1976ई. में स्व. श्रीवेणीशंकर मु. वासु ने एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था-‘‘कहां गयी गोचर भूमि’’। लेख बड़ा तथ्यपरक और मार्मिक था, जो आज भी हमारी सरकार और हमारे देश वासियों की उस सामूहिक चेतना को झंकृत करने की सामथ्र्य रखता है, जो इस समय गाय के विषय में पूर्णत: उदासीन है, या मर चुकी है। विद्वान लेखक का उस समय का आंकलन था-जो देश स्वयं को उद्योग प्रधान कहलाते हैं, और जिनके उद्योगों को भी भारत के कृषि उत्पादों पर आधारित रहना पड़ता है, वे भी अपने पशुओं के लिए और उनके परिपालन की ओर ध्यान देते हैं और संभव हो तो उतनी ज्यादा जमीन में चरागाह रखते हैं। ब्रिटेन खुद के लिए अनाज आयात करके भी और जापान रूई आयात करके भी चरागाहों को सुरक्षित रखते हैं। क्योंकि उनको चरागाहों और पशुओं का महत्व समझ में आया है।
इंग्लैंड हरेक पशु के लिए औसतन 3.5 एकड़ जमीन चरने के लिए अलग रखता है। जर्मनी 8 एकड़, जापान 6.7 एकड़ और अमेरिका हर पशु के लिए औसतन 12 एकड़ जमीन चरनी के लिए अलग रखता है। इसकी तुलना में भारत में एक पशु के लिए चराऊ जमीन 1920 ई. में 0.78 एकड़ अर्थात अनुमानित पौना एकड़ थी। (संदर्भ : एग्रीकल्चरल स्टेटिस्टिक्स ऑफ इंडिया 1920-21 खण्ड-1) अब यह संख्या घटकर प्रति पशु 0.09 एकड़ हो गयी है। अर्थात अमेरिका में 12 एकड़ पर एक पशु चरता है, जबकि अपने यहां एक एकड़ पर 11 पशु चरते हैं। (संदर्भ : इंडिया 1947 पेज 172-187) मात्र एक वर्ष में अपने यहां साढ़े सात लाख एकड़ जमीन पर के चरागाहों का नाश कर दिया गया। 1968 में चराऊभूमि 3 करोड़ 32 लाख 50 एकड़ थी जो 1969 ई. में घटकर तीन करोड़ 25 लाख एकड़ हो गयी। (संदर्भ : इंडिया 1947 पेज 172) और अगले पांच वर्षों में अर्थात 1974 में वह घटकर तीन करोड़ 22 लाख 50 हजार एकड़ रह गयी। इस प्रकार केवल छह वर्षों में दस लाख एकड़ गोचर भूमि का विनाश हुआ।
इसके पश्चात आज की स्थिति ये है कि देश के अधिकांश गांवों में गोचर भूमि को खोजना भी अत्यंत कठिन है। ‘‘जो भूमि सरकारी (सार्वजनिक) है वह भूमि हमारी है’’- इस कुसंस्कार को आधार वाक्य बनाकर कार्य करने की प्रतिस्पद्र्घा यहां सरकारों में और लोगों में उत्पन्न हुई और देखते ही देखते सारी गोचर भूमि लुप्त हो गयी। अभिलेखों में गोचर भूमि का उल्लेख मिल सकता है, परंतु स्थल पर भी वह गोचर भूमि स्थित हो यह आवश्यक नही है। जैसे देश के तालाबों को देश प्रदेश के राजस्व विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों ने मोटी धनराशि ले लेकर अवैध अतिक्रमण करा-करा के लोगों को उन पर बसाकर समाप्त प्राय: कर दिया है उसी प्रकार गोचर भूमि भी देश में समाप्त कर दी गयी है।
इस स्थिति के लिए उत्तरदायी कौन है? यह प्रश्न भी बड़ा ही समसामयिक और उचित है। हमारा मानना है कि इसके लिए सरकार की वह सोच उत्तरदायी है जिसके परिणाम स्वरूप गौ को केवल एक पशु माना गया और ऐसी नीतियों का निर्धारण किया कि गोवंश का नाश किया जा सके। गोमांस के निर्यात से होने वाली ‘आय’ और उससे मिलने वाला ‘कमीशन’ तो मंत्री जी को दीखता रहा, पर देश की विनष्ट होती अर्थव्यवस्था की ओर उसका ध्यान नही गया।
देश में नीतियां बनायी गयीं और अनीतियां लागू की गयीं। बीते 72 वर्षों में देश की सरकारी कार्यप्रणाली का यदि सूक्ष्मता से निरीक्षण, परीक्षण और समीक्षण किया जाए तो यही निष्कर्ष निकलेगा। जैसे गाय के वंश के संवर्धन की योजनाएं बनायीं गयीं तो दिखाया यह गया कि जैसे हम गोसंवर्धन की बात कर रहे हैं। पर जब 1954 ई. में संबंधित कानून लागू किया गया तो उसमें ‘चोर दरवाजा’ यह कहकर छोड़ दिया गया कि यदि गोवंश अनुपयोगी है, बूढ़ा है, दूध नही दे रहा है, तो देश में चारे की कमी के कारण उसका वध किया जा सकता है। इसी चोर दरवाजे से आज तक गाय वंश का विनाश किया जा रहा है। इसी प्रकार देश में किसानों के नाम पर, कृषि विकास के नाम पर योजनाएं बनती हैं, पर उन्हें जब लागू किया जाता है तो वहां भी हमारे हाथ अनीति ही आती है। ऐसी बातों को देखकर एक सज्जन ने एक अपनी पुस्तक का नाम रखा-‘‘ धूर्त्तोंके देश में और मूर्खों के राज में’’।
हमने 17 बार आम चुनाव करा लिये हैं। कहने का अभिप्राय है कि 17 बार हमें गौभक्त और गौवंश विध्वंसकों के मध्य चुनाव करने का अथवा नीतियों के नाम पर अनीतियों को लागू करने वालों को दंडित करने का अवसर मिला, पर हमने अवसरों को पहचानने का प्रयास नही किया। अवसर आते रहे और हमारे सिर के ऊपर से जाते रहे। इसके उपरंात भी हम अपने आपको विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र मानते हैं, और उस पर गर्व करते हैं। जबकि हमने परिपक्व लोकतंत्र का परिचय तो नही दिया।
इसी लोकतंत्र के चलते 7 नवंबर 1966 को देश में गौभक्तों पर सरकार की निर्मम गोलियां चलीं और देश की राजधानी के ‘राजपथ’ पर लोकतंत्र की सार्वजनिक हत्या कर दी गयी। उसी ‘हत्यारी सरकार’ को देश की जनता ने पुरस्कार देकर 1971 के आम चुनावों में पुन: सत्तासीन कर दिया। श्री वेणीशंकर जी का कहना है कि 1860 तक हमारे देश में चरनी में घास (बरसाती वनस्पतियों से अभिप्राय है) इतना ऊंचा उगता था कि यदि कोई घुड़सवार हाथ में भाला लेकर घोड़े पर आता था, तो वह घास में ढक जाता था। दूर से कोई उसे देख नही पाता था। आज की स्थिति ऐसी नही है। अधिकांश गांवों में जहां कहीं घास उगती है तो वह कुछ इंचों में ऊंची हो पाती है। इसका कारण ये है कि जंगल सीमित रह गया है और उसी चरान पर प्रतिदिन पशु चरने आते हैं, रात-रात में वह घास कितनी बढ़ सकती है? जिसे अभी शाम में ही पशु चरकर गये थे। एक और दुखद स्थिति है कि हम अब अपने घरों के बाहर कोई ऐसा कुण्ड या छोटी नॉद जैसी चीज नही बनाते या रखते हैं जिनमें पशुओं के लिए पानी भरा रह सके और पशु उन्हें जब चाहें प्रयोग कर सकें। इससे गायादि पशु प्यासे तड़पते देखे जा सकते हैं विदेशों ने भारत से कुछ सीखा है और उस सीख को उन्होंने सुरक्षित रखा है, परंतु भारत ने उनसे इतना भी नही सीखा कि इन्होंने जो कुछ मुझसे सीखा है उससे ही मैं कुछ सीख लूं। विदेशों ने पशु पालन को एक सम्मानजनक व्यवसाय माना है, जबकि हमने तो पशुपालन और कृषि तक को एक ऐसा घृणास्पद व्यवसाय बना दिया है कि उसका नाम सुनकर ही लोग दूर हट जाते हैं। गौ पालन के स्थान पर ‘कुत्ता पालन’ का प्रचलन अवश्य बढ़ा है, और प्रात:काल उस कुत्ते को ‘बड़े साहब’ स्वयं शौचादि कराने ले जाते हैं। कुत्ता ‘बड़े साहब’ का ‘साहब’ है। क्योंकि ‘साहब’ को अपने कार्यालय में तो पानी पिलाने वाला भी एक व्यक्ति अलग होता है पर वही ‘साहब’ जब घर जाते हैं तो कुत्ते को शौच कराने ले जाते हैं। शर्म की बात पर शर्म नही आती और गर्व की बात (गौपालन) पर गर्व नही होता? हम कहां खड़े हैं। विचारणीय है।
आज हमें 7 नवंबर 1966 के दिन हुतात्मा हुए अपने वीरों की आत्मा से पूछना होगा कि आपके सपने क्या थे, और आप कैसा भारत निर्माण करना चाहते थे। केन्द्र में मोदी सरकार काम कर रही है, उससे बड़ी अपेक्षाएं लोगों को हैं। मोदी संस्कृति रक्षक प्रधानमंत्री के रूप में कार्य भी कर रहे हैं इसलिए उन्हें 7 नवंबर को गौभक्त बलिदान दिवस के रूप में मनाने की घोषणा करनी चाहिए और इस दिन को विश्वोत्थान के लिए समर्पित करना चाहिए। क्योंकि गौमाता के दिव्य गुणों और लक्षणों के कारण गाय विश्व माता भी है। सर्वदलीय गोरक्षा मंच और समस्त गौ सेवी संस्थाएं इसी एक सूत्र पर कार्य करें कि हमें देश में गो संस्कृति को लागू कराके गौ आधारित अर्थव्यवस्था को अपनाना है तो गौ विश्वमाता स्वयं ही बन जाएगी। इसके लिए सरकार अपनी व्यापक कार्यनीति जितना शीघ्र हो घोषित कर दे। 7 नवंबर के बलिदानियों के बलिदान की अब अधिक परीक्षा लेने की आवश्यकता नही है। अब मोदी जी उन्हें पुरस्कार दें और ‘भागीरथी’ को लाकर इन हुतात्माओं की आत्मा को शांति प्रदान करें। कार्य कठिन तो है पर असंभव नही।
मेरे द्वारा लिखित पुस्तक ” वैदिक धर्म में गौ माता ” – के पृष्ठ संख्या 82 से उद्धृत )
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत