय कहते हैं। यदि हमारा अन्तःकरण शुद्ध होता है तो हमें ईश्वर की प्राप्ति व उसकी प्रतीती होती है और यदि अन्तःकरण शुद्ध न हो तो नहीं होती। हम ईश्वर की उपासना व ध्यान आदि के जो साधन करते हैं उनका उद्देश्य अन्तःकरण के सभी दोषों को दूर कर उन्हें पवित्र व शुद्ध करना होता है। जिस मनुष्य का अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है उसे ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार हो जाता है। ऋषि दयानन्द का जीवन हमारे सामने है। वह ईश्वर को प्राप्त साधक व उपासक थे। उनकी साधना का लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार पूरा हो चुका था। यही कारण था कि उन्होंने स्वयं तो ईश्वर की अनुभूति व प्रतीती की ही थी, साथ ही अपने शिष्यों व अनुयायियों को भी ईश्वर की अनुभूति कराई। अन्तःकरण की शुद्धि के लिये ही योगदर्शन में यम व नियम के पालन पर बल दिया गया है। यम व नियम के साथ आसन व प्राणायाम तथा धारणा व ध्यान को साधना भी शरीर को स्वस्थ रखने तथा ईश्वर को प्राप्त करने में लाभ देता है। यम व नियमों के पालन के साथ ही मनुस्मृति में कहे गये धर्म के 10 लक्षणों धृति, क्षमा, दम, अस्तेयं आदि का पालन भी आवश्यक है। यम व नियमों सहित धर्म के 10 लक्षणों के पालन से आत्मा व अन्तःकरण में शुद्धि एवं पवित्रता आकर विवेक ज्ञान की उन्नति होती है। इससे साधकों को अभीष्ट की प्राप्ति होती है।
ईश्वर की प्रतीती, अनुभूति और ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य है। इसको प्राप्त कर लेने पर कुछ भी प्राप्तव्य नहीं रहता। इसी के लिये वेद ज्ञान व ऋषियों के ग्रन्थ रचे गये हैं। इस स्थिति को प्राप्त होकर मनुष्य जन्म व मरण से छूट जाता है। वेदमन्त्र ‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्। तमेव विदित्वा अति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।।’ में कहा गया है वेदों का स्वाध्याय करने वाला ने केवल ईश्वर के सत्यस्वरूप को ज्ञान के स्तर पर जानता अपितु वह चिन्तन-मनन के द्वारा अपनी आत्मा में जगत के स्वामी परमेश्वर की उपस्थिति का अनुभव भी करता है। वेदाध्ययन व सन्ध्या-अग्निहोत्र सहित योग के अंगों को अपनाने से मनुष्य के अन्तःकरण के दोष पूरी तरह से दूर हो जाते हैं और वह ईश्वर को अपने अन्तःकरण व आत्मा सहित जगत में सभी प्राणियों में भी उसके सर्वव्यापक स्वरूप को अनुभव करता है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि ईश्वर हमें सदा-सर्वदा प्राप्त है। अपने अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर हम उसे प्राप्त कर सकते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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