सरकारी स्तर पर भारत में ‘ संविधान दिवस ‘ मनाने की परंपरा मोदी सरकार के सत्ता संभालने के पश्चात 2015 से प्रारंभ की गई । इससे पूर्व संविधान दिवस के रूप में 26 नवंबर को कुछ अंबेडकरवादी और बहुत मनाते आ रहे थे । इस बार के संविधान दिवस पर संविधान की अस्मिता और संविधान के सम्मान को हम महाराष्ट्र में नीलाम होते देख रहे हैं । जहां हर पार्टी सत्ता प्राप्ति के लिए संविधान की मान मर्यादा व सम्मान का ध्यान किए बिना अपने सत्ता स्वार्थों को साधने की ओच्छी राजनीति में संलिप्त दिखाई दे रही हैं । इस प्रांत में प्रत्येक राजनीतिक दल या सत्ता प्राप्ति के लिए बने ‘ राजनीतिक ठगबंधन ‘ का एक ही नारा है कि यदि वह सत्ता में आ जाते हैं तो महाराष्ट्र की जनता के अनुकूल संविधान की और लोकतंत्र की रक्षा हो पाएगी और यदि दूसरी पार्टी या ‘ ठगबंधन ‘ सत्ता में आता है तो लोकतंत्र की हत्या हो जाएगी ?
यद्यपि महाराष्ट्र के मतदाताओं ने भाजपा और शिवसेना को सत्ता के लिए मत दिया था । वहां के मतदाताओं ने देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में आस्था व्यक्त करते हुए उन्हें मुख्यमंत्री के लिए भी अनुमति प्रदान की थी । इस दृष्टिकोण से महाराष्ट्र के मतदाताओं के साथ छल करने वाली शिवसेना ही सिद्ध होती है । अब यदि वहां पर लोकतंत्र और संविधान की आत्मा की हत्या होती है या कुछ भी ऐसा होता है जो भारत की राजनीतिक परंपराओं और मर्यादाओं के विपरीत हो या महाराष्ट्र के मतदाताओं की भावनाओं के विपरीत हो तो वह शिवसेना द्वारा सत्ता स्वार्थ के लिए बनाए गए किसी ‘ ठगबंधन ‘ की राजनीतिक नौटंकी का ही परिणाम होगा ।
अच्छी और सही बात तो यही है यदि शिवसेना को मुख्यमंत्री पद चाहिए या भाजपा को शिवसेना का साथ छोड़ने के बाद भी सत्ता चाहिए या एनसीपी और कांग्रेस को भी सत्ता में किसी प्रकार की भागीदारी चाहिए तो इसके लिए किसी सर्वोच्च न्यायालय या संसद से अनुमति लेने के स्थान पर सीधे मतदाताओं से अनुमति ली जाए , अर्थात वहां पर दोबारा चुनाव कराए जाएं और वास्तविक अर्थों में राजनीतिक गठबंधन बनाकर या स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ कर सत्ता के लिए एक संवैधानिक , नैतिक और मर्यादित रास्ता अपनाया जाए । हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि लोकतंत्र में संख्या बल की महत्ता को स्वीकार करने के उपरांत भी संख्याबल के पीछे नैतिक बल का होना अनिवार्य है , जो इस समय महाराष्ट्र में किसी भी राजनीतिक पार्टी या ‘ ठगबंधन ‘ के पास नहीं है । जब राजनीति संख्या बल से अनुशासित होने लगती है तो समझो कि तब वह भीड़तंत्र को प्रोत्साहित करती है और जब तक वह नैतिक बल से अनुशासित और मर्यादित रहती है तो समझना चाहिए कि तब वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है और राष्ट्र को सही दिशा देती है । यदि यह तत्व इस समय भारतीय राजनीति से या राजनीतिक लोगों में मर गया है तो समझना चाहिए कि हम किसी अंधेरी सुरंग की ओर बढ़ रहे हैं।
प्राचीन काल में भारत के पास वेद का नैतिक संविधान हुआ करता था । जिसके आधार पर दीर्घकाल तक पृथ्वी पर शासन होता रहा । इसे ही लोग धर्म का शासन कहते थे । धर्म अर्थात नैतिकता का शासन , नैतिकता का शासन अर्थात एक ऐसा शासन जिसमें दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण करना पाप माना जाता है । इस व्यवस्था को धीरे-धीरे घुन लगने लगा तो फिर राज्य की आवश्यकता अनुभव हुई । तब महर्षि मनु ने मनुस्मृति लिखकर आदि संविधान प्रदान किया । जिससे भारत ही नहीं अपितु भूमंडल के अनेकों देश दीर्घकाल तक शासित , अनुशासित और मर्यादित बने रहे । महर्षि मनु के संविधान के पवित्रता का सामना आज के विश्व का कोई भी संविधान नहीं कर सकता।
संविधान राजनीतिक प्रक्रियाओं, सिद्धांतों और सरकार की शक्तियों के लिए रूपरेखा और दिशानिर्देश प्रदान करता है। भारतवर्ष के संविधान में 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं । इस प्रकार यह संसार भर में सबसे लंबा संविधान बनाता है। 15 अगस्त 1947 को भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र बना , तब संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा का गठन किया गया जिसकी पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को दिल्ली में हुई । इसके पहले अध्यक्ष डॉ सच्चिदानंद सिन्हा बनाए गए । 2 दिन बाद डॉ राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभा का विधिवत अध्यक्ष चुना गया । इस संविधान सभा के कुल 289 सदस्य थे । इस संविधान सभा के प्रत्येक सदस्य ने अपने विवेक और ज्ञान का प्रयोग करते हुए संविधान के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया । इस प्रकार किसी एक व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज हमारा संविधान नहीं था । जैसा कि प्रचार-प्रसार करने का प्रयास किया गया है ।
इस संविधान सभा ने 2 वर्ष 11 महीने और 18 दिन में संविधान बना कर तैयार किया । जो 26 नवंबर 1949 को पूर्ण हुआ ।परंतु इसे 26 जनवरी 1950 से लागू किया गया । 24 जनवरी 1950 को हमारी संविधान सभा के 284 सदस्यों ने इस संविधान पर अपने हस्ताक्षर किए । इससे भी पता चलता है कि इस संविधान के निर्माण में हस्ताक्षर करने वाले सभी सदस्यों का अपना-अपना योगदान था।
भारत का संविधान लोगों की संप्रभुता का द्योतक है। इसके रहते हमें इस बात का आभास और बोध होता है कि हम विश्व में एक संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र हैं और अब हम किसी भी विदेशी सत्ता के अधीन नहीं हैं । 26 नवंबर, 1949 को, संविधान सभा ने अपनी अंतिम बैठक आहूत की थी और जोर से व लंबे समय तक चीयर्स करने और मेजों को थपथपाने के पश्चात संविधान के पारित होने की सभी सदस्यों ने एक दूसरे को शुभकामनाएं दी थीं।
स्वतंत्रता के उपरांत तुष्टीकरण इस देश की राजनीति का एक अनिवार्य अंग बन गया । जिसके चलते बहुत कम लोग यह जानते हैं कि भारत के मूल संविधान को हिंदी और अंग्रेजी भाषा में प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने लिखा था। इसके हर पेज को बेहद कठिन और इटैलिक धाराप्रवाह में लिखा गया ।
संविधान का प्रारूप तैयार करने वाली समिति हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में हस्तलिखित और कॉलीग्राफ्ड थी। ध्यान देने योग्य तथ्य है कि संविधान लिखते समय किसी भी तरह की टाइपिंग या प्रिंट का प्रयोग नहीं किया गया था।
भारत के संविधान को बनाते समय विश्व के कई अन्य देशों के संविधानों का अध्ययन किया गया । उनके आवश्यक अनुच्छेदों / धाराओं या आवश्यक प्राविधानों को इस संविधान में सम्मिलित किया गया। यही कारण है कि इस संविधान की आलोचना करने वाले विद्वानों का कहना है कि यह संविधान भारत की आत्मा के अनुकूल नहीं है ।क्योंकि यह विदेशी संविधानों से चोरी कर करके लिए गए प्रावधानों का को संहिताबद्ध करने का प्रयास मात्र है।
अब जब महाराष्ट्र में हमारे सभी राजनीतिक दल मिलकर लोकतंत्र की द्रोपदी का चीरहरण कर रहे हैं तो उस स्थिति को यह संविधान मौन रहकर क्यों देख रहा है ? ऐसी स्थिति में राजनीतिक लोगों को दंडित करने या मर्यादित कर सीधे रास्ते पर लाने के लिए इसके पास कोई प्रावधान क्यों नहीं है ? – आज संविधान दिवस के अवसर पर यह प्रश्न बहुत अधिक विचारणीय हो चुका है ? अब कानून बनना ही चाहिए कि किसी भी ‘ ठगबंधन ‘ को देश को ठगने और देश के लोकतंत्र और संविधान की हत्या करने का अधिकार नहीं दिया जाएगा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत