——————————————–
अध्याय –14
पराजय और अपराजय की आंख मिचौनी
बहादुरशाह इस बात को लेकर बहुत दुखी था कि बंदा वीर बैरागी का सामना करने के लिए सारी मुगल शक्ति दुर्बल पड़ती जा रही थी। वह नहीं चाहता था कि बंदा बैरागी के नेतृत्व में हिंदू शक्ति भारतवर्ष में फिर से खड़ी हो और यहां से मुगलों को अपना बोरिया बिस्तर बांधना पड़े । जब उसने देखा कि उसके उत्साहित करने के उपरांत भी कोई मुगल बंदा वीर बैरागी का सामना करने को तत्पर नहीं है तो उसने असगर खान , समंद खान , असदुल्लाह खान तथा नूर खान को एक विशाल सेना का दायित्व सौंपकर बंदा वीर बैरागी का विनाश करने के लिए भेजा । बैरागी उस समय पर्वतों पर चला गया था। तरावड़ी नामक स्थान पर जाकर मुगलों की सेना ने अपना डेरा जमा दिया। यह बंदा बैरागी के लिए एक बड़ी चुनौती थी । इससे वह भाग नहीं सकता था। इस बार मुगलों की सेना भी लगभग एक लाख थी। जबकि बंदा बैरागी के पास अभी तक लगभग 20000 सैनिक ही एकत्र हो पाए थे ।
इस बार सरस्वती नदी के किनारे दोनों सेनाओं की मुठभेड़ हुई । सिक्खों ने युद्ध में एक बार पुनः अपना परंपरागत वीरतापूर्ण प्रदर्शन किया । इस बार सिक्खों का पासा उलटा पड़ चुका था । इस युद्ध में उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा। उन्होंने भागकर लोहगढ़ में शरण ली । सिक्खों की सेना जब भागने की स्थिति में आ चुकी थी , तभी वहां पर बैरागी आ पहुंचा ।कोट आबू के समीप दोनों सेनाओं में फिर भारी युद्ध हुआ । इस बार सिक्खों का मनोबल टूट चुका था । इसलिए बंदा बैरागी के आ जाने के उपरांत भी उनके मनोबल को वह इतना ऊंचा नहीं कर पाया कि वह सब मिलकर मुगलों की विशाल सेना का सामना कर सकते ।फलस्वरूप सिक्खों की पराजय हुई। पराजय इतनी भारी थी कि स्वयं बंदा बैरागी को भी अपने प्राण बचाने के लिए मैदान छोड़कर भागना पड़ा।
हम भारतीयों की एक सामान्य प्रवृत्ति है कि यदि हम खेल के मैदान में भी अपनी टीम को पिटते हुए देखें तो हम तुरंत अपने ही योद्धाओं के लिए अर्थात खिलाड़ियों के लिए अपशब्द बोलने लगते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि खेल तो खेल है और उसमें पराजय भी सम्भव है। क्षत्रियों के लिए युद्ध भी एक खेल है और जैसे खेल में पराजय संभव है वैसे ही युद्ध में पराजय भी संभव है । हमें यह नहीं मानना चाहिए कि यदि एक योद्धा एक युद्ध में हार गया तो वह सदा के लिए हार गया। इसके विपरीत हमें यह देखना चाहिए कि वह विभिन्न रणक्षेत्रों में कैसा प्रदर्शन करता रहा है ? और यदि देश , काल व परिस्थिति के अनुसार उसे मैदान छोड़ना पड़ा तो भी हम उसे उसकी रणनीति का एक आवश्यक अंग मानते हुए स्वीकार करें ।
जीवन के संगीत में ,
किंचित नहीं भयभीत मैं ,
जय मिले तो भी सही ,
पराजय मिले तो भी सही,
लौट कर मैं आऊंगा ,
ना पराजय से घबराऊँगा ,
जीत के दीये जलाना ,
मैं उचित नहीं मानता,
मैं पराजय को निचोड़ता हूँ ,
तूफानों का मुंह मोड़ता हूँ ,
पराजय के दिव्य घृत से ,
जीत के दीये जलाता हूं ।।
” युद्ध का मैदान छोड़ना ही नहीं है , चाहे प्राण चले जाएं ” — इस सोच ने हमारे अनेकों योद्धाओं को ” झूठी शान ” के नाम पर शहीद करा दिया । जबकि नीति यही कहती है कि यदि परिस्थितियां प्रतिकूल हैं तो मैदान छोड़ो और फिर वैसे ही नए खेल की तैयारी करो , जैसे कोई खिलाड़ी खेल के मैदान में परास्त होकर फिर अपने प्रतिद्वंद्वी को परास्त करने के लिए तैयारी करता है। इससे युद्ध की सतत परंपरा तो बनी ही रहती है , सफलता मिलने की संभावनाएं भी खोजी जाती रहती हैं। योद्धाओं का यही धर्म होता है कि वह शत्रु को परास्त करने और अपनी विजय सुनिश्चित करने के लिए सदा प्रयासरत रहें । वेद ‘ राष्ट्रम पिपृहि सौभगाय ‘ — ( अथर्ववेद ) जब हमारे लिए यह आदेश या संदेश देता है तो इसका अभिप्राय यही होता है कि हम राष्ट्र की उन्नति व प्रगति के लिए सदा संघर्षरत रहें , प्रयास करते रहें ।
बैरागी मुगल सेना के सामने भागे जा रहे थे और पीछे – पीछे मिर्जा बेग का पुत्र नवाब,बेग उनका पीछा कर रहा था । बड़ी विषमता में बैरागी फंस चुके थे। उनके साथी उनसे बहुत पीछे छूट चुके थे। जो शेष थे वह भी धीरे-धीरे छूटते जा रहे थे । बहुत दूर निकल जाने के उपरांत सूर्यास्त हो गया । घोड़ा भी बहुत थक चुका था । इसलिए उसने आगे बढ़ने से भी इनकार कर दिया । तब प्राण रक्षा के लिए बंदा बैरागी ने अपने उस घोड़े को भी छोड़ दिया और अकेला ही उस सुनसान जंगल में आगे बढ़ चला ।
शत्रु भी बैरागी का विनाश करने के लिए इतना अधिक व्यग्र था कि वह पीछे हटने का नाम नहीं ले रहा था । उसका उद्देश्य बंदा वीर बैरागी को किसी भी स्थिति में मिटा डालना था। अबसे पूर्व बंदा वीर बैरागी ने युद्ध में ऐसी विपरीत परिस्थितियों का न तो कभी सामना किया था और न ही कभी कल्पना की थी । जब बैरागी दूर जंगल में पहुंच गए तो उन्हें दूरजंगल में कहीं आग जलती हुई दिखाई दी । जिससे उन्हें कुछ ऐसा लगा कि यहां पर निश्चय ही कोई न कोई व्यक्ति होगा। तब वह उस आग की ओर बढ़ चले । आग से खेलने वाले को आज आग ही एक आश्रय दिखाई दे रही थी । जब वह उस आग के निकट पहुंचे तो उन्होंने देखा कि वहां पर एक बाग है । बाग के मालिक माली और मालिनी बैठे आग ताप रहे थे । उस दंपति को देखकर बैरागी को थोड़ी शांति प्राप्त हुई । उसे लगा कि उनके पास बैठकर भोजन – पानी की समस्या का भी समाधान हो जाएगा और संभवतः कुछ समय यहां रहकर आराम भी किया जा सकेगा । अपनी इसी सोच में फंसा बैरागी उस दंपति के पास जाकर बैठ गया ।
बैरागी को लगा था कि सम्भवतः शत्रु पीछे हट गया है। वास्तव में यह उनकी भूल थी । शत्रु पीछे नहीं हटा था । बैरागी जैसे ही वहां बैठे तो तुरंत उन्हें शत्रु के घोड़ों की टाप सुनाई दी । वह समझ गये कि शत्रु अभी पीछा कर रहा है । बैरागी ने विचार लिया कि यदि समय रहते सावधान नहीं हुआ गया तो परिणाम कुछ भी हो सकता है । परिणामस्वरूप वह जितनी शीघ्रता के साथ वहां बैठा था , उतनी ही फुर्ती से बैरागी ने नया निर्णय लेने में देर नहीं की । वह तुरंत उस दंपति के पास से उठ लिया । दंपति ने उसके पूछने पर उसे बताया कि पास में एक कुआं है , प्राण रक्षा के लिए आप उस में उतर सकते हैं।।।।
बैरागी जैसे ही उस कुएं में उतरा , तत्क्षण ही वहां पर आग ताप रहे माली दंपति के पास शत्रु आ धमका । उसने माली दम्पति से पूछा कि यहां पर कोई सैनिक तो नहीं आया था ? माली ने शरण में आए हुए बैरागी की सुरक्षा का ध्यान करते हुए बैरागी के उस शत्रु को भ्रमित करने का प्रयास किया । माली दंपति ने शरणागत की रक्षा को अपना धर्म माना और उस शत्रु को वहां से भगाने का प्रयास किया । माली दंपति के पास कोई हथियार नहीं था और न ही उन्हें युद्ध का कोई अनुभव था । फलस्वरूप वह अधिक देर तक शत्रु को भ्रमित नहीं कर सकता था । शत्रु ने जब माली दंपति से कठोरता के साथ अपने शत्रु के विषय में पूछा तो वह दंपति प्राणभय के कारण उसकी कठोरता का अधिक देर सामना नहीं कर पाया । माली व मालिन ने उसे बता दिया कि बैरागी कुआं में है ।
बैरागी भी दंपति माली और पीछे – पीछे आए हुए उस शत्रु के संवाद को सुनकर यह समझ गए थे कि शस्त्रविहीन और युद्ध का कोई अनुभव न रखने वाला यह दंपति अधिक देर तक शत्रु की कठोरता का सामना नहीं कर पाएगा । अतः लाभ इसी में है कि कुँए से भी बाहर निकला जाए । तब वह चुपके से उस कुएं से बाहर निकले और खेतों में दौड़ते हुए आगे की ओर बढ़ गए । बैरागी पूर्णतया थक चुके थे। उनके पांवों में घाव हो चुके थे । परंतु प्राण रक्षा के लिए चेतना पूरा साथ दे रही थी । कुछ आगे बढ़ने पर उसे एक झोपड़ी दिखाई दी । उस झोपड़ी में कोई भी व्यक्ति नहीं था । तब उसे उस झोपड़ी में रात व्यतीत करने का अच्छा अवसर प्राप्त हो गया । प्रातः काल होने पर झोपड़ी का स्वामी वहां पर उपस्थित हो गया । जब उसने वहां पर बैरागी जैसे विशालकाय योद्धा को देखा तो उसने सोचा कि यह निश्चय ही किसी युद्ध से भागा हुआ योद्धा है , जो यहां पर आकर छिप गया है । उसने भविष्य की किसी भी आपत्ति से बचने के लिए और अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने के लिए बैरागी को देखकर शोर मचाना आरंभ कर दिया। इस पर बैरागी ने उससे शांत रहने का अनुरोध भी किया। किंतु झोपड़ी का स्वामी था कि शोर मचाए जा रहा था
, तब आत्मरक्षा के उद्देश्य से बैरागी ने उस व्यक्ति का वहीं पर प्राणांत कर दिया।
समय परिस्थिति देखकर , दिया मार किसान ।
सयाने लोग कहते सही , समय बड़ा बलवान ।।
अब बैरागी ने भी उस व्यक्ति का वध करने के उपरांत वहां से प्रस्थान कर दिया । वह सीधे लोहगढ़ जा पहुंचा । जैसे ही बैरागी लोहगढ़ पहुंचा वहां पर उसका पीछा करती हुई शाही सेना भी जा पहुंची। इस सेना में शाहजादा जहांदारशाह भी सम्मिलित था । सिख उस समय शक्तिहीन हो चुके थे और युद्ध में मिले पराजय के घावों को सहला रहे थे। उन्हें नई परिस्थिति का भान नहीं था । सिख और बंदा बैरागी को इस समय संभलने के लिए कुछ समय लेने की आवश्यकता थी । परंतु सभी कुछ मनुष्य के अपने हाथ में नहीं होता । वह जैसा चाहता है , वैसा ही हो – यह सदा संभव नहीं है । परिस्थितियां उन्हें युद्ध के निकट ले जा रही थीं । शाहाबाद के निकट शाही सेना का सिक्खों से फिर एक भयंकर युद्ध हुआ । उसी समय कुछ राजपूतों ने अपने इस योद्धा का साथ न देकर शाही सेना का साथ दिया । यदि ये राजपूत लोग उस समय देशभक्ति का परिचय देते हुए बंदा बैरागी की सेना का साथ देते तो परिणाम आशानुकूल आ सकता था । शहजादा जहांदारशाह ने अपनी सेना को लोहगढ़ का घेरा डालने का आदेश दिया।
लगभग एक माह तक जहांदारशाह की यह सेना लोहगढ़ का घेरा डाले रही । सिक्ख युद्ध से पहले ही निराश थे ।अब इतने लंबे घेरे से वे और भी दुखी हो चुके थे । उनके पास किले के भीतर भोजन सामग्री भी अब समाप्त होने लगी थी । जिससे वह और भी अधिक दुखी थे । यद्यपि बैरागी उनका उत्साहवर्धन करने के लिए अच्छे ओजस्वी भाषण उनके समक्ष देता रहा। परंतु ‘ भूखे भजन न होय गोपाला ” — वाली कहावत सैनिकों पर उस समय लागू हो रही थी। भूख से तड़पते हुए सैनिकों में से कुछ सैनिकों ने मुसलमानी वेश धारण कर बाहर से खाने-पीने की सामग्री का प्रबंध करने में सफलता प्राप्त की। पर यह भी कब तक चल सकता था ? सिक्खों के भीतर भी यह भावना व्याप्त थी कि बैरागी के पास निश्चय ही कुछ ऐसी अदृश्य दैवीय शक्तियां हैं जो उसे कभी भी परास्त नहीं होने देतीं । उनकी इस प्रकार की धारणा को उस समय ठेस पहुंची जब उन्होंने देखा कि न केवल बैरागी युद्ध में परास्त हुआ है ,अपितु उनकी समस्याओं का , भूख प्यास का और आपत्तियों का कोई निराकरण करने में भी वह असफल रहा है ।
यही कारण रहा कि अब सिक्ख सैनिक अपने बंदा बैरागी को ही अपशब्द बोलने लगे थे। जब अपने सिक्ख सैनिकों की ऐसी मानसिकता का आभास बंदा बैरागी को हुआ तो उसने भी निर्णय ले लिया कि अब परिणाम चाहे जो हो , शाही सेना का सामना करना ही उचित है।
कहते हैं कि एक दिन रात में बंदा बैरागी उठा और उसने शाही सेना पर अचानक हमला बोल दिया । शही सेना अभी संभल भी नहीं पाई थी कि बड़ा भयंकर युद्ध आरंभ हो गया । यह चमकौर के युद्ध के नाम से सिक्ख इतिहास में जाना जाता है । बैरागी ने सिक्खों को युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए बड़ा ओजस्वी भाषण दिया । गुरु पुत्रों की वीरता का स्मरण करने के लिए अपने सिक्ख सैनिकों को प्रेरित करने का प्रयास किया । सिक्खोंआ ने भी अपनी वीरता के प्रदर्शन में किसी प्रकार की न्यूनता या प्रमाद का प्रदर्शन करना उचित नहीं माना । जितने उच्चतम बलिदानी भाव से वह युद्ध कर सकते थे ,उन्होंने करने का प्रयास किया , परंतु परिस्थितियां अभी भी उनके अनुकूल नहीं होना चाहती थीं ।
शाही सेना को कुछ हमारे गद्दारों के माध्यम से तो कुछ अपने स्रोतों के माध्यम से बाहरी सहायता मिलना संभव हो पा रहा था । जबकि हमारे वीर योद्धाओं के लिए कोई बाहरी शक्ति या सहायता उन तक नहीं पहुंच पा रही थी । बैरागी ने इस अवसर पर अपने जैसे एक गुलाब नामक पुरुष को अपने स्थान पर रख लिया था । मुसलमान इतिहास लेखक ने लिखा है कि उस व्यक्ति को अपने स्थान पर छोड़ बैरागी स्वयं किसी प्रकार वहां से निकल कर पर्वतों की ओर चले गए । कुछ समय पश्चात जब गुलाब पकड़ा गया तो पता चला कि बंदा बैरागी वहां से पहले ही निकल भागने में सफल हो गए थे । खानखाना ने बादशाह को यह शुभ समाचार लिखा कि वैरागी पकड़ा गया ।
इस शुभ समाचार को पाकर बादशाह भी बहुत प्रसन्न हुआ । यद्यपि कालांतर में जब उसे सच्चाई का भेद पता चला तो उसने खानखाना को बहुत कड़े शब्दों में फटकार लगाई । कहते हैं कि इसके पश्चात बहादुरशाह स्वयं बैरागी के विरुद्ध सेना लेकर आया और हैदरी पताका लेकर युद्ध की घोषणा कर दी । इसके उपरांत भी बादशाह भीतर से भयभीत था । उसने बंदा बैरागी के अनेकों ऐसे भी वीरतापूर्ण किस्से सुन रखे थे, जिनसे उसकी अद्वितीय यौद्धेय शक्ति का पता चलता है । अब भी बादशाह को यह भय था कि यदि बंदा बैरागी आग का गोला बनकर उसके लिए टूट पड़ा तो क्या होगा ? यही कारण रहा कि बादशाह ने बैरागी को संधि के लिए पत्र लिखा । परंतु लाहौर पहुंचकर बादशाह किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त हो गया । जिस कारण वह सन 1713 में मृत्यु को प्राप्त हो गया ।
बादशाह की मृत्यु होने के उपरांत मुगलों में सत्ता संघर्ष आरंभ हो गया । यह उनका परंपरागत एक खेल था जो हर मुगल बादशाह के परलोक जाने के पश्चात प्रारंभ हो जाया करता था । इस बार भी यही हुआ । इस बार का सत्ता संघर्ष कुछ अधिक देर तक चला । जिससे मुगलों की शक्ति क्षीण हुई और इस काल में सिक्खों को अपनी शक्ति संचय करने का स्वर्णिम अवसर उपलब्ध हो गया। उस समय सिक्खों ने अपने आपको फिर सशक्त करने में सफलता प्राप्त की । अब देश में मुस्लिम और हिंदू शक्ति के नाम से दो शक्तियां खड़ी हो गईं । सिक्ख निश्चित रूप से हिंदू शक्ति का प्रतीक बन चुके थे और उनका नायक बंदा बैरागी था । अब मराठों की भांति सिक्खों ने भी गुरिल्ला युद्ध करना आरंभ कर दिया था। उन्होंने मराठों की सफलता को बारीकी से देखा , समझा और फिर उसके अनुसार आचरण करना अपनी रणनीति का एक आवश्यक अंग बना लिया । फलस्वरूप मुगल शासक जहां अभी तक मराठों के गुरिल्ला युद्ध से दुखी रहते थे , अब वह सिक्खों के गुरिल्ला युद्ध से भी दुखी रहने लगे । गुरिल्ला युद्ध वास्तव में एक ऐसा युद्ध होता है जो अंतहीन होता है। इसमें शासक की शक्तियों का क्षय होता रहता है और गुरिल्ला युद्ध करने वाले लोग पराजित नहीं हो पाते । सिक्ख सैनिक भी अब मुगलों की सेना पर अचानक टूट पड़ते और उन्हें लूट पीटकर जंगलों में भाग जाते थे।
बादशाह की मृत्यु होने पर बंदा बैरागी ने फिर पंजाब में भ्रमण करना आरंभ कर दिया । उसकी योजना थी कि फिर अपने सभी सरदारों को सशक्त कर दिया जाए । यही कारण था कि वह जहां भी जाता था वहीं अपने लोगों को मजबूती देने के उद्देश्य कुछ सेना वहां पर छोड़ता जाता था । बहुत शीघ्र इसने हरिद्वार तक के क्षेत्र पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया । जिससे हिंदू समाज के लोगों में फिर एक नई जागृति का संचार हो गया । जबकि मुस्लिमों के अत्याचारों पर एक बार फिर प्रतिबंध लग गया । सब स्थानों पर बंदा बैरागी का वर्चस्व स्थापित हो गया । उसने फिर अपने सिख सरदारों को राज्य का प्रबंध सौंप दिया और स्वयं पर्वतों की ओर चला गया । उस समय का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह था कि जैसे ही बंदा बैरागी दृश्य पटल से ओझल होता था वैसे ही मुस्लिम सरदार अपनी सक्रियता और अत्याचारों को बढ़ा देते थे। बंदा बैरागी की अनुपस्थिति में सिक्ख सरदार उतनी मजबूती से शासन नहीं कर पाते थे , जितनी मजबूती की उस समय अपेक्षा थी । वह लोग कहीं ना कहीं दुर्बल सिद्ध होते थे ।
उत्थान पतन है नियम प्रकृति का शाश्वत चलता रहता है ।
आत्मशक्ति युक्त मानव ही पतन के गर्त से बचता रहता है ।।
मन ,वचन और कर्म की उच्चता मानव को उन्नत करती है ।
पथभ्रष्ट धर्म भ्रष्ट मानव का असफलता ही वरण करती है ।।
यही कारण था कि बंदा बैरागी की अनुपस्थिति में मुसलमान सिर उठाने लगते थे और हिंदुओं को फिर उत्पीड़ित करने लगते थे । सिक्ख इन मुसलमानों का कई स्थानों पर सामना नहीं कर पाते थे । इस बार भी ऐसा ही हुआ । बंदा बैरागी के वहां से हट जाने के पश्चात मुसलमान सैनिक हमारे हिंदू लोगों पर फिर अत्याचार करने लगे । उनके अत्याचारों का क्रम बढ़ता ही जा रहा था । हिंदू लोगों की पुनः यह इच्छा बलवती हो उठी कि उनके संकटों का हरण करने वाला बैरागी कहीं से प्रकट हो तो काम चले। एक वर्ष पश्चात बैरागी फिर करतारपुर पहुंचा । उसने सरहिंद पर आक्रमण किया और वहां के मुस्लिम सरदार को परास्त किया ।अमीन खान ने बैरागी की अधीनता स्वीकार कर ली । जालंधर के जागीरदार फैज अली खान और सैफुल्लाह खान ने कभी गुरु गोविंदसिंह के साथ अत्याचार किए थे , जिस कारण उनके अत्याचारों का प्रतिशोध लेने के उद्देश्य से बंदा बैरागी ने उनकी आधी जागीर जब्त कर ली ।
इस प्रकार इस संक्षिप्त से काल में बंदा बैरागी के जीवन में सफलता , असफलता , पराजय और अपराजय की आंख मिचौनी चलती रही। यद्यपि इन सब के उपरांत भी उसका साहस , वीरता , पराक्रम , और शौर्य सब उसका साथ देते रहे । अतः वह हिंदू राष्ट्र निर्माण के अपने संकल्प को क्रियान्वित करने के अपने महान उद्देश्य के प्रति समर्पित होकर कार्य करता रहा।
( मेरी यह पुस्तक सुप्रसिद्ध प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली से शीघ्र प्रकाशित हो रही है । )
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक ; उगता भारत