विश्व गुरु के रूप में भारत खोदता था आकाश में कुंआ
तालाबों को प्राचीन काल में हमारे पूर्वज लोग बड़ा स्वच्छ रखा करते थे। पर आजकल तो इनमें कूड़ा कचरा और गंदी नालियों का गंदा पानी भरा जाता है। यही स्थिति नदियों की है। जो वस्तु हमारे जीवन का उद्घार करने में सहायक थी उन्हें ही हमने अपने लिए विनाश का कारण बना लिया है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि जैसे पृथिवीस्थ जलों को ऊपर लाने के लिए हम पृथिवी को खोदते हैं उसी प्रकार अंतरिक्षस्थ जल को नीचे लाने के लिए आकाश में भी यज्ञ क्रिया के माध्यम से किसी स्थान विशेष पर खनन क्रिया करनी पड़ती है अर्थात् आकाश में भी कुआं खोदना पड़ता है।
यह क्रिया पूर्णत: वैज्ञानिक है जिसे सारे विश्व के वैज्ञानिकों को भारत से सीखकर उस पर ठोस कार्य करना होगा। यजुर्वेद (2/22) में कहा गया है-”हे मनुष्यो! तुम जब हवन करने योग्य द्रव्य को होम करने योग्य घी आदि सुगंधयुक्त पदार्थ से संयुक्त करके हवन करोगे तब वह बारह महीनों अग्नि आदि आठों निवास के स्थानों और वायु के साथ अच्छी प्रकार क्रिया करता है। उनमें प्रकट होता है। जो यज्ञ में छोड़ा हुआ उत्तम क्रिया सुगंध्यादि पदार्थ युक्त हवि है वह सूर्य लोक को पहुंचता है, और उससे अच्छी प्रकार मिश्रित होकर विविध शक्तियों के साथ अंतरिक्ष से भी ऊपर का जो दिव्य नभोमण्डल है, उसको अच्छी प्रकार क्रियाशील करता है। इस क्रियाशीलता से दिव्य नभोमण्डल के जलों की वर्षा होती है।
इस विज्ञान की प्रक्रिया पर सारे विश्व समुदाय को आज एकमत होकर कार्य करने की आवश्यकता है। उपाय विश्वगुरू भारत के पास उपलब्ध है पर अपने सभी स्वार्थों और पूर्वाग्रहों को छोडक़र उस उपाय को अपनाना तो विश्व के देशों को ही पड़ेगा। विश्व के कई देश अपने मजहबी पूर्वाग्रहों के कारण भारत के वैदिक विज्ञान को मानने को तैयार नहीं होते। ‘वैदिक संपदा’ के लेखक श्री वीरसेन वेदश्रमीजी का पुरूषार्थ इस दिशा में संसार का विशेष मार्गदर्शन कर सकता है। जिन्होंने इस विषय में उक्त पुस्तक में पर्याप्त प्रकाश डाला है।
करना होगा महान पुरूषार्थ
विश्वगुरू भारत को लेकर जितना लिखा जाए उतना कम ही होगा। इसके वेद, उपनिषद, स्मृतियां, रामायण, महाभारतादि ग्रन्थों में ज्ञान विज्ञान का इतना खजाना छिपा पड़ा है कि उसे पाकर किसी भी राष्ट्र को अपने आप पर गर्व की अनुभूति हो सकती है। भारत के विषय में जहां यह तथ्य सत्य है कि उसके अतीत पर हम सबको गर्व करने का अधिकार है, वहीं यह भी सत्य है कि यही देश सारी मानवता का झूला रहा है, इसने ही संपूर्ण भूमंडल को नैतिक व्यवस्था दी और यह भी सत्य है कि जब इसने अपने ज्ञान-विज्ञान के प्रति आलस्य, प्रमाद और शिथिलता का प्रदर्शन किया तो यह अपने विश्वगुरू होने के सम्मान की रक्षा नहीं कर पाया। इसकी संकीर्णता और शिथिलता के कारण संपूर्ण संसार में विखण्डनवाद और विघटन की प्रक्रिया चल पड़ी। जिससे राजनीतिक अस्थिरता से विश्व को दो चार होना पड़ा और अनेकों देशों और अनेकों संस्कृतियों का निर्माण होने लगा। अनेकों धर्म (सम्प्रदाय) उत्पन्न हुए और फिर उन्होंने एक दूसरे पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की ऐसी घृणास्पद प्रतियोगिता का आयोजन किया कि विश्व को अनेकों युद्घों का सामना करना पड़ा, जिससे मानवता पूर्णत: घायल होकर रह गयी।
इस प्रकार भारत का अपने ज्ञान-विज्ञान के प्रति शिथिल होना भारत के साथ-साथ विश्व के लिए भी महंगा पड़ा। भारत भी अनेकों सामाजिक धार्मिक व राजनीतिक दुर्बलताओं का शिकार हो गया। यहां पर नारी पर अत्याचार, शूद्रों के साथ अमानवीयता, बाल विवाह, विधवाओं के साथ क्रूरता, अशिक्षा अज्ञान आदि ऐसी सामाजिक कुरीतियां फैलीं कि जो देश भारत से शिक्षा लिया करते थे- वही भारत को अक्ल सिखाने लगे।
इन कुरीतियों ने भारत विरोधियों को भारत के विषय में यह दुष्प्रचार करने का अवसर प्रदान किया कि भारत तो सदा से ही मूर्खों, अनाडिय़ों और अज्ञानियों का देश रहा है। कुछ अतिवादियों ने और भी आगे जाकर अपनी-अपनी मान्यताएं स्थापित कर दीं और उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि भारत में ज्ञान का सूर्य पश्चिम से निकला है। जब तक भारत पश्चिम के संपर्क में नहीं आया था-तब तक यहां कुछ भी नहीं था। सारा ज्ञान-विज्ञान हमें पश्चिम से मिला है-इसलिए पश्चिम के सूर्य के सामने शीश झुकाओ। यह भी कहा गया कि मुगलों के आने से पूर्व इस देश में स्थापत्य कला नहीं थी, और यूनानियों के आने से पहले ये नहीं था या वह नहीं था आदि।
इस प्रकार के आत्मघाती प्रचार का प्रभाव यह हुआ कि आज की पीढ़ी भारत के विषय में बहुत कम जानती है और दु:खद तथ्य यह है कि कई युवा तो यह भी कहने लगे हैं कि भारत से अंग्रेजों को जाना नहीं चाहिए था। यदि वह भारत में स्थायी रूप से बने रहते तो यह भारत के हित में होता। उनकी ऐसी राष्ट्रविरोधी सोच के कारण देश में पश्चिमी संस्कृति और पश्चिमी धर्म को फैलने का अवसर मिला है। धर्म निरपेक्षता की थोथी और आत्मघाती नीति के कारण अपने विषय में जानना और अपने गौरवपूर्ण अतीत को खोजना या उस पर कुछ बोलना एक पाप मान लिया गया है। लोग ऐसी सोच को साम्प्रदायिकता मानते हैं और एक धर्मनिरपेक्ष देश के लिए इसे अनुपयुक्त मानते हैं। जबकि उन्हें पता होना चाहिए कि एक धर्मनिरपेक्ष या सैक्युलर देश में ही अपने अतीत पर अनुसन्धान करने की सबसे अधिक संभावनाएं हुआ करती हैं। भारत ने अपना पंथनिरपेक्ष राजनीतिक स्वरूप बनाकर स्वतंत्रता के पश्चात जिस मार्ग का अनुसरण किया उसी में यह संभव था कि हम अपने गौरवपूर्ण अतीत को खोजते और उसके अनमोल हीरे -मोतियों से संसार को समृद्घ करते।
हम अपने विषय में जितने प्रमादी और आलसी होते गये उतनी ही भारत विरोधी शक्तियां आगे बढ़ती गयीं और वे हर क्षेत्र में भारत को दुर्बल करती गयीं। पिछले 70 वर्षों में हमने अपने ही विषय में बहुत कुछ खोया है। इससे भारत के संविधान का धर्मनिरपेक्ष चेहरा लोगों के लिए आजकल आलोचना का पात्र बन रहा है। अब बड़ी तेजी से धर्मनिरपेक्षता की पुन: परिभाषा करने की मांग उठने लगी है। लोगों में जागृति आ रही है और उन्हें यह पता चल रहा है कि कहीं न कहीं गम्भीर चूक हो गयी है। यही कारण है कि आज के भारत में युवा पीढ़ी के द्वारा धर्मनिरपेक्षता को एक अभिशाप के रूप में देखा जाने लगा है।
आज भारत करवट ले रहा है। भारत के विषय में यह इतिहास सिद्घ तथ्य है कि जब यह जागता है तो विश्व जागता है, जब यह चलता है तो विश्व चलता है, जब यह दौड़ता है तो विश्व दौड़ता है, जब यह बोलता है तो विश्व बोलता है और जब यह सोता है तो विश्व सोता है। अत: यदि भारत आज करवट ले रहा है तो मानना पड़ेगा कि विश्व करवट ले रहा है। भारत का राष्ट्रवाद कभी भी उग्र नहीं हो सकता, इसका राष्ट्रवाद भी मानवतावाद है। उसमें किसी के प्रति हिंसा या प्रतिहिंसा का भाव नहीं है, घृणा नहीं है और किसी प्रकार का द्वेषभाव नहीं है। यह सामूहिक उन्नति चाहता है और सबको फलने-फूलने का अवसर देना चाहता है। इसके इस विचार को आज का विश्व अपनी सहमति देता जा रहा है।
विश्व आज के भौतिकवाद में फंस चुका है। फलस्वरूप हम एक टूटे हुए और थके हुए विश्व को हांफता हुआ देख रहे हैं। वह एक ओर चांद को छू रहा है और मंगल पर अपनी पताका फहराने की निर्णायक तैयारी कर रहा है और दूसरी ओर ऐसा प्रदर्शन भी कर रहा है कि जैसे वह अत्यधिक निराश और हताश है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत